Hasdeo Coal Mining: “केते उजड़ गे सुन्ना पड़गे, आए ला परही हो, नोनी के दाई रोवत हे,ओला मनाए ले परही हो”
अपनी मधुर आवाज में 52 वर्षीय शिव प्रसाद ने जब हमें यह गाना सुनाया, उस वक्त वो अपने गांव केते से लगभग 30 किलोमीटर दूर अपने नए घर के आंगन में बैठे थे.
गाने के बोल छत्तीसगढ़िया बोली में हैं जिनका अर्थ, “हमें शिव प्रसाद कुछ यूं बताते हैं कि केते की धरती रो रही है, केते गांव उजड़ गया और अब सूना पड़ा है और केते के बच्चे यानी कि हसदेव के रहवासियों की मां रो रही है जिन्हें मनाना पड़ेगा, यानी कि हसदेव को बचाना पड़ेगा.”
केते हसदेव के घने जंगलों के बीच और कोयले की खदान के ऊपर बसा हुआ गांव था. मात्र कुछ दशक पहले न तो ग्रामीणों को कोयले की खदानों के बारे में जानकारी थी और न ही सरकारों को. हसदेव की लड़ाई लड़ रहे लोगों का तर्क है कि यह इलाक़ा संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है जहां पंचायत राज (अनुसूचित इलाक़ों में विस्तार) क़ानून यानी 1996 के पेसा क़ानून के तहत भी आता है. साथ ही 2006 के वन अधिकार क़ानून के तहत आदिवासियों को हसदेव के जंगलों में सामुदायिक अधिकार भी प्राप्त हैं. इसलिए हसदेव के भविष्य को लेकर होने वाले निर्णयों में वहां के लोगों का मत सबसे अंतिम मत होना चाहिए.
2009 तक जिस इलाके को ‘no go region’ घोषित किया हुआ था, उस क्षेत्र में वर्ष 2013 में परसा ईस्ट केते बासन नामक खदान में कोयला उत्खनन की अनुमति भी मिल गई और प्रक्रिया भी चालू हो गई.
PEKB Coal Block का खनन दो चरणों में किया जाना था, जिसमें से पहला चरण 2013 में शुरू हुआ था. इसे कम से कम 15 वर्षों तक खनन किया जाना था. ये बात और है कि खनन कंपनी ने वर्ष 2021 तक में ही खदान से सारा कोयला निकाल लिया, इस पर चर्चा आगे उसके पहले…
ठंड का मौसम, उस पर हल्की बारिश और उस पर अपनी फूल की चित्रकारी से लैस शॉल को ओढ़ते हुए शिव प्रसाद ने कुर्सी खींची और लंबी सांस लेकर हसदेव के जंगलों में पसरा विवाद बताना शुरू किया.
वर्ष 2011 में अनुमति मिलने और खनन प्रक्रिया के पहले विस्थापन का कार्यक्रम चालू हो चुका था. Parsa East Kete Basan खदान में जो केते गांव था वहां के लोगों का विस्थापन सबसे पहले हुआ.
शिव प्रसाद बताते हैं कि अपने गांव में वो कुछ चुनिंदा लोगों में से थे जिन्होंने अपने घरों को, अपनी जमीनों को कोयला खदान के लिए दिए जाने के हुक्म की खिलाफत की.
“हम लोग नहीं चाहते थे कि हमारी जमीन हमसे छीनी जाए, कई जगह हाथ पैर मारा, कई जगह संघर्ष किया लेकिन उसका कोई फायदा नहीं हुआ, हमारी कहीं सुनवाई नहीं हुई. धीरे धीरे दबाव बनाया गया, अधिकारियों द्वारा, कंपनी के लोगों द्वारा और फिर पैसे भी बहुत मिल रहे थे तो ग्रामीण आदिवासियों ने अपनी जमीनें खनन के लिए दे दी. कइयों को तो करोड़ों रुपए मिले, हमें भी लाखों मिले थे लेकिन आज कुछ भी नहीं बचा, पैसे मिलते ही बिचौलिए आ गए थे, भोले भाले लोगों के पैसे भी गए, घर भी गए, अपना गांव, अपने लोग सब चले गए.”
