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800 साल पुरानी कोल्हापुरी चप्पल की अनकही कहानी, जिसने झटके में हिला दिया प्राडा का ‘साम्राज्य’!

Kolhapuri Chappal Controversy

कोल्हापुरी चप्पल बनाते कारीगर की तस्वीर

Kolhapuri Chappal Controversy: मिलान के चमकदार फैशन रैंप पर एक ऐसी घटना घटी, जिसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया है. हुआ यूं कि दुनिया के सबसे महंगे ब्रांड्स में से एक इटली के प्राडा (Prada) ने अपनी नई चप्पल पेश की. दिखती तो थी वो कोल्हापुरी चप्पल जैसी ही, लेकिन इसकी कीमत रखी गई पूरे 1 लाख 20 हज़ार रुपये. जी हां, आपने सही पढ़ा, 1 लाख 20 हज़ार… अब ज़रा सोचिए, एक आम आदमी इतनी कीमत में तो एक मोटरसाइकिल खरीद ले.

लेकिन कहानी सिर्फ कीमत की नहीं थी, कहानी थी ‘चोरी’ और ‘पहचान’ की. प्राडा ने अपनी इस ‘खास’ चप्पल को लॉन्च करते हुए एक शब्द भी नहीं कहा कि ये आइडिया कंपनी को भारत से मिला है, वो भी भारत की सदियों पुरानी कारीगरी से. बस, यहीं से शुरू हुआ असली ‘फसाद’.

महाराष्ट्र में मेहनती कारीगरों का हल्ला बोल

भारत में ख़बर बिजली की तरह फैली और बवाल मच गया. पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन चप्पलों को अपनी जान से भी ज़्यादा सहेजते आए महाराष्ट्र के मेहनती कारीगर और महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर (MACCIA) ने प्राडा पर हल्ला बोल दिया. उनका सीधा आरोप था कि ये सिर्फ एक डिज़ाइन की चोरी नहीं, बल्कि हमारे ‘कारीगर अधिनियम’ और ‘GI (Geographical Indication) नियमों’ का खुला उल्लंघन है. जीआई टैग यानी, वो सरकारी मुहर जो किसी खास जगह के उत्पाद को उसकी पहचान और कानूनी सुरक्षा देती है.

सोशल मीडिया पर ‘प्राडा शर्म करो’ की आवाज़ें गूंजने लगीं. जब पानी सिर से ऊपर चला गया और हंगामा बढ़ने लगा तो आखिर में प्राडा को झुकना पड़ा. उनके ‘हाई-फाई’ डिज़ाइनर्स ने औपचारिक रूप से अपनी गलती मानी और स्वीकार किया कि उनकी ये ‘लग्जरी चप्पल’ असल में हाथ से बनी कोल्हापुरी चप्पल से प्रेरित है, जिसका इतिहास सदियों पुराना है.

800 सालों का ‘स्वैग’ है कोल्हापुरी चप्पल

क्या आप जानते हैं, जिस कोल्हापुरी चप्पल को आज दुनिया के बड़े ब्रांड्स कॉपी कर रहे हैं, उसका इतिहास कितना पुराना है? ये सिर्फ पैरों में पहनने की चीज़ नहीं है, बल्कि ये महाराष्ट्र की मिट्टी, उसके इतिहास और वहां के कलाकारों की बेमिसाल कला का जीता-जागता सबूत है.

जब कोल्हापुरी चप्पल बनी राजा-महाराजाओं की शान

कल्पना कीजिए 800 साल पहले का समय. महाराष्ट्र के कोल्हापुर में साहू और चोपड़े परिवार थे, जो चमड़े का अद्भुत काम करते थे. उन्हीं ने सबसे पहले इन चप्पलों को बनाया था. इनका मकसद सिर्फ़ पैरों को ढकना नहीं था, बल्कि ऐसी चप्पलें बनाना था जो मज़बूत हों, आरामदायक हों और मुश्किल रास्तों पर भी साथ दें. लेकिन इन्हें असली ‘स्टार’ बनाया छत्रपति शाहू जी महाराज (1874-1922) ने. वो दूरदर्शी राजा थे और उन्होंने छोटे उद्योगों को खूब बढ़ावा दिया. उन्हें इस चप्पल में कुछ खास दिखा और देखते ही देखते ये शाही दरबार का हिस्सा बन गईं. राजा-महाराजा और दरबारी इसे शान से पहनने लगे. उस दौर में इसे ‘कपालि’, ‘पकाहि’, ‘बकशाही’ और ‘पेहेरू’ जैसे कई नामों से जाना जाता था और हर नाम अपनी कहानी कहता था.

