The Bengal Files Movie Review: विवेक अग्निहोत्री की फाइल्स ट्राइलॉजी की तीसरी और आखिरी फिल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ इस शुक्रवार को रिलीज हुई है. इससे पहले रिलीज हुई इस ट्रिलॉजी की दोनों फिल्में ‘द ताशकंद फाइल्स’ और ‘द कश्मीर फाइल्स’ हिट रहीं, इसकी तीसरी और आखिरी फिल्म बंगाल फाइल्स आई है.मगर इस तरह की फिल्मों के साथ दिक्कत ये है कि फिल्म कैसी है ये बात कम लोग समझना चाहते हैं. लोग बस एजेंडा और प्रोपेगैंडा की ही बात करते हैं. जो समझ पाते हैं वो फिल्म को अच्छा बोलेंगे और अगर नहीं तो खराब ही बोलेंगे. चाहे फिल्म देखी हो या ना देखी हो, तो ताशकंद और कश्मीर के बाद विवेक अग्निहोत्री ने बंगाल की फाइल्स खोली है और कैसी है ये फाइल्स यानी फिल्म आइये जान लेते हैं
क्या कहती है फिल्म की कहानी?
फिल्म में दो बंगाल दिखाए गए हैं, एक अभी का और एक आजादी से पहले का. एक तरफ प्रेजेंट में में एक सीबीआई ऑफिसर शिव पंडित (दर्शन कुमार) है, जिसे पश्चिम बंगाल में एक लड़की के गायब होने पर इन्वेस्टिगेशन करने के लिए भेजा जाता है. लड़की को गायब करने के आरोप एमएलए सरदार हुसैनी (सास्वत चैटर्जी) पर हैं. वहीं लड़की को गायब होते हुए सिर्फ एक महिला ने देखा है जिसका नाम मां भारती (पल्लवी जोशी) है. दूसरी तरफ कहानी चलती है आजादी और भारत के विभाजन से पहले की. यह भारती यानी पल्लवी जोशी के जवानी के दिनों में ले जाती है, जहां उनका रोल किया है सिमरत कौर ने. भारती अपने कॉलेज के फंक्शन में गवर्नर को गोली मार देती है. इसके बाद उसके पिता जस्टिस बनर्जी (प्रियांशु चटर्जी) और काका राजेंद्र लाल चौधरी (दिव्येंदु भट्टाचार्य) उसे बेल दिलाकर महात्मा गांधी (अनुपम खेर) के आश्रम ले जाते हैं.
भारती की कहानी में आगे जाकर डायरेक्ट एक्शन डे और नोआखाली दंगों जैसी भयानक घटनाएं घटती हैं. यहां उसे दंगाईयों में अमरजीत अरोड़ा (एकलव्य सूद) बचाता है. अब दोनों कहानियां एक दूसरे से कैसे जुड़ती हैं, कैसे बंगाल में हिंदू जेनोसाइड होता है. ये आप तुरंत सिनेमाघरों में जाकर देखिए.
मिथुन और पल्लवी जोशी की दमदार एक्टिंग
फिल्म की शुरुआत दर्शन कुमार के किरदार से होती है और उन्होंने कमाल का काम किया है. एक सीबीआई अफसर जो कशमकश में फंसा है, अपने अफसरों की सुने या ईमानादारी से काम करे. पूरी फिल्म में उनका काम बढ़िया है. कुछ-एक सीन में वो बेहतर बनकर उभरते हैं. शाश्वत चटर्जी के जितने भी सीन हैं, उनका काम अच्छा है. पल्लवी जोशी ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है. पल्लवी जोशी अपनी चुप्पी से जो कमाल की एक्टिंग कर जाती हैं, वो बस थिएटर में जाकर ही आप एक्सपीरिंयस कर सकते हैं. फिल्म की जान सिमरत कौर और मिथुन चक्रवर्ती हैं. सिमरत का किरदार कई परिस्थितियों से गुजरता है और हर परिस्थिति में उन्होंने कमाल अभिनय किया है. गदर-2 जैसी फिल्म के बाद इस तरह के रोल में वो चौंका गईं.
