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EXPLAINER: पहली बार डॉलर 90 रुपये के पार, क्या भारतीय अर्थव्यवस्था के इर्द-गिर्द लग चुका है बारूद का ढेर? क्या हैं बचाव के उपाय

For the first time, the value of the dollar crossed Rs 90. What are the preventive measures?

सांकेतिक तस्वीर

Dollar Rupees Value: यदि आप थोड़ा-बहुत भी आर्थिक नीतियों या दुनिया की आर्थिक गतिविधियों से वाकिफ होंगे तो जरूर डॉलर की वैल्यू समझते होंगे. ऐसे में डॉलर के मुकाबले औंधे मुंह गिरते रुपये को देख बतौर भारतीय आपका दिल बैठना लाजमी है. वैसे ऊपर जो हेडलाइन दी गई है, ठीक वैसा ही सवाल मेरे भीतर भी कौंधा और मैं भी चिंता में डूब गया. सवाल तंग करने लगे कि क्या वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था सिर्फ एक माचिस की तीली से दूर है? चिंगारी जलते ही देश में वस्तुओं की क़ीमतों में आग लग जाएगी? लेकिन, कहा जाता है कि ज्ञान पूरा हो तो मसला हल हो जाता है.

लिहाजा, मैंने डिटेल में गोते लगाए, विशेषज्ञों से बातचीत की और फिर पाया कि भारत की बुनियाद अब 1990 वाली नहीं है. माहौल दूसरा है. तो चलिए, आपको विस्तार से बताता हूं कि बढ़ते डॉलर का प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था की सेहत पर किस कदर और कितना हावी रहने वाला है.

रुपये के मुकाबले डॉलर का बढ़ना, आर्थिक असंतुलन

गौरतलब है कि हाल की घटनाओं में भारतीय रुपया डॉलर के मुकाबले 90 के पार चला गया. यह केवल एक नंबर नहीं, बल्कि उस आर्थिक असंतुलन का संकेत है जहां देश को विदेश से सामान और सेवाएं खरीदने के लिए अधिक डॉलर खरीदने पड़ रहे हैं. जब डॉलर की मांग बढ़ती है और आपूर्ति वही रहती या घटती है, तो डॉलर महंगा होता है और घरेलू मुद्रा कमजोर दिखती है. यह बुनियादी मैकेनिज्म है.

रॉयटर्स और अन्य रिपोर्टों के मुताबिक़, हाल के हफ्तों में यही परिदृश्य सामने आया है. लेकिन, डॉलर के मुकाबले रुपये का कमजोर होने का मतलब ये कतई नहीं है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कमजोर है. दरअसल, अमेरिका से व्यापार क्रम घटने से काफ़ी हद तक देश में डॉलर की कमी हो चुकी है. ऐसे में दूसरे देशों से सामान खरीदने के लिए हम डॉलर की खरीद के लिए मजबूर हैं. ऐसे में जब डॉलर की डिमांड बढ़ रही है, तो ऑटोमेटिक उसका भाव भी बढ़ रहा है. आइए स्टेप बाई स्टेप समझते हैं: भारत कहा से और किन कारणों से डॉलर खरीद रहा है और किन बड़े-कारकों ने रुपये को दबाया है.

  1. आयात (ख़ासकर तेल और कुछ कैपिटल गुड्स): निरंतर डॉलर की मांग आर्थिक मामलों के जानकार और आर्थिक जगत के जाने-माने पत्रकार अभिषेक पराशर बताते हैं कि भारत अपनी ऊर्जा जरूरतों और कई औद्योगिक इनपुट के लिए विदेशी मुद्रा पर निर्भर है. कच्चे तेल, पेट्रोलियम-डीरेवेटिव्स, कुछ ड्रग इंटरमीडिएट्स, सेमीकंडक्टर और बड़ी मशीनरी डॉलर में खरीदी जाती है. जब इन वस्तुओं की कीमतें बढ़ती हैं, तो भारत को उन लेन-देनों के लिए अधिक डॉलर खरीदने पड़ते हैं. यही सीधे तौर पर डॉलर की मांग बढ़ाता है और रुपये पर दबाव डालता है. हाल के आंकड़ों और रिपोर्टों से स्पष्ट है कि रिकॉर्ड व्यापार घाटा और इंपोर्ट बिल ने हाल ही में रुपये पर दबाव बढ़ाया है.

