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लड़ाई तो लालू और आनंद मोहन की थी, लेकिन दे दी गई बाहुबली की बलि…खून से लिखी गई छोटन और बृजबिहारी की खौफ़नाक कहानी!

Bihar Crime Story

लालू यादव और आनंद मोहन

Bihar Crime Story: एक ठंडी रात थी, जब मुजफ्फरपुर के छोटे से गांव में एक बच्चे ने दुनिया में कदम रखा था, जिसकी कहानी सुनकर आज भी हलचल मच जाती है. यह बच्चा कोई आम बच्चा नहीं था. उसकी आंखों में एक अलग ही चमक थी, जैसे वह किसी बड़े बदलाव की ओर बढ़ रहा हो. ये कहानी एक गैंगस्टर की है. नाम था- छोटन शुक्ला. छोटन की कहानी केवल बिहार तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि यह पूरे देश की राजनीति और अपराध की गहरी धारा को न केवल समझने का एक जरिया बनी, बल्कि एक ऐसी फिल्म जैसी बन गई, जिसकी पटकथा में हर मोड़ पर एक नई दिलचस्पी थी.

छोटे से गांव का लड़का बन गया बड़ा गैंगस्टर

एक साधारण सा बच्चा, मुजफ्फरपुर जिले के एक छोटे से गांव में पैदा हुआ, लेकिन उसमें कुछ ऐसा था कि उसकी क़िस्मत उसे उन गलियों तक ले गई, जहां हर दिन लाशें गिरीं, खून बहा और सियासत ने उसे अपने कब्जे में ले लिया. छोटन का बचपन गरीबी में बीता था, लेकिन उसमें वह आंतरिक ताकत थी जो उसे जल्दी ही हर किसी से अलग बना देती थी. वह जानता था कि अगर उसे जिंदा रहना है, तो ताकत चाहिए—सिर्फ़ किताबों से नहीं, बल्कि सड़क पर संघर्ष करते हुए.

मुजफ्फरपुर के रास्तों में छोटन शुक्ला का नाम जैसे हवा में गूंजने लगा. पहले उसने छोटी-मोटी ठगी की, फिर किसी बड़े आदमी से दो-चार हाथ किए. धीरे-धीरे वह इलाके का सबसे बड़ा गैंगस्टर बन गया. उसके आगे कोई भी नेता या आदमी अपना प्रभाव नहीं जमा पा रहा था. वहीं से उसकी राजनीतिक ताकत की शुरुआत हुई, क्योंकि उस समय बिहार में राजनेताओं और अपराधियों का संबंध चोली-दामन का था. असली कहानी यहीं से शुरू होती है.

जब छोटन ने रखा राजनीति में कदम

90 के दशक में बिहार की राजनीति उफान पर थी. यहां हर कोई सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकता था, और अपराधियों के लिए तो राजनीति में एक नई राह ही खुल जाती थी. छोटन शुक्ला ने इसका बखूबी फायदा उठाया. वह केवल एक गैंगस्टर नहीं था, बल्कि एक राजनेता भी बन चुका था. आनंद मोहन जैसे बाहुबली नेता के साथ उसकी जोड़ी भी बन गई. बिहार पीपल्स पार्टी (BPP) के गठन में उसने अहम भूमिका निभाई और देखते ही देखते वह राजनीति में भी स्थापित हो गया.

राजनीति की जो धारा उस समय बह रही थी, उसमें वह बिल्कुल फिट बैठ रहा था. उसने सिर्फ अपनी ताकत को ही नहीं बढ़ाया , बल्कि राजनीति में अपराधियों का एक नया चेहरा भी सामने लाया. लोग कहते थे, “छोटन का एक इशारा काफी है, पूरा इलाका उसकी जेब में है.” लेकिन इस बेशुमार ताकत के साथ छोटन शुक्ला के पास दुश्मन भी बहुत थे.

