Vistaar NEWS

भारतीय सिनेमा में हिंसा का बढ़ता प्रभाव: क्या हम सिर्फ एक्शन पर ही निर्भर हो गए हैं?

Animal

फिल्म एनिमल

Indian Cinema: पिछले कुछ वर्षों में भारतीय सिनेमा ने एक नई दिशा अपनाई है, जिसमें एक्शन, हिंसा और उग्र थ्रिलर का बोलबाला बढ़ा है. पहले जहां फिल्में प्रेम, परिवार, और सामाजिक मुद्दों पर आधारित होती थीं, वहीं अब यह ट्रेंड बदल चुका है. वर्तमान में बॉलीवुड और साउथ सिनेमा की कई हिट फिल्में जैसे एनिमल, किल, युध्रा, केजीएफ और विक्रम हिंसा और एक्शन को अपनी पहचान बना चुकी हैं. ये फिल्में न केवल उग्र एक्शन सीन पेश करती हैं, बल्कि उनके भीतर चरित्रों के भावनात्मक संघर्ष, गुस्से और व्यक्तिगत त्रासदियों की गहरी परतें भी दिखाती हैं. इस बदलाव का एक बड़ा कारण दर्शकों का एक्शन और हिंसा के प्रति बढ़ता आकर्षण है, लेकिन यह सवाल भी उठता है कि क्या इस प्रवृत्ति के कारण फिल्मों की भावनात्मक गहराई में कमी आई है? या फिर क्या समाज का आईना कहा जाने वाला सिनेमा अब एक दर्शको के भाव व सोच को बदल रहा है?

हिंसा और एक्शन: एक नया चेहरा

भारतीय सिनेमा में हिंसा और एक्शन की बढ़ती प्रवृत्तियाँ अब एक नए रूप में सामने आ रही हैं. पहले बॉलीवुड फिल्मों में संगीत, नृत्य, और रोमांस को मुख्य आकर्षण बनाया जाता था, लेकिन अब यह एक्शन और हिंसा के इर्द-गिर्द घूमती हैं. हाल ही रिलीज हुई फिल्म फिल्म युध्रा का उदाहरण लें, जहां सिद्धांत चतुर्वेदी द्वारा निभाए गए पात्र का गुस्सा एक दुखद घटना से उपजता है, और फिल्म में इसे हिंसक एक्शन सीन के रूप में दर्शाया गया है. इसी तरह एनिमल और किल जैसी फिल्मों में हिंसा और एक्शन को कथानक के सहारे नहीं, बल्कि पात्रों के भीतर चल रहे आंतरिक संघर्षों के रूप में प्रस्तुत किया गया है. हिंसा के जरिए इन पात्रों की भावनाओं और मानसिक स्थिति को समझाया गया है. वहीं आगामी फिल्मों में भी अब एक्शन और हिंसा का भरपूर समागम देखने को मिल रहा है, जैसे कैप्टन मिलर, बागी-४ आदि.

इन फिल्मों में हिंसा और एक्शन का बढ़ता प्रभाव यह दर्शाता है कि सिनेमा अब केवल मनोरंजन का साधन नहीं रह गया है, बल्कि दर्शकों के गहरे मानसिक और भावनात्मक कनेक्शन को भी संबोधित करता है. हालांकि, यह भी सवाल है कि क्या फिल्में केवल एक्शन पर आधारित होकर अपनी भावनात्मक गहराई खो रही हैं?

क्या एक्शन के साथ भावनाओं की कमी हो रही है?

युध्रा जैसी फिल्मों में, जहां हिंसा और एक्शन का भरपूर उपयोग किया गया है, यह सवाल उठता है कि क्या फिल्म में गहरे भावनात्मक आयाम की कमी है? सिद्धांत चतुर्वेदी का अभिनय शानदार है, लेकिन फिल्म में गहरे मानसिक और भावनात्मक क्षणों की कमी महसूस होती है. युध्रा के पात्र का गुस्सा उसके जीवन में हुई एक त्रासदी से उपजता है, लेकिन फिल्म में उस गुस्से की भावनात्मक गहराई को सही तरीके से नहीं प्रस्तुत किया गया है. इसके बजाय, फिल्म अधिकतर एक्शन और रोमांचक सीन पर निर्भर रहती है, जो अंततः दर्शकों को एक स्थायी भावनात्मक प्रभाव छोड़ने में असफल रहती है.

अगर इन फिल्मों में भावनाओं का समावेश होता, तो न केवल एक्शन बल्कि फिल्म की कहानी और पात्रों के साथ दर्शकों का गहरा संबंध बन सकता था. एनिमल और किल जैसी फिल्मों में अगर संवेदनशीलता और गहरे मानसिक संघर्षों की ओर ध्यान दिया जाता, तो ये फिल्में और अधिक प्रभावी बन सकती थीं.

