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पहली परीक्षा में ही फेल हो गए प्रशांत किशोर, दागी कैंडिडेट्स ने लिख दी हार की पटकथा? दावे वाला दांव भी पड़ गया उल्टा!

प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर

Bihar By-Election: बिहार में चार सीटों पर हुए उपचुनाव ने एक नाम को मुख्य धारा में ला दिया, और वह नाम है – प्रशांत किशोर. हालांकि वह इस चुनावी मैदान में प्रत्याशी के रूप में नहीं उतरे, फिर भी उनकी चर्चा चुनावी प्रचार से लेकर चुनाव परिणाम तक हर जगह सुनाई दी. पीएम मोदी, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत कई दिग्गजों के लिए खुद को ‘किंग मेकर’ कहते रहे हैं, क्योंकि कभी इन लोगों की चुनावी रणनीति का हिस्सा रहे थे. उप चुनाव की सुगबुगाहट के बीच गांधी जयंती पर इस बार एक बड़ा कार्यक्रम करते हुए उन्होंने अपनी संस्था जन-सुराज को पार्टी के रूप में बदला और बिहार विधानसभा चुनाव 2025 से पहले चार सीटों पर उपचुनाव जीतने का दावा किया.

यह दावा उपचुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने बड़े पैमाने पर किया था, लेकिन बिहार विधानसभा उपचुनाव परिणाम ने उनकी रणनीति पर सवाल खड़े कर दिए. अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या प्रशांत किशोर का राजनीतिक करियर एक रणनीतिकार से नेता बनने का रास्ता अख्तियार करेगा या फिर वह सिर्फ चुनावी दावे करने वाले नेता के रूप में ही रह जाएंगे, जिनका जमीनी कामकाज उतना प्रभावी नहीं दिखा.

प्रशांत किशोर का चुनावी रुख

प्रशांत किशोर ने जब ‘जन सुराज’ पार्टी बनाई थी, तो उन्होंने इसे एक नए राजनीतिक विकल्प के रूप में पेश किया था. 2 अक्टूबर 2023 को गांधी जयंती पर पटना में आयोजित एक विशाल कार्यक्रम में प्रशांत किशोर ने इस पार्टी का ऐलान किया और इसके बाद बिहार की राजनीति में बदलाव लाने की अपनी योजनाओं का खुलासा किया. प्रशांत किशोर ने अपनी पार्टी के जरिए बिहार की राजनीति में जातिवाद और परिवारवाद के खिलाफ अपनी लड़ाई की बात की थी और दावा किया था कि वह बिहार को एक नई दिशा देंगे. उन्होंने उपचुनाव में चार सीटों पर जन सुराज के विजय का दावा किया था. यही नहीं, उन्होंने यहां तक कहा था कि उनकी पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में सरकार बनाएगी और उपचुनाव से इसकी शुरुआत होगी.

उपचुनाव के नतीजे और जन सुराज का प्रदर्शन

बिहार के चार सीटों पर हुए उपचुनाव में जन सुराज पार्टी का प्रदर्शन उम्मीद के अनुसार नहीं रहा. चार सीटों में से तीन सीटों पर पार्टी के प्रत्याशी तीसरे और एक सीट पर चौथे नंबर पर रहे. यह परिणाम प्रशांत किशोर के बड़े दावों के उलट थे. वह प्रचार के दौरान बार-बार यह कहते रहे कि उनकी पार्टी की रणनीति सही दिशा में जा रही है और चारों सीटों पर जीत हासिल करेंगे, लेकिन चुनावी परिणाम ने उनके इस दावे को खारिज कर दिया.