मिथुन ने 75 साल की उम्र में एक ऐसा किरदार निभाया है जो उन्होंने अब तक कभी नहीं किया था. जली हुई जीभ के साथ जब वे बोलते हैं तब आप उन्हें समझ नहीं पाते पर उनका दर्द सुनने का मन करता है. अनुपम खेर ने गांधी की भूमिका को नए अंदाज में निभाया है. उनका यह प्रयोग कहीं-कहीं जमता है पर कुछ जगह कमजोर भी लगता है, पर लीक से हटकर किया गया यह प्रयोग अपने आप में तारीफ के काबिल है. एक नए तरह के गांधी जी आपको देखने मिलेंगे. मिथुन के बेटे नामाशी चक्रवर्ती का काम अच्छा है. एकलव्य सूद बेहतर काम कर सकते थे. वो पंजाबियों वाला जोश दिखाने के चक्कर में अच्छे सीन को भी हल्का बना देते हैं. बाकी राजेश खेरा, दिव्येंदु भट्टाचार्य, सौरव दास और प्रियांशु चटर्जी बढ़िया से अपने किरदार निभा जाते हैं.
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बेहतरीन राइटिंग और रिसर्च
विवेक अग्निहोत्री की राइटिंग बढ़िया है, उनकी रिसर्च पर तो सवाल उठाया ही नहीं जा सकता लेकिन दिक्कत ये है कि वो रिसर्च इतनी ज्यादा कर लेते हैं कि वो एक फिल्म में समा ही नहीं पाती और इसी वजह से फिल्म लंबी हो गई है. जैसे ही आप विभाजन या दंगों का दर्द महसूस करना शुरू करते हैं तो फिल्म वापस वर्तमान में आ जाती है. फिर जब आप आज की सिचुएशन समझना शुरू करते हैं, तो फिल्म वापस पुराने दौर में लौट जाती है. इससे दोनों जगहों को आप ठीक तरह से फील नहीं कर पाते. एक कनेक्ट आने में समय लगता है बाकी ओवरआल डायरेक्शन बढ़िया है कसा हुआ है.
फिल्म का म्यूजिक कनेक्ट करता है
म्यूजिक की बात करें तो म्यूजिक फिल्म का बढ़िया लगा खासकर रोहित शर्मा का संगीत ‘किचुदिन मोने मोने’ दर्दनाक और मार्मिक है, जो फिल्म का भावनात्मक असर और गहरा कर देता है. कुल मिलकर म्यूजिक में कमी नहीं लगी फिल्म के साथ कनेक्ट करके चलता है.
क्या कहती है मूवी की ओवरऑल स्टोरी?
ये एक हार्ड हिटिंग फिल्म है, इस फिल्म के कई सीन आपको चौंका देते हैं, हैरान कर देते हैं, परेशान कर देते हैं. कई सीन आप देख नहीं पाएंगे, इसलिए अगर आप कमजोर दिल के हैं तो सोच समझकर ही देखिएगा. दंगों के सीन जिस क्रूरता से दिखाए गए हैं, वो आपको सोचने पर मजबूर कर देता है कि क्या वाकई ऐसा हुआ था. आज के बंगाल के हालात भी जिस तरह से दिखाए गए हैं वो हैरान करते हैं. आजादी से पहले के दौर को अच्छे से क्रिएट किया गया है.
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इस फिल्म के साथ एक ही दिक्कत है और वो है इसकी लंबाई, ये फिल्म लगभग साढ़े तीन घंटे की है. कुछ मोनोलॉग लंबे लगते हैं लेकिन शायद इस तरह की फिल्म का असर अधूरा ना रह जाए इसलिए वैसा करना डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री ने जरूरी समझा होगा.इस फिल्म का मैसेज साफ समझ आता है। डायरेक्ट एक्शन डे वाला एक टेक में जो सीन है, वो अच्छा बन पड़ा है. पसीने को पानी बनाकर पीने वाला एक सीन, उस दौर की बेबसी और दर्द को बखूबी दर्शाता है. पुराने दौर से वर्तमान का जो कनेक्शन है वो भी बढ़िया है तो आप भी अगर रिसर्च बेस्ड फिल्मों के शौकीन हैं और इतिहास में क्या हुआ जानना चाहते हैं तो देख सकते हैं. फिल्म थोड़ी लंबी है, इसलिए संयम साथ ले जाइएगा. मेरी तरफ से इस फिल्म को 4 स्टार्स.