ये गाथा अकेले शिव प्रसाद का ही नहीं है. केते गांव में रहने वाले लगभग सभी परिवारों का यही हाल है, इसमें कई ऐसे भी हैं जिनका अब कोई नामो-निशान नहीं बचा है.
भारत में कोयले के औद्योगिक खनन की कहानी पश्चिम बंगाल के रानीगंज से शुरू हुई, जहां ईस्ट इंडिया कंपनी ने नारायणकुड़ी इलाक़े में 1774 में पहली बार कोयले का खनन किया. आजादी के बाद भारत की जरूरत और बढ़ी और भारत आज अपनी ऊर्जा जरूरतों की 70 प्रतिशत पूर्ति कोयले से करता है.
पिछले वर्षों में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के पास 319 अरब टन का कोयला भंडार हैं जो कि झारखंड, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, तेलंगना और महाराष्ट्र में पाया गया है. बावजूद इसके छत्तीसगढ़ का हसदेव इलाका कोयला उत्खनन के मुद्दों पर हमेशा सुर्खियों में रहता है.
पहले हसदेव में सिर्फ आदिवासी रहते थे, अपनी ज़िन्दगी में मस्त, बाहरी दुनिया से अनजान. दशकों पहले जब भारत सरकार को यहां कोयले के भण्डार के बारे में पता चला उस वक़्त आदिवासियों को इस बात का अंदाजा भी नहीं था कि उनकी ज़िन्दगी में क्या बदलाव आने वाला है.
आज यहां कोयले के ऊपर और खदान के बगल में रहते हैं आदिवासी, वो आदिवासी जो कहते हैं कि अगर किसी को पता ही नही चलता कि उनकी जमीन के नीचे कोयला है… तो शायद जिंदगी बेहतर होती.
हसदेव के जंगलों में कोयला उत्खनन पर इतना जोर क्यों?
छत्तीसगढ़ का हसदेव अरण्य लगभग 1900वर्ग किलोमीटर में फैला एक अनछुआ और अखंडित वन क्षेत्र है. इसी वन क्षेत्र में जमीन के नीचे छिपा है लगभग 5529 मीट्रिक टन कोयला. इसी कोयले को निकालने की जद्दोजहद जिसके लिए वहां सदियों से बसे आदिवासियों को उनकी जमीनें छोड़ने को मजबूर होना पड़ रहा है, इसी की पूरी लड़ाई है.
यह कोयला सतह के करीब स्थित है, जिससे इसका खनन आसान है और इसीलिए हसदेव में खनन प्रक्रिया पर सरकारों और उद्योगपतियों के खासा फोकस है. भारत सरकार ने इस क्षेत्र को 23 “कोयला ब्लॉक” में विभाजित किया है, जिनमें से छह को उसने खनन के लिए मंजूरी दे दी है. उन छह में से चार के खनन का ठेका प्राइवेट कंपनी अदानी को मिला है.
इन खदानों के निर्माण से कम से कम 1,898 हेक्टेयर वन भूमि नष्ट हो जाएगी. केते के तहत विशिष्ट कोयला ब्लॉक में लगभग 450 मिलियन टन कोयला है, जिसकी कीमत लगभग 5 अरब डॉलर है. चीन के बाद भारत दुनिया का सबसे बड़ा कोयला उत्पादक और उपभोक्ता है. 1998 में यह गणना की गई कि 1950 के बाद से खनन परियोजनाओं के कारण 25 लाख से अधिक भारतीय विस्थापित हुए हैं. उसके बाद के वर्षों में और भी बहुत से लोग विस्थापित हुए होंगे.
