Iran Israel Conflict: मध्य पूर्व की गरमागरम राजनीति में इन दिनों ईरान और इजरायल के बीच तनाव अपने चरम पर है. कभी अच्छे दोस्त रहे ये दोनों देश आज एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन चुके हैं, और इस दुश्मनी की सबसे बड़ी वजह है परमाणु हथियार बनाने की होड़. लेकिन सवाल ये है कि आखिर परमाणु बम को लेकर इतनी खींचतान क्यों है? इनकी दोस्ती दुश्मनी में कैसे बदली? और इस पूरे मामले में अमेरिका का क्या रोल है, जो हर जगह अपनी टांग अड़ा देता है? आइए, सबकुछ विस्तार से जानते हैं.
इतना खतरनाक फिर भी क्यों सबको चाहिए परमाणु बम?
सोचिए, एक ऐसा बम जो पलक झपकते ही एक पूरे शहर को तबाह कर दे. परमाणु बम यही है. इसकी ताकत इतनी जबरदस्त है कि जो भी देश इसे बना लेता है, वह रातों-रात दुनिया के शक्तिशाली देशों में गिना जाने लगता है.
अगर किसी देश के पास परमाणु बम हो, तो दूसरा देश उस पर हमला करने से पहले हज़ार बार सोचेगा. उसे पता है कि हमला किया तो सामने वाला भी परमाणु बम से जवाब दे सकता है. इसी डर को ‘डिटेरेंस’ कहते हैं. इतना ही नहीं परमाणु बम रखने वाला देश अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी धाक जमाता है. उसकी बात ज्यादा सुनी जाती है. कई देशों का मानना है कि परमाणु बम ही उनकी सबसे बड़ी ढाल है, खासकर ऐसे इलाकों में जहां हमेशा लड़ाई-झगड़े का माहौल रहता है.
ईरान कहता है कि उसका परमाणु कार्यक्रम सिर्फ बिजली बनाने और दवाइयां बनाने जैसे शांतिपूर्ण कामों के लिए है. लेकिन इजरायल और पश्चिमी देशों को शक है कि ईरान चोरी-छिपे परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है, जो उनके लिए बड़ा खतरा है. इजरायल खुद भी एक परमाणु ताकत माना जाता है, हालांकि उसने कभी खुलकर ये बात नहीं मानी है.
दोस्ती से दुश्मनी का सफ़र
आज भले ही ईरान और इजरायल एक-दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते, लेकिन हमेशा ऐसा नहीं था. करीब 1950 से लेकर 1979 तक, जब ईरान में राजा का राज था, दोनों देशों के बीच काफी अच्छे रिश्ते थे. इजरायल को ईरान से तेल मिलता था और ईरान को इजरायल से खेती और सुरक्षा से जुड़ी मदद. वे व्यापार भी करते थे और एक-दूसरे के दोस्त थे.
ईरानी क्रांति ने सब बदला
साल 1979 में ईरान में एक बड़ी क्रांति हुई. राजा का शासन खत्म हो गया और रुहोल्ला खोमैनी के नेतृत्व में एक इस्लामिक सरकार आई. इस नई सरकार ने इजरायल को अपना सबसे बड़ा दुश्मन घोषित कर दिया. उन्होंने कहा कि इजरायल ने जबरदस्ती फिलिस्तीनी ज़मीन पर कब्ज़ा किया है, और वे फिलिस्तीनियों का समर्थन करेंगे.
ईरान ने फिलिस्तीनी संगठनों जैसे हमास और हिजबुल्लाह का साथ देना शुरू कर दिया, जो इजरायल के खिलाफ लड़ते हैं. इस वजह से दोनों देशों के बीच दुश्मनी बढ़ती चली गई.
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परमाणु कार्यक्रम और ताकत की होड़
जब ईरान ने अपना परमाणु कार्यक्रम शुरू किया, तो इजरायल की चिंताएं और बढ़ गईं. इजरायल को डर है कि परमाणु बम से लैस ईरान उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा. दोनों ही देश मिडिल ईस्ट में अपनी धाक जमाना चाहते हैं, जिससे तनाव और बढ़ गया है.
हर जगह क्यों है अमेरिका की दखलअंदाजी?
अमेरिका की विदेश नीति हमेशा से मिडिल ईस्ट में काफी अहम रही है, और ईरान-इजरायल विवाद में भी उसकी गहरी भूमिका है. अमेरिका, इजरायल का सबसे पक्का और भरोसेमंद साथी है. वह इजरायल को अरबों डॉलर की सैन्य मदद और कूटनीतिक समर्थन देता है. अमेरिका के लिए इजरायल की सुरक्षा बहुत मायने रखती है.
अमेरिका लंबे समय से ईरान के परमाणु कार्यक्रम और उसकी गतिविधियों पर पाबंदियां लगा रहा है. वह ईरान को परमाणु बम बनाने से रोकना चाहता है, क्योंकि उसे डर है कि इससे पूरे इलाके में अस्थिरता फैल जाएगी और उसके सहयोगियों को खतरा होगा.
मिडिल ईस्ट दुनिया के तेल का एक बड़ा स्रोत है. अमेरिका चाहता है कि तेल की आपूर्ति बिना रुकावट चलती रहे. साथ ही, वह इस क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत रखना चाहता है, खासकर जब चीन और रूस भी यहां अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
कई लोग सोचते हैं कि अमेरिका हर जगह अपनी नाक क्यों घुसाता है. लेकिन अमेरिका इसे अपनी वैश्विक जिम्मेदारी मानता है. उसका कहना है कि अगर वह इन क्षेत्रों में सक्रिय नहीं रहेगा, तो वहां गड़बड़ी बढ़ेगी, जिसका असर अंततः उसे भी झेलना पड़ेगा.
ईरान और इजरायल के बीच का तनाव एक बहुत ही उलझा हुआ मामला है. इसमें सिर्फ परमाणु बम की बात नहीं है, बल्कि इतिहास, धर्म, राजनीति और इलाके में अपनी ताकत बढ़ाने की दौड़ भी शामिल है. अमेरिका भी इसमें अपनी चालें चल रहा है.
