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खून से लाल पटरियों से सत्ता के सिंहासन तक…जब आरक्षण की ‘जंग’ में बिछ गईं लाशें, अब राजस्थान के CM भजनलाल का ‘लिटमस टेस्ट’!

Rajasthan Politics

राजस्थान में गुर्जर आंदोलन

Rajasthan Politics: एक ऐसा मुद्दा जो पिछले 20 सालों से राजस्थान के हर मुख्यमंत्री के लिए ‘सिरदर्द’ बना हुआ है. एक ऐसी आग, जिसकी लपटों ने कभी रेलवे ट्रैक को खून से लाल कर दिया, तो कभी सरकारें तक बदल डालीं. हम बात कर रहे हैं गुर्जर आरक्षण आंदोलन की, जो करौली, दौसा, टोंक, भरतपुर, सवाई माधोपुर, बयाना जैसे राजस्थान के कई इलाकों की पहचान बन चुका है.

जब पटरी पर बिछ गईं लाशें

इस आंदोलन की जड़ में कई दर्दनाक कहानी है. शुरुआती कुछ सालों में ही, यानी 2006 से 2010 के बीच, करीब 75 लोगों की जान चली गई. जरा सोचिए, 75 परिवार उजड़ गए. आंदोलनकारी संगठनों ने इन 20 सालों में 6 बड़े प्रदर्शन किए, जिनमें से 3 बार तो हालात इतने बिगड़ गए कि चारों तरफ हिंसा की आग दिखाई देने लगी.

सबसे भयानक दिन था 23 मई 2008, जब भरतपुर के पीलूपुरा में हजारों गुर्जर समुदाय के लोग रेल की पटरियों पर बैठ गए. उन्होंने ट्रेनें रोक दीं, सड़कें जाम कर दीं. माहौल इतना तनावपूर्ण हो गया कि पुलिस और फौज से सीधी भिड़ंत हो गई. उस दिन पुलिस की गोलियां चलीं और कुछ ही घंटों में कम से कम 37 बेगुनाहों की लाशें बिछ गईं. सिर्फ पीलूपुरा ही नहीं, आसपास के कई गांवों में भी मातम पसर गया. महिलाओं ने अपने बेटों और पतियों के शवों को संभाला, उन्हें ‘शहीद’ कहा और रेलवे ट्रैक पर रखकर विरोध प्रदर्शन किया. यह घटना आज भी राजस्थान के इतिहास का एक काला धब्बा है.

क्यों शुरू हुई यह ‘जंग’?

इस आंदोलन की नींव कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला ने 2006 में रखी थी. मुद्दा ये है कि गुर्जर समुदाय भारत के कई राज्यों में फैला है – राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और दिल्ली. लेकिन हर जगह उन्हें अलग-अलग कैटेगरी में रखा गया है. जैसे, राजस्थान में वे अति पिछड़ा वर्ग (MBC) में आते हैं, जबकि जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश में उन्हें अनुसूचित जनजाति (ST) का दर्जा मिला है. दिल्ली में वे सामान्य वर्ग में हैं. गुर्जरों की सीधी मांग है कि जब दूसरे राज्यों में उन्हें ST का फायदा मिल रहा है, तो राजस्थान में भी उन्हें यही दर्जा दिया जाए, ताकि सरकारी नौकरियों और शिक्षा में उनका हक मिले.

पीलूपुरा कांड से पहले, 2007 में भी करौली-दौसा में जोरदार हिंसा हुई थी, जिसमें तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार के दौरान पुलिस फायरिंग में 26 लोग मारे गए थे.

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सरकारें बदलीं, पर सवाल वहीं का वहीं!

2008 के उस बड़े आंदोलन ने तत्कालीन वसुंधरा राजे सरकार को हिलाकर रख दिया था. लोगों का गुस्सा इतना था कि उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को भारी नुकसान हुआ. 2003 में 120 सीटें जीतने वाली बीजेपी 2008 में सिर्फ 78 पर सिमट गई और कांग्रेस 56 से बढ़कर 96 सीटों के साथ सत्ता में आ गई. अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बन गए. यही नहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी बुरी तरह हारी.

हालांकि, पीलूपुरा भरतपुर में था, लेकिन 2008 के विधानसभा चुनाव में भरतपुर जिले की 7 में से 5 सीटों पर बीजेपी ही जीती. ये अपने आप में एक अजीब बात थी. 2010 में भी कर्नल बैंसला की अगुवाई में एक बार फिर हिंसक प्रदर्शन हुए, जिसमें सवाई माधोपुर, बयाना और दौसा में 10 और जानें चली गईं.

फिर 2013 में जब वसुंधरा राजे फिर से मुख्यमंत्री बनीं, तो गुर्जरों को स्पेशल बैकवर्ड क्लास (SBC) में शामिल करने का हाई कोर्ट का फैसला उनके हक में नहीं था. लंबी बातचीत के बाद, 2015 में राजे सरकार ने गुर्जरों को MBC कैटेगरी में 1% आरक्षण दिया. लेकिन ये ऊंट के मुंह में जीरा साबित हुआ, आंदोलनकारी संतुष्ट नहीं हुए.

2018 के विधानसभा चुनाव से पहले भी आंदोलन गरमाया, हालांकि इस बार हिंसा कम थी. 2018 में फिर अशोक गहलोत आए और उन्होंने 2019 में MBC कोटे में आरक्षण को बढ़ाकर 5% कर दिया. लेकिन गुर्जर समुदाय आज भी कहता है कि उनकी पूरी मांगें नहीं मानी गई हैं.

कर्नल के बेटे को कमान

कोविड के दौरान 2020 में भी आंदोलन हुआ, जो शांतिपूर्ण रहा. 2022 में आंदोलन के सबसे बड़े चेहरा, कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला दुनिया से चले गए. उनकी विरासत अब उनके बेटे विजय बैंसला संभाल रहे हैं. अब 5 साल बाद एक बार फिर आरक्षण के मुद्दे पर गुर्जर समुदाय की महापंचायत होने वाली है.

राजस्थान में इस समय बीजेपी की भजनलाल सरकार है. उनके गृह राज्य मंत्री जय सिंह बेढम ने बातचीत के लिए तैयार होने की बात कही है. खास बात ये है कि विजय बैंसला खुद बीजेपी में ही हैं और चुनाव भी लड़ चुके हैं. ऐसे में भजनलाल सरकार के लिए यह एक बड़ा ‘लिटमस टेस्ट’ है. देखना होगा कि वे इस दशकों पुरानी ‘पहेली’ को कैसे सुलझाते हैं, ताकि राजस्थान में शांति बनी रहे और किसी को अपनी जान न गंवानी पड़े.

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