देश की वार्षिक बिजली का लगभग 70% हिस्सा कोयला क्षेत्र उत्पन्न करता है और कम से कम 30 लाख लोगों को रोजगार देता है. 2008-09 के दौरान जब हसदेव अरण्य में पहली खदान खुल रही थी, तब केते गांव में बहुत चहल पहल हुआ करती थी. आला अफसरों की चमचमाती गाड़ियां और केते के आदिवासियों के लिए चमचमाती जिंदगी का सपना दोनों ही खूब देखे जा रहे थे.
हालांकि आज हकीकत कुछ और ही है. केते से विस्थापित होकर बासेन गांव में आकर रह रहीं मीरा आर्मो से बातचीत में पता चला कि उनके पति को भी अपनी जमीन और घर खदान के लिए देना पड़ा था. हालांकि आज उनके पास अपने पुश्तैनी घर से दूर सिर्फ 2 कमरों का एक मकान बचा है.
बासेन गांव में ही एक तरफ विस्थापितों के घर बने हुए थे. शिव प्रसाद बताते हैं कि खुले जंगल में, दूर-दूर तक फैले घरों में रहने वाले आदिवासी, बच्चों के बड़े होते ही उनके लिए अलग कमरा बनाकर रहने वाले आदिवासी दो कमरों के मकान में अपना जीवन नहीं काट सकते. ये पूरी तरह से आदिवासी जीवन के विपरीत है.
मीरा बताती हैं, “विस्थापितों के लिए बनाये गए घर टोकरी बराबर हैं और विस्थापन के वक़्त दिखाए गए सपने सिर्फ सपने ही रह गए. घर तो दूर हमें तो बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी मुझे स्वयं ही उठाना पड़ रहा है”.
हसदेव में खनन न करने के लिए पर्यावरण संस्थाएं भी लामबंद
हरिहरपुर में खदान आदिवासियों की दहलीज पर है. 2016 की चिलचिलाती शुष्क गर्मी में, सरगुजा जिले की साल्ही पंचायत के हरिहरपुर गांव में अपने पूरे 43 साल गुजारने वाले मोहर साय को “कंपनी” से नौकरी का प्रस्ताव मिला, जिसमें उन्हें हर महीने ₹9,000 का वेतनमान मिलता है.
मोहर साय ने बताया कि केते गांव के उजड़ जाने के अलावा गांव के लोग अब कोयला खनन कंपनियों द्वारा खनन के लिए ज़मीन हथियाने के लिए नए नए पैंतरे इस्तेमाल किये जा रहे हैं. मोहर साय के पड़ोसी और हरिहरपुर के सरपंच विजय कुमार कोर्राम बताते हैं कि केते गांव के विस्थापन और फिर विलोपन दोनों से ही बाकी आदिवासियों ने बहुत कुछ सीखा है. मोहर साय की 80 वर्षीय मां बुढ़िया बाई भारी मन से बताती हैं कि उनके साथ के लोगों ने एक बार गलती करके समूचे गांव को उजड़ते और खत्म होते देखा है, अब वो दोबारा ऐसी गलती नहीं करेंगे.
हरिहरपुर के संघर्षों को, मोहर साय की चिंताओं को और खदान की आवाज़ों के अगल बगल ही एक गांव है फतेहपुर, यहां के मुनेश्वर पोर्ते कोयला खदानों के विरोध में चल रहे आदिवासी संघर्ष का अहम् हिस्सा हैं.
वे बताते हैं, “पहली बार जब खदान खुली तो लगा की क्षेत्र में भारी विकास होगा, नौकरी मिलेगी. लेकिन जब खदान खुली, लोगों ने जमीनें दे दीं, तो उसके बदले हमें सिर्फ बरबादी मिली. हमारी संस्कृति परंपरा और कल्चर सब खत्म हो जाएगा. भाई जब हमारे घर ही नहीं बचेंगे, हमारा गांव ही नही बचेगा तो हमारी सभ्यता कैसे बचेगी ? हम तो आदिवासी ही नहीं बचेंगे. हमें विकास चाहिए लेकिन अपने अस्तित्व को नष्ट करके नहीं.”
