Congress Headquarter: आज से कुछ साल पहले तक, 24 अकबर रोड एक ऐसी जगह हुआ करती थी, जहां कांग्रेस पार्टी की शक्ति की गूंज गूंजती थी. यही वो जगह थी, जहां से एक ऐसा राजनीतिक तंत्र चलता था, जिसे पूरा देश सलाम करता था. कांग्रेस पार्टी के अस्तित्व और संघर्ष का इससे बेहतर उदाहरण कहीं और नहीं मिल सकता. दिल्ली के इस दिल में स्थित कांग्रेस का मुख्यालय कभी भारतीय राजनीति का केन्द्र था, लेकिन अब यह स्थान एक खाली किताब की तरह प्रतीत होने लगा है, जिस पर लिखा हुआ हर पन्ना पुराना लगता है.
कांग्रेस का उत्थान
यह सब शुरू हुआ था 1978 में जब कांग्रेस ने 24 अकबर रोड को अपना मुख्यालय बनाने का फैसला किया था. उस समय पार्टी का दिल और आत्मा दिल्ली में यहीं बसी थी. इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अपनी ताकत की ऊंचाई को छुआ, और यही वह समय था जब 24 अकबर रोड पर बैठकर देश के राजनीतिक निर्णय लिए जाते थे.
इंदिरा गांधी की कांग्रेस
इंदिरा गांधी के नेतृत्व में 1980 के दशक में कांग्रेस ने सत्ता को फिर से हासिल किया. पार्टी ने 1984 में ऐतिहासिक चुनावी जीत हासिल की थी. कांग्रेस की गूंज अब 24 अकबर रोड से भारत के हर कोने तक फैल चुकी थी. यहां से कांग्रेस की राजनीतिक चालें और फैसले आकार लेते थे. लेकिन जैसा हर कहानी में होता है, कुछ उथल-पुथल तो आनी ही थी. क्या कोई सत्ता हमेशा स्थिर रह सकती है?
एक आंधी आई, और पार्टी तोड़ गई
1991 में जब राजीव गांधी का निधन हुआ, तो कांग्रेस की धुरी को अचानक एक बड़ा धक्का लगा. पार्टी के भीतर एक नया नेतृत्व उभरने लगा. पीवी नरसिम्हा राव ने उस समय सत्ता संभाली और देश के भविष्य को एक नई दिशा दी. उनके कार्यकाल में भारतीय राजनीति में कई बड़े बदलाव हुए, लेकिन कांग्रेस के अंदर आंतरिक राजनीति का खेल भी जोर पकड़ने लगा.
यहीं से 24 अकबर रोड पर वो लकीर खिंचने लगी, जिस पर हर किसी ने अपनी छाप छोड़ी. राव के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेस के अंदर कई गुटों का जन्म हुआ, और ये गुट कभी एकजुट नहीं हो पाए. उन दिनों खबरें यह भी आईं कि कांग्रेस में बैठे कुछ नेता अपनी सत्ता को बढ़ाने के लिए खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल कर रहे थे.
पीवी नरसिम्हा राव की कड़ी मेहनत और कड़े फैसलों ने कांग्रेस को एक नई दिशा दी, लेकिन उनके नेतृत्व के बाद पार्टी में सत्ता संघर्ष बढ़ गया. राव के अन्य बड़े नेताओं से टकराव था, और इस टकराव ने कांग्रेस की धारा को पूरी तरह से बदल दिया. क्या किसी पार्टी की ताकत केवल एक व्यक्ति के आसपास घूमती है? यही सवाल अब कांग्रेस से पूछा जा रहा था.
कांग्रेस में टूट
पार्टी के भीतर की दरारें कभी भी कोई संकेत नहीं देतीं, लेकिन जब ये फटती हैं, तो सारा सिस्टम झकझोर देती हैं. कांग्रेस पार्टी में विभाजन कोई नई बात नहीं थी. 1978 से लेकर अब तक, कांग्रेस पार्टी में कई बार टूट हुई. 1980 में एक बड़ा विभाजन हुआ, जब एके एंटोनी ने कांग्रेस (ए) का गठन किया था. बाद में उनकी पार्टी ने कांग्रेस में वापसी की. इसके बाद 1994 में अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी जैसे बड़े नेताओं के नेतृत्व में तिवारी कांग्रेस का गठन हुआ.
1998 में ममता बनर्जी और अजित पांजा ने तृणमूल कांग्रेस की शुरुआत की, और 1999 में शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने मिलकर एनसीपी का गठन किया. इसके बाद, 2011 में जगनमोहन रेड्डी ने बगावत की और वाईएसआर कांग्रेस पार्टी की स्थापना की, जो आज भी आंध्र प्रदेश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है.
हालांकि, कांग्रेस के इन टूटों ने पार्टी को आंतरिक रूप से कमजोर किया, लेकिन पार्टी के भीतर से निकलने वाली ये नयी पार्टियां आज भी सक्रिय हैं. इस समय, कांग्रेस से टूटकर निकलने वाली 9 सक्रिय पार्टियां हैं, जैसे ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, शरद पवार की एनसीपी, और जगन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस.
