LN Mishra Murder Case: 2 जनवरी 1975, बिहार का समस्तीपुर रेलवे स्टेशन. तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा समस्तीपुर से मुजफ्फरपुर तक नई ब्रॉड-गेज रेल लाइन का उद्घाटन करने पहुंचे थे. मंच पर उनका भाषण खत्म हुआ ही था कि अचानक एक जोरदार धमाका हुआ. भीड़ में अफरा-तफरी मच गई. मंच की ओर फेंके गए ग्रेनेड ने न सिर्फ मिश्रा को निशाना बनाया, बल्कि एमएलसी सूर्य नारायण झा और रेलवे क्लर्क राम किशोर प्रसाद की भी जान ले ली. अगले दिन 3 जनवरी को ललित नारायण मिश्रा ने दानापुर के एक अस्पताल में आखिरी सांस ली. यह हत्याकांड न सिर्फ बिहार, बल्कि पूरे देश के लिए एक बड़ा झटका था. अब 50 साल बाद, इस मामले में फिर से जांच की मांग उठ रही है. आखिर क्या है इस हत्याकांड की पूरी कहानी, और क्यों आज तक नहीं पकड़ा गया कातिल?
कौन थे ललित नारायण मिश्रा?
ललित नारायण मिश्रा को प्यार से लोग ‘एलएन मिश्रा’ बुलाते थे. ललित उस दौर के बिहार के सबसे कद्दावर नेताओं में से एक थे. इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में रेल मंत्री के तौर पर उनकी गिनती उनके सबसे भरोसेमंद मंत्रियों में होती थी. मिश्रा का राजनीतिक सफर जवाहरलाल नेहरू के समय से शुरू हुआ था. तीन बार लोकसभा सांसद, दो बार राज्यसभा सदस्य और बेरोजगारी, गृह, वित्त जैसे कई मंत्रालयों में जिम्मेदारी संभाल चुके मिश्रा बिहार में कांग्रेस का चेहरा थे. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और उनके छोटे भाई जगन्नाथ मिश्रा भी उनके राजनीतिक प्रभाव का हिस्सा थे. मिश्रा की लोकप्रियता ऐसी थी कि उनकी हत्या के बाद जनता में भारी गुस्सा उमड़ा, और कांग्रेस को जगन्नाथ मिश्रा को सीएम बनाना पड़ा ताकि स्थिति संभाली जा सके.
हत्याकांड से बिहार में सनसनी
2 जनवरी 1975 को समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर उद्घाटन समारोह चल रहा था. मिश्रा ने अपना भाषण खत्म किया और जैसे ही मंच से उतरने लगे, तभी एक ग्रेनेड हमला हुआ. धमाके की गूंज इतनी तेज थी कि पूरे इलाके में सनसनी फैल गई. मिश्रा को गंभीर हालत में दानापुर के अस्पताल ले जाया गया, लेकिन अगले दिन उनकी मौत हो गई. इस हमले में दो और लोग मारे गए. यह घटना सिर्फ एक हत्या नहीं थी, बल्कि उस दौर की सियासत को हिलाने वाला एक बड़ा हादसा थी. सवाल यह था कि आखिर मिश्रा को निशाना क्यों बनाया गया? क्या यह सिर्फ एक आतंकी हमला था, या इसके पीछे कोई गहरी साजिश थी?
जांच का पहला दौर
हत्याकांड के तुरंत बाद स्थानीय रेलवे पुलिस ने केस दर्ज किया. 10 जनवरी 1975 को मामला सीबीआई को सौंप दिया गया. सीबीआई ने जांच शुरू की और जल्द ही चार लोगों, अरुण कुमार ठाकुर, अरुण कुमार मिश्रा, शिवलाल शर्मा और उमाकांत झा को गिरफ्तार किया. जांच का रुख आनंद मार्ग नामक एक धार्मिक-सामाजिक संगठन की ओर मुड़ा, जिस पर हत्या का इल्जाम लगाया गया. सीबीआई ने दावा किया कि आनंद मार्ग के कुछ सदस्यों ने इस हमले को अंजाम दिया. नतीजतन, आनंद मार्ग पर दो साल का प्रतिबंध लगा दिया गया. लेकिन क्या यह सचमुच इतना सीधा-सादा मामला था? कई लोगों को इस जांच पर शक था.
