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‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ पर लॉ कमीशन की मुहर, लेकिन सवालों की आंच अभी बरकरार

One Nation One Election

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One Nation One Election: संसद की संयुक्त समिति (JPC) की 4 दिसंबर को होने वाली अहम बैठक से ठीक पहले 23वीं विधि आयोग (Law Commission of India) ने अपना मसविदा मत स्पष्ट कर दिया है. लॉ कमिशन के मुताबिक ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ भारत के संविधान की बुनियादी संरचना (Basic Structure) के खिलाफ नहीं है. अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से छपी अपनी खबर में पुष्टि करते हुए बताया है कि लॉ कमिशन इस बात को लेकर आश्वस्थ है कि देश भर में एक साथ चुनाव कराने से राज्यों के अधिकार का हनन कतई नहीं होगा. क्योंकि, मसला लोगों के व्यक्तिगत वोटिंग के अधिकार का है और वह किसी भी सूरत में केंद्र की इस पहल से प्रभावित नहीं होता है. ऐसे में आयोग का यह रुख केंद्र सरकार के उस दावे को बल देता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव एकसाथ कराने का प्रस्ताव किसी भी तरह से संविधान की आत्मा से टकराव मोल नहीं लेता.

लेकिन, मसला राजनीतिक है. लिहाज़ा, लॉ कमिशनिंग की इस राय के साथ ही एक नई राजनीतिक बहस तेज हो गई है, कि क्या यह तकनीकी सहमति लोकतंत्र और संघीय ढांचे को लेकर पैदा हुई गहरी चिंताओं को शांत कर पाएगी. इसके पहले कि हम इस मुद्दे पर हम कोई राय बनाए, चलिए लॉ कमिशनिंग की मसविदा का थोड़ा विस्तार से ज़िक्र कर लेते हैं. ताकि, बात को सही ढंग से समझा जा सके.

लॉ कमीशन का ठोस दावा; बुनियादी संरचना सुरक्षित

इंडियन एक्सप्रेस की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट के मुताबिक, आयोग ने माना है कि प्रस्तावित कानून न तो मतदान के अधिकार (right to vote) को प्रभावित करता है और न ही उन संवैधानिक प्रावधानों को छूता है जिनमें बदलाव के लिए राज्यों की सहमति (ratification) आवश्यक होती है. लॉ कमीशन का तर्क है कि बिल का उद्देश्य सिर्फ चुनावों की समय-सारिणी का तालमेल बैठाना है, न कि संविधान के किसी मूल स्तंभ— लोकतंत्र, संघवाद, शक्तियों के विभाजन या न्यायपालिका की स्वतन्त्रता को बदलना. इसलिए यह पहल तकनीकी लिहाज़ से संविधान-सम्मत मानी जा सकती है.

वैसे सरकार के लिए आयोग का यह मत एक बड़ा सहारा है, क्योंकि यह बिल उसी तर्क पर टिका है कि बार-बार होने वाले चुनाव, प्रशासनिक संसाधनों पर बेमतलब का बेतहाशा बोल डालते हैं. नीति-निर्माण को बाधित करते हैं और पैसे बोझ बढ़ाते हैं.

शंकाएँ कम नहीं, दांव-पेंच कई स्तर पर क़ायम

लॉ कमिशन की राय के बावजूद, विपक्षी दलों, संविधान विशेषज्ञों और पूर्व न्यायाधीशों की शंकाएं कम नहीं हुई हैं. उनका तर्क है कि भारतीय लोकतंत्र केवल कानूनी व्याख्या पर नहीं, बल्कि संघीय सहमति और राज्यों की स्वायत्तता पर टिका है.

आलोचक पूछ रहे हैं कि, जब किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल अचानक ख़त्म कर लोकसभा के साथ मिलाया जाएगा, तो क्या यह तत्कालीन जनादेश की अवहेलना नहीं होगी? क्या इससे राज्य सरकारें केंद्र की पोलिटकल टाइम-लाइन की बंधुआ मज़दूर नहीं बन जाएंगी?

इसी बिंदु पर पूर्व न्यायाधीशों ने सबसे ज्यादा चिंता जताई है. विशेषकर उस प्रावधान को लेकर जिसमें चुनाव आयोग को चुनाव स्थगित या पुनर्निर्धारित करने जैसी अतिरिक्त शक्ति देने की बात शामिल है. वे मानते हैं कि बिना स्पष्ट मानदंडों के ऐसी शक्तियाँ लोकतांत्रिक संरचना को अंदर से प्रभावित कर सकती हैं.

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JPC की 4 दिसंबर की सुनवाई

अब 4 दिसंबर को JPC के सामने लॉ कमीशन और चुनाव आयोग दोनों को अपने-अपने पक्ष रखने हैं. लॉ कमीशन अपनी यह दलील दोहराएगा कि ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ सिर्फ एक प्रक्रियात्मक सुधार है, न कि संवैधानिक ढांचे में कोई बुनियादी बदलाव. वहीं विपक्ष यह साबित करने की कोशिश करेगा कि यह कानून बुनियादी संरचना को भले सीधे न छूता हो, लेकिन संविधान की आत्मा—संघीयता और जनादेश की स्वतंत्रता को कमजोर कर सकता है.

सहमति का रास्ता अभी लंबा

लॉ कमीशन की इस रिपोर्ट को फ़िलहाल के लिए सरकार की बड़ी जीत कहा जा सकता है, लेकिन यह लड़ाई अब भी अधूरी है. तकनीकी रूप से बिल बुनियादी संरचना के दायरे से सुरक्षित माना जा सकता है, पर राजनीतिक रूप से यह बहस अभी जारी है कि क्या एक साथ चुनाव कराने का विचार भारत जैसे विविध और बहुस्तरीय लोकतंत्र पर फिट बैठता है या नहीं.

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