2. निर्यातक डॉलर नहीं बेच रहे; सप्लाई साइड का असर: रुपए को बचाये रखने में एक अहम बात यह है कि निर्यातक जो डॉलर देश में लाते हैं, वे उसे विनिमय बाजार में बेचते हैं. इससे रुपये के लिए आपूर्ति बनती है. मगर अनिश्चितता, कर/टैरिफ संबंधी चिंताएं या भविष्य की तरह-कमाई की आशंका होने पर कई निर्यातक डॉलर को होल्ड कर लेते हैं. इससे बाजार में डॉलर की उपलब्धता कम हो जाती है और मांग-आपूर्ति असंतुलन रुपये को कमजोर करता है. अभिषेक पराशर बताते हैं कि हाल के दिनों में रॉयटर्स और मिंट ने भी अपनी रिपोर्ट्स में इस पैटर्न का जिक्र कर चुके हैं. हालांकि, ऐसा यह पहली बार नहीं बल्कि वैश्विक बाज़ार में यह क्रम चलता रहता है.

3. पूंजी का आउट फ्लो: शॉर्ट-टर्म डॉलर की मांग बढ़ाता है: विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक (FPIs/FIIs) जब भारतीय शेयरों और बॉण्ड्स से पैसा निकालते हैं, तो उन्हें अपने रुपये को डॉलर में बदलना पड़ता है और वह मांग डॉलर को और बढ़ा देता है. हाल में बड़े पैमाने पर FII आउटफ्लो ने रुपये पर दबाव डाला है. भारत के लिहाज से यह अच्छे संकेत तो बिल्कुल भी नहीं कहे जा सकते. तमाम आर्थिक जर्नल्स में छपी रिपोर्ट्स बताती हैं कि महीनों में अरबों डॉलर बाहर गए हैं. यह एक त्वरित और तीव्र असर डालता है क्योंकि ये फंड बड़े पैमाने पर आते और जाते हैं.

4. वैश्विक डॉलर मजबूती और यूएस-फेड का असर: डॉलर की वैश्विक मजबूती का अर्थ है कि अन्य मुद्राएं सामान्यतः डॉलर के मुकाबले कमजोर होंगी. अमेरिकी फेडरल रिजर्व की नीतियां, आर्थिक मजबूती और वैश्विक रिफ्लेक्शन इस मजबूती को बढ़ाते हैं. जब अमेरिका में रेट्स ऊंचे होते हैं तो डॉलर-सम्पत्ति आकर्षक बनती है. निवेशक वहां पैसा लगाते हैं और इमर्जिंग मार्केट से पैसा बाहर आता है. ये बहिर्वाह भी रुपये को दबाता है. कई विशेषज्ञ रिपोर्टों ने कहा है कि यूएस-रिलेटेड ड्राइविंग फोर्सेस ने हालिया कमजोरी में योगदान दिया है.

5. व्यापारिक वाणिज्यिक कारण-भारत-यूएस ट्रेड तनाव और अनिश्चितता: हालिया व्यापार वार्ता या टैरिफ-संबंधी अनिश्चितताएं भी निवेशकों और निर्यातकों के व्यवहार को बदल देती हैं. उदाहरण के लिए, अगर किसी बड़े व्यापार समझौते के आस-पास तनाव है, तो विदेशी निवेशक जोखिम कम करके पैसा निकालते हैं. जिसका असर मुद्रा पर पड़ता है. ट्रेड में अनिश्चितता के चलते भी रुपये पर दबाव हाल के महीने में बढ़ा है और यह सब टैरिफ वॉर के चलते काफ़ी हद तक हुआ है.