दर्शकों का रुझान और हिंसा का बढ़ता प्रभाव

हाल के वर्षों में भारतीय सिनेमा ने देखा है कि दर्शक हिंसा और एक्शन से भरपूर फिल्मों को अधिक पसंद कर रहे हैं. एनिमल, बागी, किल, और विक्रम जैसी फिल्में दर्शकों के बीच खासा लोकप्रिय हो चुकी हैं. इन फिल्मों का हिंसा के प्रति आकर्षण दर्शाता है कि दर्शक अब केवल भावनाओं और सामाजिक संदेशों की बजाय तीव्र और उग्र एक्शन को प्राथमिकता देने लगे हैं. इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि समाज में बढ़ते हुए तनाव और असुरक्षा ने दर्शकों को ऐसे कंटेंट की ओर खींचा है, जो उनके भीतर के गुस्से और नफरत को बाहर निकालने का एक माध्यम बनता है. ये फिल्में न केवल दर्शकों को रोमांचित करती हैं, बल्कि उनकी असंतोष और संघर्ष को भी बड़े पर्दे पर व्यक्त करने का अवसर देती हैं. विशेष रूप से विक्रम जैसी फिल्मों में दर्शकों को अपराध और संघर्ष के उग्र रूप से जुड़ा एक अलग तरह का अनुभव मिलता है.

क्या हमें भावनाओं की ओर लौटने की जरूरत है?

अगर हम भारतीय सिनेमा की वर्तमान प्रवृत्तियों को ध्यान से देखें, तो यह सवाल उठता है कि क्या हमें हिंसा और एक्शन के बीच भावनाओं और संवेदनाओं की ओर लौटने की जरूरत नहीं है? क्या सिर्फ एक्शन और हिंसा से भरपूर फिल्में ही सफल हो सकती हैं? एक अच्छा सिनेमा वह है जो दर्शकों को केवल एक्शन से नहीं, बल्कि उसके पीछे छिपे भावनात्मक, मानसिक और सामाजिक पहलुओं से भी जोड़ता है.

युध्रा और किल जैसी फिल्में हिंसा और एक्शन को प्रमुख हिस्सा बनाती हैं, लेकिन इन फिल्मों में अगर कुछ गहरी भावनात्मक संवेदनशीलता और चरित्रों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं पर ध्यान दिया जाता, तो ये फिल्में कहीं ज्यादा दिल को छूने वाली हो सकती थीं. उदाहरण के तौर पर, किल के पात्र की आंतरिक हलचल और संघर्ष को थोड़ा और संवेदनशील तरीके से पेश किया जा सकता था, जिससे फिल्म दर्शकों के दिलों में अधिक स्थान बना सकती थी.

यह भी पढ़ें: ‘…तो मैं अपने दम पर धमकी दूंगा’- सलमान खान ने रजत दलाल को विवियन को धमकाने पर लगाई फटकार

भारतीय सिनेमा का भविष्य

भारतीय सिनेमा की वर्तमान स्थिति और आने वाले समय में, यह कहना गलत नहीं होगा कि हिंसा और एक्शन का बढ़ता प्रभाव भविष्य में भी जारी रहेगा. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि फिल्में केवल एक्शन और हिंसा पर ही आधारित होंगी. भविष्य में, अगर सिनेमा को एक संतुलन बनाए रखना है, तो उसे अपनी संवेदनशीलता और भावनाओं की ओर भी लौटने की आवश्यकता होगी. सशक्त कहानियाँ, गहरे भावनात्मक मुद्दे और संवेदनशीलता को एक्शन के साथ संतुलित करना भारतीय सिनेमा के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती हो सकती है.

इस समय जो बदलाव हम देख रहे हैं, वह दर्शकों के मानसिकता और समाज के वर्तमान तनावों को दर्शाता है. लेकिन, यह भी स्पष्ट है कि भारतीय सिनेमा में अगर एक्शन के साथ संवेदनशीलता और भावनात्मक गहराई का समावेश किया जाए, तो यह दर्शकों पर स्थायी और सकारात्मक प्रभाव डाल सकता है.

भारतीय सिनेमा में हिंसा और एक्शन का बढ़ता प्रभाव दर्शकों के रुझान को दर्शाता है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि फिल्में भावनात्मक गहराई और संवेदनशीलता खो चुकी हैं. हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि भारतीय सिनेमा अपनी कहानियों में सिर्फ एक्शन और हिंसा नहीं, बल्कि भावनाओं और संवेदनाओं को भी जगह दे, ताकि दर्शकों को न केवल मनोरंजन, बल्कि एक गहरी और स्थायी फिल्मी अनुभव मिल सके.

Exit mobile version