हसदेव में कोयला उत्खनन के खिलाफ न सिर्फ ग्रामीण बल्कि केंद्र सरकार की कई एजेंसियों ने भी अपनी बात रखी है. वर्ष 2021 में Wildlife Institute of India की एक रिपोर्ट के लीक होने से यह पता चला कि अन्य टिप्पणियों के बीच एनजीटी के आदेश द्वारा पूछे गए सात सवालों में से एक का जवाब देते हुए, इसमें कहा गया है कि हसदेव अरण्य कोयला क्षेत्र और इसके आसपास के इलाके को ‘नो-गो क्षेत्र’ घोषित किया जाना चाहिए.
2011 में जब MoEFCC (Ministry of Environment, Forest and Climate Change) ने परसा ईस्ट केते बसन (PEKB) कोयला खदान को पहले चरण की मंजूरी दी, उस वक्त वन सलाहकार समिति (FAC) ने आवंटन रद्द करने की सिफारिश की थी. हालांकि, सिफ़ारिश अनसुनी कर दी गई और पीईकेबी के लिए चरण II की मंजूरी 2012 में दी गई और एक साल बाद खनन चालू हो गया.
आवंटन से हताश होकर बिलासपुर के वकील सुदीप श्रीवास्तव की ओर से एनजीटी कोर्ट की प्रधान पीठ में आवंटन के खिलाफ याचिका दायर की गई थी. इसके बाद एनजीटी ने MoEFCC को FAC से सलाह लेने का आदेश दिया. इसी आदेश के पालनानुसार WII ने अपनी रिपोर्ट बनाई, जिसमें उन्होंने हसदेव में कोयला खदान के विरुद्ध अपना मत पेश किया.
इसी रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि छत्तीसगढ़ में मानव-हाथी संघर्ष की स्थिति एक विरोधाभास है, जहां हाथियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है. लेकिन इंसानी रहवास और हाथियों के दलों के बीच संघर्ष की घटनाओं की संख्या अधिक है. हर साल 60 से अधिक मनुष्य इन संघर्षों का शिकार हो रहे हैं.
इधर अपनी लड़ाई को जारी रखते हुए हसदेव के रहवासियों ने 2 अक्टूबर 2021 को 300 किलोमीटर की पदयात्रा की, रायपुर पहुंच कर आदिवासियों ने हसदेव में कोयला खदानों के आवंटन को निरस्त करने की मांग रखी, हालांकि इस पदयात्रा का कोई खास असर नहीं हुआ.
तमाम सबूतों और दलीलों के इतर हसदेव अरण्य में फिलहाल एक खदान चालू थी, इसी खदान के दूसरे चरण में खनन के लिए हाल फिलहाल ही पेड़ों की कटाई की गई है, जिसके बाद से एक बार फिर हसदेव का मुद्दा गरमाया है. इस मुद्दे पर छत्तीसगढ़ के दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस के भी वादों और धरातल पर स्थितियों में बड़ा फर्क है.
कांग्रेस-भाजपा की कथनी और करनी में अंतर
मसलन, कांग्रेस ने जब 2018 में विधानसभा चुनाव लड़ा तो हसदेव में आदिवासी समुदाय की अनुमति के बिना एक भी खदान ना खोलने, किसी तरह का उत्खनन न होने देने का वायदा किया, लेकिन फिर सरकार बनने के बाद WII और ICFRE की रिपोर्ट्स को अनदेखा करने के साथ साथ कई स्वीकृतियां भी जारी की.
यही नहीं, चुनाव के पहले 2015 में हसदेव के मदनपुर में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने यह वादा किया था कि हसदेव में कोयला उत्खनन को रोकने में उनकी सरकार प्रतिबद्ध है. लेकिन नतीजों में ये बात निकल कर आई नहीं.