6. आयातकों का हेजिंग और आगे की खरीद की सुरक्षा: अगर आयातक भविष्य में और भी रुपये की गिरावट की आशंका रखते हैं, वे आगे के लिए डॉलर खरीद कर ‘hedge’ कर लेते हैं, ताकि आने वाले महंगे डॉलर से बचा जा सके. अंततः ये खरीदें बाजार में अतिरिक्त डॉलर-डिमांड जोड़ देती हैं और तात्कालिक मूल्य दबाव बनाती हैं।

7. RBI की भूमिका: ‘शॉक-एब्ज़ॉर्बर’ बनाम सक्रिय बचाव: RBI के पास विदेशी मुद्रा भंडार हैं और वह बाजार में हस्तक्षेप कर सकता है. मगर इंटरवेंशन सीमित होने पर या जब वह ‘धीमी’ रक्षा करती है, तब रुपये पर गिरावट की गति तेज हो सकती है. अभिषेक बताते हैं कि रिपोर्ट्स बताती हैं कि RBI ने कुछ इंटरवेंशन किए हैं लेकिन अधिकतर रणनीति उतनी आक्रामक नहीं रहीं, जिससे रुपये की गिरावट क्रमिक रूप से हुई. RBI अक्सर अस्थिरता रोकने पर ज़ोर देता है न कि हर छोटे-मोटे गिराव को रोकने पर.

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क्या उम्मीद रखें?

कहते हैं उम्मीद ही इंसान की सबसे बड़े ताकत है. उम्मीद ही इंसान को अदने से सर्वश्रेष्ठ योद्धा बना देती है. आर्थिक जगत में पैरो को टिकाया भारत भी उम्मीद और आत्मविश्वास के साथ इस झंझावातों को झेल रहा है. फिलहाल, कुछ ऐसे सेक्टर ऐसे हैं, जो लगातार डेलीकेट बने हुए हैं. ऐसे में अगर तेल महंगा या आयात बढ़ता रहा, या FII का बाहर जाना जारी रहा, तो रुपये पर और दबाव आ सकता है. इसके अलावा घरेलू बाजार में महंगाई, पेट्रोल-डीजल कीमतें और उपभोक्ता वस्तुओं की लागत बढ़ने का जोखिम है. इससे छात्रों/यात्रियों के लिए विदेश खर्च महंगा होगा. जानकारों का मानना है कि फ़िलहाल के लिए RBI और सरकार को संतुलित हस्तक्षेप, आयात-विनिर्माण संतुलन और विदेशी पूंजी प्रवाह बहाल करने पर काम करना होगा, तभी मुद्रा स्थिर रहेगी.

भारत “बारूद के ढेर” पर बैठ गया है?

इस सवाल का अब एक ही शब्द में जवाब है नहीं. बिल्कुल नहीं, आपको ज्यादा ख़ौफजदा रहने की दरकार नहीं है. लेकिन, खतरे को भांपते हुए तैयारियां भी पुख़्ता रखनी होंगी, जैसा कि ऊपर आरबीआई के हवाले से सुझाव दिए गए हैं क्योंकि भारत की आर्थिक संरचना 1991 वाले दौर जैसी कमजोर नहीं है. आज भारत,

  1. खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है.
  2. सेवाओं के निर्यात में दुनिया के टॉप देशों में है.
  3. विदेशी मुद्रा भंडार दुनिया में शीर्ष 5 में है
  4. बैंकिंग सिस्टम पहले से कहीं ज़्यादा कैपिटलाइज़्ड है.

सरकार की फाइनेंशियल पोज़िशन 2013 वाले दौर की तुलना में मजबूत है, इसलिए डॉलर बढ़ने से कीमतों में कुछ समय के लिए दबाव जरूर आएगा. लेकिन यह “ताश का घर गिरने वाली” स्थिति नहीं है.

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