खून के प्यासे थे छोटन के दुश्मन

बिहार में उस समय की राजनीति बहुत कच्ची थी. गैंगवार से लेकर सियासी संघर्ष तक सबकुछ आम था. छोटन शुक्ला की ताकत बढ़ने के साथ ही उसे कई दुश्मन भी मिल गए थे. इनमें सबसे प्रमुख नाम था बृजबिहारी प्रसाद. बृजबिहारी एक ताकतवर नेता थे, जो छोटन के बढ़ते प्रभाव को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. दोनों के बीच आपसी संघर्ष ने गांव-गांव तक भय का माहौल बना दिया था. अब यह संघर्ष केवल इलाके की शक्ति का नहीं, बल्कि राजनीति और अपराध की सियासत का युद्ध बन चुका था. दोनों के पास अपनी-अपनी सेना थी, दोनों के पास अपनी-अपनी ताकत थी और दोनों एक-दूसरे को धूल चटाने के लिए तैयार थे.

3 दिसंबर 1994: उस काली रात की कहानी

1994 का 3 दिसंबर, मुजफ्फरपुर में जब छोटन शुक्ला चुनाव प्रचार कर रहा था, तभी एक घटनाक्रम ने पूरे राज्य को हिला कर रख दिया. वह अपनी कार में बैठकर घर लौट रहा था और इस समय उसकी सुरक्षा भी काफी कड़ी थी. लेकिन यह क्या? पुलिस की वर्दी में कुछ लोग आए. हथियारों से लैस ये लोग उसके आसपास पहुंच गए और एक ही पल में छोटन शुक्ला को मौत के घाट उतार दिया. उसकी हत्या ने सिर्फ एक व्यक्ति की जान नहीं ली, बल्कि बिहार के राजनीतिक सिस्टम को भी हिला कर रख दिया. छोटन की मौत ने एक सुलगती हुई आग को और भड़का दिया था. दावा किया जाता है कि छोटन शुक्ला की हत्या के पीछे बृजबिहारी प्रसाद थे.

बृज बिहारी प्रसाद की कहानी भी 90 के दशक में ही शुरू होती है. बृज बिहारी प्रसाद की एंट्री कॉलेज के दौर में हुई और राजनीतिक में दिलचस्पी होने की वजह से बृज बिहारी प्रसाद आगे चलकर मंत्री बने थे. बाहुबली छोटन शुक्ला और बृजबिहारी के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ गई थी. दोनों के बीच तनातनी इतनी बढ़ गई थी कि अगर एक दूसरे के आमने-सामने आ जाए तो कोई किसी की भी लाश गिरा देता. हालांकि, उस दौर में लालू प्रसाद यादव के करीबी होने के वजह से उनका रूतबा बहुत ज्यादा था. अब आपके मन में सवाल उठ रहा होगा कि आखिर छोटन शुक्ला की हत्या क्यों की या कराई गई थी? इस कहानी को जानने के लिए एक बार फिर से पीछे जाना होगा…

उत्तर बिहार की राजनीति में 90 के दशक में एक अलग ही माहौल था, जहां सत्ता के लिए खून-खराबा आम बात थी. उस समय बिहार के कई नेताओं और माफिया डॉनों का एक ऐसा गठजोड़ था, जिसने राज्य की राजनीति को एक नया और खतरनाक मोड़ दिया. मुन्ना शुक्ला, आनंद मोहन और लवली आनंद और लालू यादव जैसे नेताओं का नाम इस सियासी खेल में बड़े पैमाने पर आया था. इन दोनों का जुड़ाव केवल राजनीति से नहीं, बल्कि उस समय के माफिया और आपराधिक कृत्यों से भी था, और आज भी उनकी छायाएं बिहार की राजनीति में देखी जा सकती हैं.

बिहार के 90 के दशक का खतरनाक माफियाराज

90 के दशक में बिहार की राजनीति की तस्वीर बहुत ही खौ़फनाक थी. इस दौरान राज्य में जातीय और सामाजिक संघर्षों के बीच एक नया सत्ता समीकरण उभर रहा था. एक ओर जहां लालू यादव की समाजवादी राजनीति ने राज्य में पिछड़ी जातियों के लिए दरवाजे खोले थे, वहीं दूसरी ओर कई बाहुबली नेता और माफिया डॉन अपनी ताकत बढ़ाने में लगे हुए थे. इन्हीं में से एक नाम था आनंद मोहन. वह बिहार पीपल्स पार्टी के नेता थे और समाजवादी राजनीति के नाम पर अपने ही तरीके से सत्ता हासिल करने की कोशिश कर रहे थे.

