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इस्लामी सपने और शैतानी तिकड़ी…जन्नत सा नजर आने वाला कश्मीर कैसे बना साजिशों का अड्डा?

Kashmir Terrorism

डल झील

Kashmir Terrorism: कभी शम्मी कपूर की फिल्मों में जन्नत सा नजर आने वाला कश्मीर आज भी खूबसूरत है, लेकिन यहां की मिट्टी में बहा खून उसकी मुस्कुराहट को फीका कर गया है. 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर उसी पुराने ज़ख्म को हरा कर दिया. इस बार निशाना बने थे सैलानी, वो लोग जो कश्मीर को दुनिया की जन्नत मानकर वहां पहुंचे थे. यह हमला न सिर्फ क्रूर था, बल्कि इसने आतंकियों की रणनीति में बदलाव का भी संकेत दिया. अब सवाल उठता है कि आखिर कश्मीर इस मोड़ पर कैसे पहुंचा?

ऐसे रोपा गया आतंकवाद का बीज

कश्मीर में उग्रवाद और आतंक की शुरुआत कोई अचानक नहीं हुई. इसके पीछे सालों पुरानी साजिशें, राजनैतिक चालें और धार्मिक कट्टरता का जहर छिपा है. 1947 में भारत के बंटवारे के बाद से ही पाकिस्तान की नजर कश्मीर पर थी. सबसे पहले उसने ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ के तहत कबायली लड़ाकों को भेजा, जो कश्मीर पर हमला कर सके. इस प्लान के पीछे ब्रिगेडियर अकबर खान था, जिसने खुद को ‘जनरल तारिक’ बताया था. ये साफ था कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करने को किसी धार्मिक मिशन की तरह पेश करना चाहता था.

मक़बूल भट्ट की एंट्री

1966 में सोपोर में CID इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या हुई. इस हत्या के पीछे था मकबूल भट्ट. पाकिस्तान में बैठा एक उग्रवादी नेता, जो ‘नेशनल लिबरेशन फ्रंट’ (NLF) से जुड़ा था. उसे पकड़ा गया और 1968 में जज नीलकंठ गंजू ने उसे फांसी की सजा सुनाई.

लेकिन 1968 में ही वह श्रीनगर जेल से सुरंग बनाकर भाग निकला और पाकिस्तान पहुंच गया. वहां उसका नायक की तरह स्वागत हुआ. अब उसने अमानुल्ला खान के साथ मिलकर कश्मीर में आतंकवाद की पहली व्यवस्थित लहर शुरू की.

ऑपरेशन जिब्राल्टर

1965 में पाकिस्तान ने एक और कोशिश की — ऑपरेशन जिब्राल्टर. इसमें सेना के जवानों को मुजाहिदीन बनाकर कश्मीर भेजा गया. सोचा गया कि लोग उनका साथ देंगे, बगावत करेंगे, और पाकिस्तान को मौका मिलेगा दखल देने का. लेकिन हुआ उल्टा. कश्मीरी लोगों ने खुद ही इन घुसपैठियों की खबर भारतीय सेना को दी, और ये प्लान पूरी तरह फेल हो गया.

70 के दशक की शांति

70 के दशक में कश्मीर में दिखने वाली शांति सिर्फ ऊपर से थी. फिल्मों में डल झील, शिकारा और चिनार के पेड़ों के बीच प्यार दिखता रहा. लेकिन अंदर ही अंदर उबाल बढ़ रहा था. 1976 में मकबूल भट्ट ने फिर से एक बैंक डकैती की, जिसमें कैशियर की हत्या हुई. उसे दोबारा पकड़ा गया और तिहाड़ जेल भेज दिया गया. फांसी की सजा बरकरार थी, लेकिन सरकार उसे टालती रही .

बर्मिंघम की वारदात

3 फरवरी 1984 को बर्मिंघम (ब्रिटेन) में भारतीय राजनयिक रवींद्र म्हात्रे का अपहरण हो गया. ये काम कश्मीर लिबरेशन आर्मी (KLA) ने किया था, जिसने मकबूल भट्ट की रिहाई की मांग की. लेकिन जब भारत ने झुकने से इनकार किया, तो म्हात्रे की हत्या कर दी गई. इसके बाद भारत सरकार ने मकबूल भट्ट को 11 फरवरी 1984 को फांसी पर चढ़ा दिया.

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80 के दशक में उबल पड़ा कश्मीर

1983 में श्रीनगर में हुआ क्रिकेट मैच भी साजिश का हिस्सा बन गया. अलगाववादियों ने मैच की पिच खोद दी, और खिलाड़ियों पर कचरा फेंका. ये इशारा था कि अब कश्मीर में सिर्फ राजनीतिक लड़ाई नहीं, बल्कि धार्मिक पहचान की लड़ाई शुरू हो चुकी थी. जनरल जिया-उल-हक के आने के बाद पाकिस्तान ने खुलकर घाटी में आतंक फैलाना शुरू किया. पैसा, हथियार और जिहादी भेजे जाने लगे. खाड़ी देशों से भी फंडिंग आई. यही वो दौर था जब जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठन घाटी में इस्लामी शासन की बात करने लगे.

पंडितों का पलायन

80 के दशक के अंत तक हालात इतने बिगड़ चुके थे कि कश्मीरी पंडितों को अपने ही घर से पलायन करना पड़ा. हजारों परिवार रातों-रात सबकुछ छोड़कर जम्मू, दिल्ली और देश के बाकी हिस्सों में शरण लेने को मजबूर हुए.

कश्मीर में आतंकवाद कोई अचानक आई मुसीबत नहीं थी. यह धीरे-धीरे, योजनाबद्ध तरीके से फैला गया जहर था, जिसमें पाकिस्तान की सेना, कट्टरपंथी संगठन, और अंतरराष्ट्रीय साजिशें सब शामिल थे. आज जब हम कश्मीर के खूबसूरत पहाड़ों की तस्वीर देखते हैं, तो उसके पीछे छिपा दर्द और राजनीति का खेल भी समझना जरूरी है.

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