आदिवासी समुदाय के साथ मिलकर हसदेव अरण्य की लड़ाई लड़ रहे सामाजिक संगठनों के दबाव के चलते बीच-बीच में कांग्रेस सरकार अपने कदमों से पीछे भी हटती रही. विधानसभा में खनन न होने देने का संकल्प लेना हो या फिर तत्कालीन स्वास्थ मंत्री और हसदेव क्षेत्र के बड़े कांग्रेसी नेता टीएस सिंहदेव का आंदोलन का हिस्सा बनना हो… कांग्रेस सरकार दोनों पक्षों के मैनेजमेंट में लगी रही.
रायपुर में रहने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने हसदेव पर हो रही एक चर्चा के दौरान कहा था, “छत्तीसगढ़ राज्य में सरकारों के पास आमदनी के साधन कम हैं और इसके साथ ही आमदनी के बेहतरीन साधन भी हैं. जैसे कि राज्य के उत्तरी भाग में कोयला और दक्षिण भाग में लोहे की भरमार है, बीच में कई जगहों पर लाइम स्टोन से लेकर और भी कई तरह के खनिज उपलब्ध हैं. संभावित आमदनी के ये विकल्प ज्यादातर मानव और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा कर ही संभव हैं. ऐसे में सरकारों के सामने दुविधा यह है कि एक तरफ तो आमदनी करना है. दूसरी तरफ, राज्य के लोगों के अधिकारों, उनकी संस्कृतियों और अस्तित्व को भी बचाना है. इसी ऊहापोह में कांग्रेस और भाजपा दोनों अटकी हैं और दोनों ने ही लोगों और पर्यावरण को बचाने का विकल्प नहीं चुना है”.
राज्य में भाजपा सरकार की भी कमोबेश यही स्थिति रही है. भाजपा सरकार के कार्यकाल में ही पहली खदान में खनन चालू हुआ था. उसके बाद 2018 में जब तक कांग्रेस की सरकार थी तब भाजपा खनन के विरोध और आदिवासियों के साथ खड़ी थी. भाजपा सरकार ने 2023 विधानसभा चुनावों के पहले अपने मेनिफेस्टो में भी कांग्रेस सरकार पर खनन के मुद्दे पर झूठ बोलने का आरोप लगाया. लेकिन फिर भाजपा सरकार बनते ही हसदेव में वनों की कटाई एक बार फिर चालू हो गई.
सरकारों के बदलने से कोई फायदा नहीं!
‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के समन्वयक आलोक शुक्ला कहते हैं कि भाजपा सरकार के आने के बाद उन्हें इसी बात का डर था कि खनन कार्यक्रम में तेज़ी आ जाएगी. फिलहाल छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगलों के उजड़ने का मुद्दा गरमाया हुआ है लेकिन इस क्षेत्र में यानी कि कोयला उत्खनन में कमी या रोक लगने की संभावनाएं अभी दूर की बात लगती हैं.
जहां एक तरफ केते के शिव प्रसाद कहते हैं कि कोयला खदान के जमीन देना उनके गांव की सबसे बड़ी गलती रही. वहीं दूसरी ओर हरिहरपुर के मोहर साय कहते हैं कि जितना दे दिए दे दिए अब और नए खदानों के लिए ज़मीन नहीं देंगे. ऐसा ही विरोध फतेहपुर और साल्ही के गांव में देखने को मिला.
भले ही छत्तीसगढ़ सरकार आये दिन नए कोयला खदानों की स्वीकृतियो पर मुहर लगा रही हो, या राजस्थान सरकार जल्द से जल्द खनन चालू करने का दबाव बना रही हो… दोनों सरकारों से सैकड़ों कोस दूर आदिवासी अपने आदिवासीपन को बचाने के लिए लड़ रहे हैं.