आनंद मोहन अकेले नहीं थे. उनका साथ देने के लिए छोटन शुक्ला, भुटकुन शुक्ला और मुन्ना शुक्ला जैसे माफिया गुट के नेता भी सक्रिय थे. इन अपराधियों और नेताओं के गठजोड़ ने बिहार की राजनीति को उस समय अपनी दिशा दी.

छोटन शुक्ला की हत्या के बाद की स्थिति

1994 में छोटन शुक्ला की हत्या ने उत्तर बिहार की सियासत को हिला कर रख दिया था. यह हत्या 3 दिसंबर को हुई, और यह घटना एक बड़ी राजनीतिक प्रतिक्रिया का रूप बन गई. छोटन शुक्ला उस समय के सबसे बड़े माफिया डॉनों में से एक था, और उसकी हत्या के बाद पूरे बिहार में हिंसा और गुस्से की लहर दौड़ गई. डीएम जी कृष्णैया की हत्या भी उसी समय हुई.

छोटन शुक्ला की हत्या ने एक नया मोड़ लिया. उसके शव को लेकर एक बड़ी शवयात्रा निकाली गई, जो न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में चर्चा का विषय बन गई. यह शवयात्रा ऐसी थी, जैसे एक दिग्गज नेता की मौत हुई हो. लोग जुटे, भाषण दिए गए, और शोक के बाद की राजनीति भी चलने लगी.

छोटन की हत्या का बदला लेने निकला भुटकुन

1994 में छोटन शुक्ला की हत्या मामले में मुजफ्फरपुर की अदालत ने फाइल बंद कर दी, लेकिन जो बदले की आग भुटकुन शुक्ला के दिल में सुलग रही थी, उसने इलाके की सियासी और आपराधिक दुनिया को एक नई दिशा दी. छोटन शुक्ला की हत्या के बाद भुटकुन शुक्ला ने बदला लेने की ठान ली. वह खुद एक शार्प शूटर था और इस बदले की राह में उसने किसी को नहीं छोड़ा. यही नहीं, इस दौरान उसकी मुलाकात हुई श्रीप्रकाश शुक्ला से, जो उत्तर प्रदेश का एक बड़ा डॉन था. श्रीप्रकाश की मदद से भुटकुन ने उत्तर बिहार में नए हथियारों का एक पूरा जखीरा मंगवाया, जिससे उसकी ताकत और बढ़ गई. अब भुटकुन का इरादा था कि वह बदला ले और इसके लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था.

बृजबिहारी प्रसाद का खेल खत्म करने की कसम

भुटकुन की नजर में सबसे बड़ा शिकार बृजबिहारी प्रसाद था, जो उस वक्त बिहार की राजनीति में काफी प्रभावी था. बृजबिहारी प्रसाद ने अपनी ताकत से राज्य की राजनीति में अपनी धाक जमाई थी, लेकिन उसकी यह धाक भुटकुन को बिल्कुल भी पसंद नहीं आई थी. जैसा कि अक्सर होता है, भुटकुन ने जब अपनी योजना बनाई, तो बृजबिहारी के करीबी लोग पहले ही चौकस हो गए. उन्हें भुटकुन के इरादों की भनक लग चुकी थी, और इसकी वजह से उनकी सुरक्षा बढ़ा दी गई.

लेकिन भुटकुन ने जो कदम उठाया, वह किसी के लिए भी अप्रत्याशित था. बृजबिहारी के दाहिने हाथ के रूप में काम करता था ओंकार सिंह. वह भी भुटकुन के निशाने पर था. ओंकार सिंह एक शार्प शूटर था, और वह बृजबिहारी के लिए ठेकेदारी का काम करता था, साथ ही बृजबिहारी के पैसे का प्रबंधन भी करता था. ऐसे में ओंकार को हर हाल में खत्म करना भुटकुन के लिए जरूरी हो गया था.

ओंकार सिंह पर 400 राउंड फायरिंग

भुटकुन ने एक सटीक जानकारी के बाद ओंकार सिंह पर हमला करने की योजना बनाई. वह जानता था कि अगर ओंकार बच गया, तो उसका मिशन अधूरा रहेगा. इसके बाद वह ओंकार को पकड़ने के लिए तैयार हो गया. एक दिन, भुटकुन ने ओंकार सिंह को घेर लिया और वहां से शुरू हुआ खौ़फनाक मंजर. भुटकुन के पास अब AK-47 जैसी घातक बंदूकें थीं, और उसने ओंकार और उसके साथियों पर करीब 400 राउंड गोलियां चला डालीं. यह इतनी भारी फायरिंग थी कि आस-पास के लोग थर्रा उठे. इतनी तेज फायरिंग के बाद ओंकार सिंह और उसके 6 गुर्गे मारे गए.