खुलने लगीं साजिश की परतें
मिश्रा के पोते और सुप्रीम कोर्ट के वकील वैभव मिश्रा आज भी मानते हैं कि इस हत्याकांड में आनंद मार्ग का कोई हाथ नहीं था. उनके मुताबिक, सीबीआई की जांच शुरू से ही गड़बड़ थी. वैभव का कहना है कि 1975 में हुई शुरुआती गिरफ्तारियों के बाद सीबीआई ने कुछ और आनंद मार्गियों को पकड़ा, लेकिन बाद में दो मुख्य आरोपियों के खिलाफ हत्या के आरोप हटा लिए गए. 1978 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने इस मामले की अलग से जांच के आदेश दिए. बिहार पुलिस के डीआईजी शशि भूषण सहाय और रिटायर्ड जस्टिस वीएम तारकुंडे ने अपनी-अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया कि इस हत्याकांड के पीछे एक गहरी साजिश थी, जिसे पूरी तरह उजागर नहीं किया गया.
वर्षों बाद, 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट को इस मामले में सुनवाई तेज करने का आदेश दिया. 2014 में चार आनंद मार्गियों, संतोषानंद अवधूत, सुदेवानंद अवधूत, रंजन द्विवेदी और गोपालजी को उम्रकैद की सजा सुनाई गई. लेकिन यह सजा भी सवालों के घेरे में रही, क्योंकि दोषियों की अपील दिल्ली हाई कोर्ट में आज भी लंबित है. वैभव मिश्रा ने 2021 में दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर कर फिर से जांच की मांग की, लेकिन सीबीआई ने इसे खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि अपील लंबित होने के कारण नई जांच संभव नहीं है.
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50 साल बाद फिर क्यों उठा सवाल?
बीजेपी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने पीएम नरेंद्र मोदी के बिहार दौरे के दौरान इस हत्याकांड की जांच के लिए विशेष जांच दल (SIT) गठन की मांग उठाई. चौबे का तर्क था कि अगर 1984 के सिख दंगों की जांच इतने साल बाद फिर से हो सकती है, तो मिश्रा के मामले में क्यों नहीं? उन्होंने कहा, “एलएन मिश्रा बिहार के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक थे. उनकी हत्या ने पूरे राज्य को हिलाकर रख दिया था. जनता का गुस्सा इतना था कि कांग्रेस को उनके भाई को सीएम बनाना पड़ा.”
चौबे की मांग ने एक बार फिर इस पुराने मामले को सुर्खियों में ला दिया. कई लोग मानते हैं कि इस हत्याकांड के पीछे सिर्फ आनंद मार्ग नहीं, बल्कि उस समय की सियासी उथल-पुथल और बड़े हितों का खेल था. कुछ का कहना है कि मिश्रा की बढ़ती लोकप्रियता और इंदिरा गांधी के करीबी होने की वजह से उन्हें निशाना बनाया गया.
50 साल बाद भी कई सवाल अनुत्तरित हैं. आखिर मिश्रा को किसने मारा? क्या आनंद मार्ग सिर्फ एक बलि का बकरा था? सीबीआई की जांच में क्या कमियां थीं? क्या कोई बड़ी साजिश थी, जिसे दबा दिया गया? वैभव मिश्रा और अश्विनी चौबे जैसे लोग चाहते हैं कि एक नई जांच इन सवालों के जवाब दे. लेकिन हाई कोर्ट में लंबित अपील और समय के साथ धुंधलाते सबूत इस रास्ते को मुश्किल बना रहे हैं.
एलएन मिश्रा हत्याकांड भारतीय राजनीति के उन अनसुलझे रहस्यों में से एक है, जो बार-बार सवाल उठाता है. क्या नई जांच से सच सामने आएगा, या यह मामला हमेशा के लिए एक अनसुलझी पहेली बना रहेगा?
