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189 जानें, 19 साल का इंतज़ार और 11 आरोपी बरी…क्या अब भी आज़ाद है ‘मुंबई सीरियल ब्लास्ट’ का असली गुनहगार?

Mumbai Train Blasts

धमाके के बाद की तस्वीर

Mumbai Train Blasts: कल्पना कीजिए, आप मुंबई की भागदौड़ भरी लोकल ट्रेन में हैं, अपने काम से घर लौट रहे हैं. अचानक, एक धमाका… फिर दूसरा और देखते ही देखते, 11 मिनट के भीतर सात धमाके! 11 जुलाई 2006 का वो दिन मुंबई कभी नहीं भूल सकता. उन बम धमाकों ने 189 बेगुनाह लोगों की जान ले ली और 800 से ज़्यादा लोग घायल हुए. यह एक ऐसा मंज़र था जिसने पूरे शहर को झकझोर कर रख दिया था.

इस आतंकी हमले के 19 साल बाद अब एक ऐसा मोड़ आया है जिसने सबको हैरान कर दिया है. बॉम्बे हाई कोर्ट ने 21 जुलाई 2025 को इस मामले में एक बड़ा फैसला सुनाते हुए, 11 आरोपियों को बरी कर दिया है.

वो खौफनाक शाम

11 जुलाई 2006 की शाम, मुंबई अपनी रोज़ाना की रफ़्तार में था. लोग अपने घरों की ओर जा रहे थे. तभी, शाम 6:24 से 6:35 के बीच वेस्टर्न रेलवे लाइन पर माटुंगा रोड, बांद्रा, खार रोड, जोगेश्वरी, बोरीवली, भायंदर और मीरा रोड स्टेशनों पर ट्रेनों में एक के बाद एक सात बम धमाके हुए. शहर सदमे में था. हर तरफ़ चीख-पुकार और अफरा-तफरी मच गई. पुलिस और जांच एजेंसियों ने तुरंत कार्रवाई शुरू की. शुरुआती जांच में लश्कर-ए-तैयबा और स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) जैसे आतंकी संगठनों का नाम सामने आया था.

लंबी लड़ाई, बड़ा इंतज़ार

मुंबई पुलिस और ATS (एंटी-टेररिज्म स्क्वॉड) ने इस मामले की जांच की और 13 लोगों को आरोपी बनाया. इनमें से 12 पर विशेष MCOCA कोर्ट में मुक़दमा चला. 2015 में विशेष कोर्ट ने 12 में से 7 आरोपियों को फांसी की सज़ा सुनाई, जबकि 5 को उम्रकैद दी गई. अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि ये लोग आतंकी संगठनों से जुड़े थे और उन्होंने ही इस साज़िश को अंजाम दिया था.

लेकिन कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी. इन आरोपियों ने निचली अदालत के इस फैसले को बॉम्बे हाई कोर्ट में चुनौती दी. 19 साल तक चली इस कानूनी लड़ाई में कई सवाल उठे. क्या सबूत वाकई मज़बूत थे? क्या सभी आरोपी दोषी थे? और क्या इंसाफ सही मायनों में हो पाया था?

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हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला

21 जुलाई 2025 को जस्टिस अनिल कीलोर और जस्टिस श्याम चंदक की बेंच ने इस मामले में एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया. कोर्ट ने 11 आरोपियों को बरी कर दिया. कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष अपने दावों को साबित करने में नाकाम रहा. कोर्ट ने अपने फैसले में कुछ अहम बातें कहीं.

सबूतों की कमी: अभियोजन पक्ष के पास कोई ठोस सबूत नहीं थे. हैरानी की बात तो यह है कि बमों में इस्तेमाल हुए विस्फोटक की सही पहचान तक नहीं हो पाई.

जबरदस्ती कबूलनामे: आरोपियों के कबूलनामे को कोर्ट ने खारिज कर दिया, क्योंकि ये आरोप लगे थे कि उन्हें जबरदस्ती और यातना देकर कबूल करवाया गया था.

गवाहों की विश्वसनीयता: अभियोजन पक्ष के गवाहों की गवाही में विरोधाभास थे, जिसके चलते कोर्ट ने उन्हें भरोसेमंद नहीं माना.

कोर्ट ने साफ कहा कि ऐसे गंभीर मामलों में सबूतों का एकदम पुख्ता होना बहुत ज़रूरी है, और अगर कोई संदेह है, तो उसका फायदा आरोपी को मिलना चाहिए. इस फैसले ने न सिर्फ कानूनी गलियारों में हलचल मचाई, बल्कि उन परिवारों के लिए भी कई सवाल खड़े कर दिए, जिन्होंने इस हादसे में अपनों को खोया था.

पीड़ितों का दर्द और अनसुलझे सवाल

इस फैसले ने 2006 के पीड़ितों के परिवारों के ज़ख्मों को फिर से हरा कर दिया है. 189 लोग, जो उस दिन घर लौटने की उम्मीद में ट्रेन में सवार हुए थे, वे कभी वापस नहीं आए. सैकड़ों लोग आज भी उन चोटों के साथ जी रहे हैं, जो सिर्फ़ शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक भी हैं. पीड़ितों के परिवारों का कहना है कि 19 साल बाद भी उन्हें इंसाफ नहीं मिला. अगर ये 11 लोग दोषी नहीं थे, तो असली गुनहगार कौन हैं? यह सवाल आज भी अनुत्तरित है.

एक नई शुरुआत या अधूरी कहानी?

बॉम्बे हाई कोर्ट का यह फैसला कानूनी दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण है ही, लेकिन यह समाज और हमारी जांच एजेंसियों के लिए भी एक सबक है. यह सवाल उठता है कि क्या हमारी जांच प्रणाली में कहीं कोई कमी रह गई? क्या जल्दबाजी में गलत लोगों को फंसाया गया? या फिर असली गुनहगार अभी भी आज़ाद घूम रहे हैं? यह फैसला उन लोगों के लिए एक राहत है जो 19 साल से जेल में थे, लेकिन पीड़ितों के लिए यह एक अधूरी कहानी छोड़ गया है.

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