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695 Movie Review: 500 साल के संघर्ष से लेकर साहस और शौर्य तक… राम जन्मभूमि की तप कथा है फिल्म ‘695’

695 मूवी रिव्यू

695 मूवी रिव्यू

695 Movie Review: “हमने किसी की जमीन नहीं ली, लेकिन ख़ुद की ज़मीन भी तो नहीं बचा पाए.हमने किसी को गुलाम नहीं बनाया, लेकिन ख़ुद को गुलाम बनने से रोक भी तो नहीं पाए. जब मंदिर तोड़ा जा रहा था तब हिंदू चुप था— किसी घटना पर मौन 2 मिनट का हो सकता है 400 सालों का नहीं…ये पावरफुल डायलॉग फ़िल्म 695 फ़िल्म के हैं. इस फ़िल्म में राम जन्मभूमि के 500 सालों के संघर्ष को दिखाया गया है.

अब जब संघर्ष सदियों का है तो फ़िल्म पर भी संघर्ष एक्सपेक्टेड है. एक ओर जहां लोग भारी संख्या में इस फ़िल्म को अपना समर्थन दे रहे हैं. तो वहीं कुछ लोग इस फ़िल्म के निगेटिव प्रोपगैंडा में भी जुटे हैं. हालांकि, इस पक्ष पर हम आगे चर्चा करेंगे. लेकिन, उसके पहले हम बात करते हैं कि फिल्म में क्या है और कैसी है.

इस फ़िल्म में बाबरी विध्वंस, सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला और मंदिर के शिलान्यास अहम पड़ाव हैं और फ़िल्म इसी के आसपास अपना ताना-बाना रचती है.  इसलिए फिल्म का नाम 695 रखा गया है. क्योंकि, 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराई गई, 9 नवंबर 2019 को कोर्ट का फ़ैसला आया और 5 अगस्त 2020 को मंदिर का शिलान्यास हुआ.

प्लॉट

फ़िल्म की कहानी मुगल बादशाह बाबर के जुल्मों सितम से शुरू होती है.जब 1528 में अयोध्या में राम मंदिर को गिराकर बाबरी मस्जिद का निर्माण किया जाता है. इसके बाद फ़िल्म 1943 के दौर में शिफ्ट कर जाती है.जब गुरु राघवदास अपने शिष्यों के साथ राम की पूजा अर्चना करते हैं. लेकिन, मुस्लिम समुदाय इसका विरोध करता है. फिर साल 1949 का ज़िक्र होता है, जब प्रभु राम की मूर्ति प्रकट होती है और उसे विवादित जगह बताकर ताला लगा दिया जाता है. इसके बाद मामला अदालत में विचाराधीन हो जाता है. फ़िल्म में 1949 से लेकर  2019 तक के घटनाक्रम को बाखूबी दिखाया गया है.

फिल्म में क्या है खास?

फ़िल्म की कहानी एक दम कॉम्पैक्ट और दर्शकों को बांधे रखने वाली है. आप मंदिर निर्माण के लिए चले 500 सालों के संघर्षों और पीड़ाओं को महज़ ढाई घंटे के दौरान महसूस करेंगे. इस दौरान फिल्म में आप राजनीति के कुत्सित दृष्टिकोण का भी गवाह बनेंगे… जिसकी एक तुष्टिकरण की नीति से पूरी सनातन संस्कृति दांव पर लग जाती है.अब हम आपको बताते हैं कि इस फ़िल्म को किसने बनाया और कौन-कौन से प्रमुख किरदार हैं.

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कलाकारों की कैसी रही कलाकारी?

फ़िल्म के डायरेक्टर योगेश भारद्वाज और रजनीश बेरी हैं. फ़िल्म दर्शकों के साथ उनके घर और समाज तक जाए इस पर काम करने में फ़िल्म सफल रही है. बेसिकली इस फ़िल्म के तीन मज़बूत डायमेंशन है- डायलॉग, कलाकारों का अभिनय और फ़िल्म का संगीत. बाक़ी फ़िल्म के अधिकांश घटनाओं से जनता कमोवेश वाक़िफ़ है. फ़िल्म में अरुण गोविल, दयाशंकर पांडेय, मुकेश तिवारी, शैलेंद्र श्रीवास्तव, अशोक समर्थ जैसे धाकड़ कलाकारों ने फ़िल्म में अलग ही तेवर पैदा कर दिए हैं. मनोज जोशी का बतौर वकील उनकी भूमिका जबरदस्त है. केके रैना लालकृष्ण आडवाणी के रोल के साथ न्याय करते हुए दिखाई देते हैं. महामंडलेश्वर की भूमिका में अखिलेंद्र मिश्रा का रोल भी सराहनीय है. अखिलेंद्र मिश्रा कई बड़ी फ़िल्मों और चंद्रकांता सीरियल में क्रूण सिंह का रोल निभा चुके हैं.

फिल्म को लेकर विवाद

अब बात करते हैं फ़िल्म के साथ विवाद क्या है और कौन से लोग इसके निगेटिव प्रोपगैंडा को हवा दे रहे हैं. दरअसल, डिजिटल का ज़माना है सो लिहाज़ा कुछ जमातें फर्जी तरीके से फ़िल्म की नेगेटिव रेटिंग में लगी है. बहरहाल, उसका कोई उतना असर नहीं है. लेकिन, आम जनता से लेकर साधु संतों तक की टोली इस फ़िल्म को देख रही है और सराह रही है.

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