गांवों से शहर और फिर विदेशों तक धाक

धीरे-धीरे इन चप्पलों ने गांवों की गलियों से निकलकर मुंबई और पुणे जैसे बड़े शहरों के बाज़ारों में कदम रखा. ब्रिटिश शासन के दौरान तो इन्हें बड़े-बड़े मेलों और प्रदर्शनियों में भी दिखाया जाने लगा. विदेशी अफ़सरों और व्यापारियों ने इन्हें देखा, पसंद किया और यहीं से ये चप्पलें सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि विदेशों में भी अपनी पहचान बनाने लगीं. उनकी सादगी, मज़बूती और भारतीय टच ने सबको दीवाना बना दिया.

जब कोल्हापुरी चप्पलें बनी फैशन का सिंबल

साठ का दशक आते-आते कोल्हापुरी चप्पलें सिर्फ ‘परंपरा’ नहीं रहीं, बल्कि ‘फैशन का नया सिंबल’ बन गईं. युवा और शहर के लोग इन्हें पहनकर खुद को कूल महसूस करने लगे. बॉलीवुड फ़िल्मों में मैगज़ीन के कवर पर, हर जगह इनकी धूम मच गई. ये ऐसी चप्पल बन गई जो ट्रेडिशनल कपड़ों के साथ भी जंचती थी और मॉडर्न लिबास के साथ भी.

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‘सरकारी मुहर’ और पहचान

इस शानदार चप्पल को असली ‘ताज’ मिला साल 2009 में, जब इसे भारत सरकार से GI (Geographical Indication) टैग मिला. ये टैग एक तरह की ‘गारंटी’ है कि ये चप्पल सिर्फ और सिर्फ कोल्हापुर और उसके आसपास के इलाके में ही बनी है. अब कोई और कहीं भी बनी चप्पल को ‘कोल्हापुरी’ नाम से नहीं बेच सकता था. ये कारीगरों की मेहनत और पहचान को दिया गया एक कानूनी ‘सुरक्षा कवच’ था, उनका अपना ‘ट्रेडमार्क’.

1 लाख लोगों की ‘रोज़ी-रोटी’

आज की तारीख में कोल्हापुरी चप्पलें सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में अपनी पहचान बना चुकी हैं. आप देखेंगे कि बॉलीवुड के बड़े-बड़े सितारे, नामी फैशन डिज़ाइनर्स और आम लोग, हर कोई इन्हें शान से पहन रहा है. भारत सरकार के MSME मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, आज भी लगभग 1 लाख लोग सीधे या परोक्ष रूप से इस कोल्हापुरी चप्पल उद्योग से जुड़े हुए हैं. ये सिर्फ कोल्हापुर में नहीं, बल्कि सांगली, सतारा, बीड़, सोलापुर और नासिक जैसे महाराष्ट्र के कई ज़िलों में फैला हुआ है. इन हज़ारों परिवारों की रोज़ी-रोटी इसी चप्पल उद्योग पर टिकी है. ये उनके लिए सिर्फ़ व्यापार नहीं, बल्कि उनकी ज़िंदगी का हिस्सा है.

इन चप्पलों की सबसे बड़ी खूबी क्या है?

ये आज भी पूरी तरह हाथ से बनाई जाती हैं. जी हां, कोई मशीन नहीं, सिर्फ कारीगरों के जादुई हाथ और उनकी कला. हर एक चप्पल को बनाने में कई घंटे लगते हैं और इसमें केवल प्राकृतिक चमड़े का इस्तेमाल होता है. यही ‘हाथ का हुनर’ और ‘शुद्धता’ है जो इन्हें इतना टिकाऊ, आरामदायक और खास बनाती है.

प्राडा विवाद ने एक बार फिर हमें याद दिलाया है कि हमारे देश में कला और हुनर का कितना बड़ा खज़ाना छुपा है. इसे न केवल सहेजना है, बल्कि इसे दुनिया के सामने सही सम्मान के साथ लाना भी है. ये सिर्फ चप्पलों की बात नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक पहचान, हमारे इतिहास और उन लाखों कारीगरों की मेहनत का सवाल है जो इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रखे हुए हैं.

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