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लालू का ‘टाल टाइगर’ जो कभी नहीं बना MLA…मोकामा वाले दुलारचंद यादव के सियासी हनक की ‘अनंत’ कथाएं!

Bihar Leader Dularchand Yadav Murder Case Political Uproar

दुलारचंद यादव को लालू यादव ने इशारों पर नचाया!

Who Was Dularchand Yadav: मोकामा के घने टाल जंगलों में कभी एक नाम गूंजता था, दुलारचंद यादव. नब्बे के दशक में जिनकी एक चीख पर पूरा इलाका सन्न रहता था, उसी बाहुबली को गुरुवार सुबह हमलावरों ने गोलियों की बौछार से हमेशा के लिए खामोश कर दिया. 75 साल की उम्र में मौत तो तय थी, लेकिन दिनदहाड़े हुई इस वारदात ने बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के बीच सियासी भूचाल ला दिया. अपराध और राजनीति का पुराना गठजोड़ फिर खून से रंगा नजर आ रहा है. आइए जानते हैं कि कैसे एक लोकल गुंडा लालू यादव का ‘समर्पित योद्धा’ बना, लेकिन कभी टिकट का हकदार नहीं..

जन्म से बाहुबली तक

दुलारचंद यादव का जन्म बाढ़-मोकामा के टाल इलाके में हुआ. यादव बहुल यह क्षेत्र गंगा की बाढ़ और जंगल राज का गवाह रहा है. 1980 के दशक में जमीन कब्जा, रंगदारी, मारपीट जैसे छोटे-मोटे अपराध से शुरुआत की. लेकिन असली उभार 1990 में लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री बनने के साथ हुआ. उस दौर में बिहार की सियासत जाति की धुरी पर घूमती थी. लालू ने पिछड़ा वर्ग को एकजुट करने के लिए यादवों को आगे किया.

मोकामा में भूमिहार बाहुबली दिलीप सिंह यानी अनंत सिंह के बड़े भाई का दबदबा था. दिलीप जनता दल से विधायक थे और विपक्षी नेता जगन्नाथ मिश्र ने लालू पर आरोप लगाया कि वे जाति के नाम पर अपराधियों को संगठित कर रहे हैं. इसी कड़ी में लालू ने दुलारचंद को ‘काउंटर बैलेंस’ बनाया. दुलारचंद ने टाल क्षेत्र में अपनी फौज खड़ी की. बंदूक की नोंक पर वोट मैनेजमेंट, विरोधियों को धमकाना, चुनावी रैलियों में माहौल बनाना सबकुछ. मीडिया में उन्हें ‘टाल का आतंक’ कहा जाने लगा. लेकिन लालू की नजर में वे ‘पिछड़ावाद के पोस्टर बॉय’ थे. दुलारचंद खुद मानते थे, “लालू जी ने जो इज्जत दी, वो कोई नहीं दे सकता.”

जनता दल के अंदर का संघर्ष

लालू के करीबी होने के बावजूद दुलारचंद को पार्टी टिकट नहीं मिला. वजह? जनता दल में जॉर्ज फर्नांडीस, शरद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेता थे जो राजनीति के अपराधीकरण के सख्त खिलाफ थे. दुलारचंद पर हत्या, अपहरण, वसूली के दर्जन भर केस थे. चुनाव आयोग के हलफनामे (2010) के मुताबिक, दुलारचंद पर 12+ मामले दर्ज थे. जिसमें, चार हत्या, चार हत्या के प्रयास, एक अपहरण. ऐसे में टिकट देना पार्टी की छवि खराब करना था. लालू ने दुलारचंद को ‘ग्राउंड लेवल मैनेजर’ बनाए रखा, लेकिन विधानसभा या लोकसभा की सीट कभी नहीं सौंपी.

एक किस्सा मशहूर है. 1990 के दशक में दुलारचंद नीतीश कुमार के खिलाफ लोकसभा लड़ना चाहते थे. लालू खुद उनके घर पहुंचे और कहा, “भाई, चुनाव मत लड़ो. नीतीश को हराना है, लेकिन तुम बैठ जाओ.” दुलारचंद ने बात मान ली. नीतीश जीत गए. दुलारचंद ने इंटरव्यू में कहा, “लालू जी की बात कैसे टालता, हम तो उनके लिए समर्पित हैं.”