बेलागंज में जन सुराज के प्रत्याशी को 15,000 से ज्यादा वोट मिले, जो एक अच्छा प्रदर्शन माना जा सकता था, लेकिन इस सीट पर भी जीत के बजाय तीसरी स्थिति रही. कैमूर में लगभग 6000 वोट मिले, जो भी उम्मीद से कम था. वहीं, तरारी और रामगढ़ सीटों पर जन सुराज के प्रत्याशियों को केवल पांच हजार के आसपास वोट मिले, जो एक तरह से पार्टी की नाकामी का संकेत था. यह परिणाम बता रहा है कि प्रशांत किशोर की पार्टी न तो अपनी जमीनी पकड़ बना पाई और न ही वह उन अपेक्षाओं पर खरे उतर पाए, जो उन्हें बिहार की जनता ने दी थी.

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रणनीतिकार हिट, पर नेता फ्लॉप

प्रशांत किशोर का चुनावी रणनीतिकार के रूप में करियर बहुत ही सफल रहा है. उन्होंने नरेंद्र मोदी, नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अन्य नेताओं के लिए चुनावी रणनीति बनाई थी और उनके लिए जीत सुनिश्चित की थी. वह हमेशा चुनावी रणनीतिकार के तौर पर चर्चित रहे थे और उनके पास जादुई आंकड़े और योजनाओं की जबरदस्त ताकत थी. लेकिन इस बार, जब उन्होंने खुद को एक राजनेता के रूप में पेश किया, तो उनकी वास्तविकता सामने आई. एक चुनावी रणनीतिकार का काम केवल अच्छे आंकड़ों के आधार पर चुनावी गणित तैयार करना होता है, जबकि एक राजनेता का काम केवल चुनावी प्रचार तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसे जमीनी मुद्दों को समझने, जनता से जुड़ने और उनके वास्तविक मुद्दों को हल करने के लिए ठोस कदम उठाने होते हैं.

प्रशांत किशोर का यह कदम एक राजनीतिक रणनीतिकार से खुद को पार्टी नेता के रूप में स्थापित करने का था, लेकिन इसका असर उनकी छवि पर उल्टा पड़ा. प्रचार के दौरान वह स्वयं को सत्ता का अगला विकल्प बता रहे थे, लेकिन जब चुनावी नतीजे सामने आए तो यह स्पष्ट हो गया कि वह बिहार के राजनीति के असली मुद्दों से कनेक्ट नहीं कर पाए.

जातिवाद और परिवारवाद का विरोध, फिर भी …

प्रशांत किशोर ने चुनावी प्रचार के दौरान दावा किया था कि उनकी पार्टी जातिवाद और परिवारवाद से पूरी तरह से मुक्त है और यह एक नई राजनीति की शुरुआत होगी. उनका कहना था कि बिहार में अगर जातिवाद और परिवारवाद होता तो पीएम मोदी को चुनावी सफलता नहीं मिलती. उन्होंने अपने प्रचार में यह भी कहा था कि उनकी पार्टी सभी जातियों और समुदायों का सम्मान करेगी और उन्हें राजनीति के मुख्यधारा में शामिल करेगी. लेकिन, असलियत यह थी कि उनकी पार्टी में कई ऐसे उम्मीदवार थे, जिनकी जातिवादी और आपराधिक पृष्ठभूमि काफी संदिग्ध थी.

प्रशांत किशोर ने तीन सीटों पर ऐसे उम्मीदवार उतारे, जिनके खिलाफ हत्या, फिरौती, धोखाधड़ी और अन्य गंभीर अपराधों के मामले दर्ज थे. बेलागंज से मोहम्मद अमजद को उम्मीदवार बनाया गया, जिन पर कई मामले दर्ज थे. इसी तरह, इमामगंज से जीतेंद्र पासवासन को उम्मीदवार बनाया गया, जिनके खिलाफ किडनैपिंग और अन्य गंभीर आरोप थे. रामगढ़ से सुशील कुमार सिंह को टिकट मिला, जिन पर हत्या के प्रयास और चेक बाउंस जैसे मामलों में आरोप थे. केवल तरारी सीट पर किरण सिंह को उम्मीदवार बनाया गया, जिनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला नहीं था.

इससे यह साबित होता है कि प्रशांत किशोर के दावे और उनकी वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर था. उन्होंने चुनावी प्रचार में खुद को एक बेदाग नेता के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन उनके उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास ने उनके इन दावों को झूठा साबित कर दिया.

