Bihar Politics: राजनीति वाकई अजीब खेल है. यहां दुश्मनी और दोस्ती, दोनों ही मौसम की तरह बदलती रहती हैं. बिहार की सियासत में एक ऐसी ही चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई है, जिसने जनता को हैरान कर दिया है. ये तस्वीर है पप्पू यादव और पूर्व सांसद संतोष कुशवाहा की.
ये वही दो चेहरे हैं जो कुछ महीने पहले तक एक-दूसरे के खिलाफ आग उगल रहे थे. सार्वजनिक मंचों पर एक-दूसरे को हराने की कसमें खा रहे थे. लेकिन अब, ये दोनों नेता पूर्णिया में एक साथ मंच साझा कर रहे हैं, गले मिल रहे हैं और एक-दूसरे की तारीफ में कसीदे पढ़ रहे हैं. यह नजारा बिहार की राजनीति के सबसे पुराने सच को एक बार फिर सामने लाता है कि राजनीति में कोई स्थायी दुश्मन नहीं होता, केवल स्थायी समीकरण होते हैं.”
संतोष कुशवाहा के लिए प्रचार करते नजर आए पप्पू यादव
दरअसल, पूर्णिया में निर्दलीय सांसद पप्पू यादव ने रविवार को धमदाहा विधानसभा में कई चुनावी कार्यक्रमों में शामिल हुए. इतना ही नहीं, धमदाहा से महागठबंधन के राजद प्रत्याशी पूर्व सांसद संतोष कुशवाहा के समर्थन में दमदार रोड शो किया. इस दौरान पूर्व सांसद और राजद प्रत्याशी संतोष कुशवाहा को पप्पू यादव बुलेट पर बिठाकर जनसंपर्क करते भी नजर आए.
10 साल की ‘सियासी अदावत’ का फ्लैशबैक
पप्पू यादव और संतोष कुशवाहा के बीच की राजनीतिक लड़ाई कोई नई नहीं है. यह करीब एक दशक पुरानी है. यह अदावत तब गहरी हुई जब संतोष कुशवाहा ने पहली बार पप्पू यादव को हराकर पूर्णिया लोकसभा सीट जीती थी. इसे आप 2014 के शुरुआत से याद कर सकते हैं. तब देश में हर तरफ ‘मोदी युग’ की शुरुआत हो रही थी.
2019 का टकराव
2019 के लोकसभा चुनाव में भी दोनों के बीच तीखी बयानबाजी हुई. पप्पू यादव ने संतोष कुशवाहा पर ‘सत्ता का गुलाम’ होने का आरोप लगाया, तो कुशवाहा ने पलटवार करते हुए पप्पू यादव को ‘अपराधी’ करार दिया. दुश्मनी इतनी गहरी थी कि शायद ही किसी ने सोचा होगा कि ये दोनों कभी एक मंच पर दिखेंगे. 2024 के लोकसभा चुनाव में बाजी पलट गई और पप्पू यादव ने संतोष कुशवाहा को हरा दिया. इस हार के बाद कुशवाहा ने जदयू (JDU) छोड़ दी और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद (RJD) का दामन थाम लिया. अब, विधानसभा चुनाव के लिए 2024 के विरोधी, 2025 में दोस्त बनकर उभरे हैं. कभी संतोष कुशवाहा को संसद से बाहर करने वाले पप्पू यादव, आज उन्हीं के लिए वोट मांगते नजर आ रहे हैं.
वोट बैंक की ‘जातीय केमिस्ट्री’
सवाल यह नहीं है कि यह ‘दोस्ती’ क्यों हुई, सवाल यह है कि इसकी ‘टाइमिंग’ क्या है. राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह सिर्फ एक व्यक्तिगत मेल-मिलाप नहीं, बल्कि एक गहरी रणनीतिक चाल है. यह नया गठबंधन मुख्य रूप से सीमांचल क्षेत्र के कुशवाहा-यादव वोट बैंक को मजबूत करने की कोशिश है. पप्पू यादव, यादव समुदाय में और संतोष कुशवाहा, कुशवाहा समुदाय में मजबूत पकड़ रखते हैं. दोनों का साथ आना सीधे तौर पर इस क्षेत्र में जातीय गणित को साधने की रणनीति है.
यह गठबंधन ‘नीति’ या ‘नैतिकता’ की बात कम करता है, और ‘रणनीतिक-व्यवहार’ की बात ज़्यादा करता है. बिहार की राजनीति में अब विचारधारा से ज़्यादा, ‘समीकरण और समय की मांग’ को पूरा करना प्राथमिकता बन गया है. कल तक जिस नेता को भ्रष्ट या निकम्मा बताया जा रहा था, आज सत्ता की सीढ़ी चढ़ने के लिए उसी का हाथ पकड़ना ‘समय का तकाजा’ माना जा रहा है.
विचारों की राजनीति या ‘सर्वाइव करने की कला’?
यह तस्वीर सिर्फ पप्पू यादव और संतोष कुशवाहा तक सीमित नहीं है. यह बिहार की राजनीति का एक व्यापक चेहरा दिखाती है. कुछ साल पहले, बाहुबली अनंत सिंह और केंद्रीय मंत्री ललन सिंह की अदावत भी खूब चर्चा में थी. लेकिन 2024 लोकसभा चुनाव में समीकरणों के आगे दोनों साथ आ गए और अब उनके बीच ‘दांत काटी रोटी’ वाली दोस्ती है. छोटे सरकार जेल गए तो ललन सिंह ने खुद मोकामा की कमान संभाल ली है.
लोकतंत्र में जहां लड़ाई विचारों की होनी चाहिए, वहां यह लड़ाई चेहरों, जातीय पहचान और समीकरणों के इर्द-गिर्द सिमट कर रह गई है. नेताओं के लिए राजनीति अब ‘सेवा’ नहीं, बल्कि ‘सर्वाइव करने की कला’ बन गई है. जो ‘फायदे’ में हो, वही सही. जनता के वादे और नैतिकता केवल भाषणों तक सीमित रह गए हैं, जबकि जमीन पर सबकुछ सियासी समीकरण तय करते हैं.
क्या समझौतों को स्वीकार करने से खत्म हो जाएगी राजनीतिक जवाबदेही?
सबसे बड़ा सवाल जनता पर है. जो नेता कल तक एक-दूसरे की पोल खोलते थे, आज उन्हीं के लिए वोट अपील करने पर जनता के विश्वास की कीमत क्या रह जाती है? राजनीतिक पंडित कहते हैं कि जनता को यह समझना होगा कि ऐसे समझौतों को स्वीकार करने से राजनीति में जवाबदेही खत्म हो जाएगी. लोकतंत्र का असली चेहरा तभी मजबूत होगा जब जनता इन अवसरवादी समीकरणों को केवल सुनकर नहीं, बल्कि अपने वोट से चुनौती देगी.
पप्पू यादव और संतोष कुशवाहा की यह नई दोस्ती भले ही सौहार्द्र का संदेश देती हो, लेकिन यह बिहार की राजनीति की विडंबना भी दिखा रही है. यह तस्वीर हमें याद दिलाती है कि लोकतंत्र को बचाने के लिए सिर्फ वोट डालना काफी नहीं है, बल्कि हमें जाति, धर्म और व्यक्ति से ऊपर उठकर ‘विचार’ के लिए वोट करना होगा.