यह छोटन शुक्ला की हत्या का पहला बदला था, लेकिन अब बारी थी बृजबिहारी प्रसाद की, जो अगले निशाने पर था. भुटकुन शुक्ला ने भाई की मौत का बदला लेने के लिए किसी भी प्रकार के समझौते को ठुकरा दिया था. हालांकि इस दौरान बृजबिहारी से समझौते की कोशिशें भी हुईं, लेकिन भुटकुन का जज्बा ठाना हुआ था – “भाई का बदला लेना है, चाहे जो हो जाए.”

भुटकुन की हत्या

भुटकुन की कोशिशें जारी थीं, लेकिन जब तक वह अपना आखिरी बदला लेता, तब तक भुटकुन के बॉडीगार्ड दीपक सिंह ने उसे गोली मार दी. भुटकुन शुक्ला के लिए यह विश्वासघात था और शुक्ला परिवार के लिए एक और दर्दनाक मोड़. लेकिन इस हत्याकांड ने बदला लेने की जिम्मेदारी विजय कुमार शुक्ला उर्फ मुन्ना शुक्ला के कंधों पर डाल दी.

मुन्ना शुक्ला की एंट्री

अब मुन्ना शुक्ला के नेतृत्व में शुक्ला परिवार ने फिर से बदला लेने की योजना बनाई, और इस बार मुन्ना के साथ सूरजभान सिंह, श्रीप्रकाश शुक्ला, और राजन तिवारी जैसे खतरनाक बाहुबलियों की टीम थी. इन सब ने मिलकर एक ताकतवर गठबंधन बनाया, और बदला लेने का सिलसिला फिर से शुरू हो गया.

मुन्ना शुक्ला के नेतृत्व में कई बदले की घटनाएं घटीं. इनमें से सबसे महत्वपूर्ण घटना 13 जून, 1998 को हुई, जब बृजबिहारी प्रसाद की हत्या उनके ही सुरक्षा घेरे में की गई. कहा जाता है कि यह हत्या स्वयं श्रीप्रकाश शुक्ला ने की थी, जो भुटकुन शुक्ला का साथी था. बृजबिहारी प्रसाद की हत्या के बाद एक बार फिर राज्य की राजनीति में उथल-पुथल मच गई.

अब बात आनंद मोहन की

अब आपके मन में एक और सवाल उठ रहा होगा कि आखिर इतने लोगों का खून क्यों बहा? इससे किसको ज्यादा फायदा हुआ और किसको नुकसान? आइये सबकुछ विस्तार से बता देता हूं. दरअसल, 1994 में छोटन शुक्ला की हत्या के बाद, उनके समर्थकों ने मुजफ्फरपुर में एक विशाल जुलूस निकाला और शव का अंतिम संस्कार करने की तैयारी की. इस जुलूस के बारे में गोपालगंज के तत्कालीन जिलाधिकारी जी कृष्णैया को कोई जानकारी नहीं थी. वह उस दिन हाजीपुर से गोपालगंज लौट रहे थे, जहां वह एक चुनावी मीटिंग में शामिल हुए थे.

उनका काफिला जब मुजफ्फरपुर के खबरा क्षेत्र में जुलूस के बीच फंसा, तो यह एक बहुत ही अप्रत्याशित और भयावह घटना बन गई. काफिला तो बाद में किसी तरह निकल गया, लेकिन कृष्णैया उस जुलूस से नहीं बच पाए. जब काफिले की BHQ 777 नंबर की एंबेसडर कार से बाहर निकला तो बस एक ही चीज थी—पत्थरों से कुचला हुआ एक डीएम का शव. कृष्णैया की हत्या ने बिहार के सियासी माहौल को पूरी तरह से बदल दिया.