बिहार की असल समस्याओं की अनदेखी

बिहार में जनता की असल समस्याएं बहुत बड़ी हैं, जिनमें भ्रष्टाचार, सरकारी अफसरों की मनमानी और छोटे-मोटे कामों के लिए महीनों इंतजार करना प्रमुख हैं. बिहार के लोग सरकारी कामकाज के लिए अधिकारियों के पास जाने के लिए मजबूर हैं, और उन्हें अक्सर घूस देने की भी आवश्यकता होती है. यह समस्या इतनी गहरी है कि लोग अपनी रोजमर्रा की ज़िंदगी में भ्रष्टाचार से त्रस्त हो चुके हैं. लेकिन प्रशांत किशोर ने अपनी चुनावी रणनीति में इन मूल समस्याओं को नजरअंदाज किया.

प्रशांत किशोर ने अपनी सभाओं में भ्रष्टाचार और सरकारी कर्मचारियों की मनमानी के खिलाफ कभी कोई गंभीर बयान नहीं दिया. इसके बजाय, उन्होंने केवल बड़े वादे किए और इसे चुनावी प्रचार का हिस्सा बना दिया. यह जनता के प्रति उनकी लापरवाही को दिखाता है, क्योंकि जनता की सबसे बड़ी शिकायत यही है कि उन्हें सरकारी कामकाज में वर्षों तक चक्कर काटने पड़ते हैं.

युवा पीढ़ी और राज्य के मुद्दे

बिहार की युवा पीढ़ी अब जातिवाद और परिवारवाद की राजनीति से बाहर निकलने की कोशिश कर रही है. उन्हें अब राज्य में बड़े उद्योगों की जरूरत है ताकि वे रोजगार पा सकें और राज्य में ही अपनी ज़िंदगी को बेहतर बना सकें. हालांकि प्रशांत किशोर ने पलायन और रोजगार के मुद्दे को उठाया था, लेकिन उन्होंने इस पर कोई ठोस नीति नहीं दी. बिहार के युवाओं को बड़ी फैक्ट्रियों और रोजगार के अवसरों की आवश्यकता है, लेकिन प्रशांत किशोर ने इस मुद्दे पर कोई गंभीर चर्चा नहीं की.

अगर वह बिहार को वाकई में बदलना चाहते हैं, तो उन्हें इन मुद्दों पर अपनी नीति पर काम करना होगा. केवल सपने दिखाकर जनता को आकर्षित नहीं किया जा सकता, उन्हें जमीनी समस्याओं का समाधान चाहिए.

आगे की राह

प्रशांत किशोर ने कहा था कि आगामी चुनाव उनके लिए “अर्श या फर्श” हो सकते हैं, लेकिन उपचुनाव के परिणाम ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उनका राजनीतिक करियर एक चुनौतीपूर्ण मोड़ पर है. हालांकि, उन्होंने राज्य में पदयात्रा की है, लेकिन आम आदमी से जुड़ नहीं पाएं हैं. उन्हें अब यह समझने की जरूरत है कि केवल आंकड़ों और प्रचार से काम नहीं चलेगा, बल्कि उन्हें लोगों की वास्तविक समस्याओं का समाधान देना होगा. बिहार की जनता को केवल अच्छे दावे नहीं चाहिए, बल्कि उन्हें ऐसे नेता चाहिए जो उनके रोज़मर्रा के मुद्दों को समझे और उन्हें हल करने के लिए काम करें.

अगर प्रशांत किशोर को सच में बिहार में बदलाव लाना है तो उन्हें अपनी रणनीति में बदलाव करना होगा और जमीनी स्तर पर काम करना होगा. उन्हें यह समझना होगा कि राजनीति केवल चुनावी रणनीति तक सीमित नहीं होती, बल्कि यह जनता की सेवा, उनके मुद्दों का समाधान और राज्य के विकास की दिशा तय करने का नाम है.

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