राजनीतिक महत्वाकांक्षा दब नहीं सकी. 1995 विधानसभा चुनाव में दुलारचंद बाढ़ सीट से निर्दलीय उतरे. सीट पर 40 उम्मीदवार थे. लालू की जनता दल ने विजय कृष्ण को टिकट दिया. नीतीश की समता पार्टी से भुवनेश्वर प्रसाद सिंह मैदान में थे. कांटे की टक्कर में विजय कृष्ण 4,000 वोटों से जीते. लेकिन दुलारचंद को महज 105 वोट मिला, हैरानी की बात ये थी कि जिस यादव समाज के लिए वे बाहुबली बने, उसी ने वोट देने से मुंह फेर लिया. बंदूक की ताकत वोट बैंक में नहीं बदली. यह पहला झटका था जो बताता था कि अपराधी छवि चुनावी सफलता की गारंटी नहीं.

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राजद का दौर

1997 में लालू ने राजद बनाई. दुलारचंद उम्मीद जगा बैठे. लेकिन लालू ने छवि बचाने के लिए दुलारचंद से दूरी बनाई. राजद में बाहुबलियों को ग्राउंड पर इस्तेमाल किया जाता, लेकिन टिकट साफ-सुथरे चेहरों को. दुलारचंद टाल में राजद के लिए वोट मैनेज करते रहे, लेकिन कभी उम्मीदवार नहीं बने. कहा जाता है कि लालू ने पिछड़ावाद की चमक के लिए दुलारचंद का इस्तेमाल किया, लेकिन उन्हें ‘अपना’ कभी नहीं माना.

समय बीता, दुलारचंद की उम्र 60 के पार पहुंच गई. अपराध की दुनिया में दबदबा कम नहीं हुआ. जमीन हड़पना, ठेके कब्जाना जारी रही. लेकिन राजनीति में दूसरा मौका 2010 में मिला. जनता दल सेक्युलर से बाढ़ सीट पर उतरे. उम्मीद थी कि अब सामाजिक हैसियत काम आएगी. लेकिन नतीजा? सिर्फ 598 वोट. मुख्य मुकाबला राजद और जदयू में था. दुलारचंद फिर किनारे लग गए. यह साबित हो गया कि यादव वोटर उन्हें नेता नहीं, सिर्फ लोकल गुंडा मानता है.

अनंत सिंह खेमे में शिफ्ट

नीतीश कुमार के साथ लालू का गठबंधन टूटा. अनंत सिंह नीतीश से नाराज होकर राजद खेमे में आए. 2019 लोकसभा चुनाव में राजद-कांग्रेस गठबंधन हुआ. मुंगेर सीट पर अनंत की पत्नी नीलम देवी कांग्रेस से मैदान में उतरीं. जदयू से ललन सिंह मैदान में. दुलारचंद ने पुरानी दुश्मनी भुलाकर अनंत के साथ मंच साझा किया. खुलकर प्रचार किया. बोले, “लालू जी के लिए अनंत भाई के साथ हूं. नीलम भाभी को जिताऊंगा.”

नीलम देवी 1 लाख 67 हजार वोटों से हारीं. ललन सिंह ने एकतरफा मुकाबला बनाया. दुलारचंद का प्रचार बेकार. यह आखिरी बड़ा राजनीतिक कदम था. इसके बाद वे जन सुराज की ओर मुड़े. 2025 चुनाव में पीयूष प्रियदर्शी मोकामा से जन सुराज उम्मीदवार हैं. दुलारचंद उन्हीं के लिए प्रचार कर रहे थे.

2019 में बाढ़ की ASP लिपि सिंह ने दुलारचंद को जमीन हड़पने और हत्या के प्रयास के केस में गिरफ्तार किया. जेल गए, लेकिन बाहर आए तो दबदबा बरकरार. नीतीश राज में बाहुबलियों पर शिकंजा कसा गया, लेकिन दुलारचंद जैसे पुराने खिलाड़ी ग्रामीण इलाकों में सक्रिय रहे. 2020 विधानसभा में चुप रहे. 2025 में प्रशांत किशोर की पार्टी में सक्रियता दिखी. लेकिन 30 अक्टूबर की सुबह सब खत्म. सवाल वही कि क्या बिहार का जंगल राज लौट रहा है? दुलारचंद की कहानी बिहार की बाहुबली राजनीति का आईना है. लालू का समर्पित सिपाही, लेकिन कभी नेता नहीं बन पाया. बंदूक से इलाका जीता, लेकिन वोट से हर बार हारा. उनकी मौत ने चुनावी वैतरणी में नई लहरें पैदा कर दी हैं.

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