लालू यादव का सोशल जस्टिस अभियान और सवर्णों का विरोध

बिहार में 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ जब लालू यादव ने मुख्यमंत्री के रूप में पदभार संभाला. उनके सत्ता में आने के बाद उन्होंने सोशल जस्टिस अभियान शुरू किया. इस अभियान का उद्देश्य पिछड़ी जातियों और दलितों को राजनीति और समाज में समान अधिकार दिलवाना था. लेकिन सवर्ण जातियों के लिए यह अभियान एक सीधा हमला था, क्योंकि उनका मानना था कि यह सिर्फ यादव जाति के लोगों को मजबूत करने की कोशिश थी.

इस विरोध को आगे बढ़ाने का काम किया आनंद मोहन ने, जो उस समय जनता दल के सदस्य थे. उन्होंने लालू यादव के खिलाफ आवाज उठाते हुए अपनी खुद की पार्टी बनाने का ऐलान किया और कांग्रेस ने भी उनकी इस बगावत को समर्थन दिया.

हेमंत शाही की हत्या

वैशाली से विधायक हेमंत शाही की हत्या कर दी गई. साल था 1992, यानी की छोटन की हत्या से 3 साल पहले. इस हत्या के बाद वैशाली में राजनीतिक उथल-पुथल मच गई. आनंद मोहन ने इस मौके का फायदा उठाया और अपनी पार्टी की जमीन मजबूत करने की दिशा में काम करना शुरू किया. उन्होंने लालू यादव के गढ़, वैशाली में अपनी पत्नी लवली आनंद को उम्मीदवार बना दिया और वहां चुनावी लड़ाई शुरू की.

आनंद मोहन की रणनीति और भूमिहार-राजपूत जातियों का गठजोड़ इस चुनाव में सफल हुआ और लवली आनंद 30 साल की उम्र में सांसद बन गईं. इसके बाद आनंद मोहन ने लालू यादव को सत्ता से हटाने का ऐलान किया. मुजफ्फरपुर में लंगट सिंह कॉलेज के बाहर आनंद मोहन ने जुलूस निकाला और कहा कि छह महीने में वह लालू यादव को सत्ता से हटा देंगे. कहा जाता है कि इस दौरान आनंद मोहन के कई ठिकानों पर लालू ने सरकारी एजेंसी से छापेमारी भी करवाई थी.

छोटन शुक्ला का राजनीति में प्रवेश

चरणबद्ध रूप से बढ़ती ताकत के साथ, छोटन शुक्ला भी राजनीति में अपनी जगह बनाना चाहता था. पहले वह माफियागिरी करता था, लेकिन अब उसने आनंद मोहन का साथ दिया और चंपारण के भूमिहार बहुल केसरिया सीट से चुनावी मैदान में उतरने का फैसला किया. जब वह चुनाव प्रचार करके घर लौट रहा था तभी उसकी हत्या कर दी गई थी.

आनंद मोहन का बगावती भाषण

छोटन शुक्ला की हत्या के बाद, आनंद मोहन ने भगवानपुर चौराहा पर एक सार्वजनिक भाषण दिया. इस भाषण में उन्होंने आरोप लगाया कि लालू यादव के द्वारा राज्य में सवर्णों के खिलाफ साजिश रची जा रही है. आनंद मोहन ने यह भी कहा कि अगर सवर्णों को कुछ हुआ, तो कोई भी अधिकारी और पुलिसकर्मी नहीं बचेगा. इसके बाद पूरे इलाके में बदला-बदला के नारे गूंजने लगे.

इसके कुछ ही दिन बाद 5 दिसंबर 1994 को कृष्णैया की हत्या कर दी गई. इस घटना के बाद पूरे देश में हंगामा मच गया. आनंद मोहन, लवली आनंद, भुटकुन शुक्ला, और मुन्ना शुक्ला को पुलिस ने आरोपी बनाया और गिरफ्तार किया. इस हत्या ने न केवल बिहार की सियासत को बदल दिया, बल्कि पूरे देश में एक गहरी चिंता पैदा की, जहां एक आईएएस अधिकारी को सिर्फ राजनीतिक संघर्ष के कारण इस तरह की निर्दयता से मार दिया गया. इन आरोपियों में से कइयों की मौत हो चुकी है. कहानी पुरानी है लेकिन बिहार के दामन पर खूनी छींटे आज भी ताजा हैं.

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