यहां पर सवाल यह था कि क्या कांग्रेस खुद को दोबारा एकजुट कर पाएगी? क्या उसकी पुरानी ताकत और पहचान फिर से बन पाएगी? कांग्रेस के नेतृत्व में अब कई बदलाव हो रहे थे. 2004 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने वापसी की, लेकिन उस समय के बाद से पार्टी के अंदर जो संकट और संघर्ष चला, वह एक ऐतिहासिक उदाहरण बन गया.
कांग्रेस में जासूसी का खेल!
90 के दशक की शुरुआत में कांग्रेस के भीतर एक नई हलचल मची थी. यह समय था जब पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे और पार्टी में आंतरिक संघर्ष चरम पर था. राव और उनके विरोधियों के बीच शक्ति का संघर्ष गहराता जा रहा था, और कांग्रेस के भीतर सत्ता के भूख में सब कुछ जायज़ था. यही वह समय था, जब कांग्रेस पार्टी में एक अजीब सी खबर आई, जिसने पार्टी के अंदर के कामकाज को और भी रहस्यमय बना दिया.
कहा जाता है कि पीवी नरसिम्हा राव ने पार्टी के भीतर हो रही हलचलों पर कड़ी नज़र रखने के लिए भारतीय खुफिया एजेंसी (IB) को आदेश दिए थे. हां, सही सुना आपने—जासूसी! राव का मानना था कि कांग्रेस के अंदर सत्ता संघर्ष और गुटबाजी इतनी बढ़ चुकी थी कि इन पर नियंत्रण पाने के लिए उन्हें सख्त कदम उठाने होंगे. इस वक्त राव ने एक हद तक पार्टी के बड़े नेताओं, विशेषकर सोनिया गांधी जैसे उभरते चेहरे पर भी नजर रखने की योजना बनाई. जब राजनीति से ऊपर सत्ता की तृष्णा हो, तो वह हर हद पार कर जाती है.
खुफिया विभाग का उद्देश्य था—कांग्रेस के नेताओं के आपसी संपर्कों और योजनाओं की जानकारी इकट्ठा करना. यह एक तरह से पार्टी के भीतर की जासूसी थी, जिसमें नेताओं की व्यक्तिगत और राजनीतिक गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखी जा रही थी. इन रिपोर्ट्स में कभी राव के खिलाफ बात करने वाले नेताओं के बारे में जानकारी होती, तो कभी उन मुद्दों पर चर्चा होती, जिन्हें पार्टी के अंदर गंभीर रूप से दबाया जा रहा था.
यहां तक कि कुछ रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया कि पार्टी के अंदर ही राव के खिलाफ बगावत की साजिश रची जा रही थी. इस स्थिति ने कांग्रेस के भीतर और बाहर दोनों जगहों पर एक खौ़फ का माहौल बना दिया था, जहां विश्वास की कोई जगह नहीं थी.
कांग्रेस पार्टी के भीतर इस जासूसी के खेल को लेकर काफी चर्चाएं हुईं. पार्टी के भीतर के कई वरिष्ठ नेता भी इस बात से हैरान थे कि सत्ता के लिए ये क्या तरीका अपनाया जा रहा है. आज भी इस खेल को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा होती है, और यह कांग्रेस के आंतरिक संकट का एक हिस्सा बन चुका है.
कार्यकर्ता की पिटाई
यह घटना 1985 के आस-पास की है, जब राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में सत्ता संभाली थी. राजीव गांधी का नेतृत्व कांग्रेस में युवा और गतिशील बदलाव के रूप में देखा जा रहा था, लेकिन उनका कार्यकाल शुरू होते ही पार्टी के भीतर गहरे आंतरिक संघर्ष उभरने लगे.
इस घटनाक्रम में एक बेहद अजीब और शर्मनाक मोड़ तब आया जब पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कांग्रेस के एक युवा कार्यकर्ता को सार्वजनिक रूप से थप्पड़ मार दिया. यह घटना एक सार्वजनिक समारोह के दौरान घटी थी, जहां वरिष्ठ नेता और युवा कार्यकर्ता के बीच कोई बहस हो रही थी. गुस्से में आकर वरिष्ठ नेता ने उस युवा कार्यकर्ता को जोर से थप्पड़ जड़ दिया. यह न केवल उस व्यक्ति का अपमान था, बल्कि पूरी पार्टी की छवि के लिए भी यह एक बहुत बड़ा धक्का था.
इसके बाद पार्टी में यह चर्चा होने लगी कि क्या राजीव गांधी और उनके समर्थकों ने कांग्रेस की पुरानी परंपराओं और शिष्टाचार को नज़रअंदाज़ किया है. यह थप्पड़ कांग्रेस के भीतर छिपे गहरे राजनीतिक तनावों को उजागर कर रहा था. राजीव गांधी के लिए यह एक बड़ा झटका था क्योंकि उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि पार्टी के भीतर इस तरह की घटनाएं, पार्टी के वैचारिक संघर्ष और नेतृत्व के संकट को और गहरा कर देती हैं. ये तो थी पुरानी और अकबर रोड की कहानी लेकिन अब कांग्रेस का हाल क्या है?
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“जो कभी था, वो अब नहीं रहा”
2014 में जब नरेंद्र मोदी और बीजेपी ने कांग्रेस को मात दी, तो पार्टी का जो जनाधार था, वह बुरी तरह से टूटा. कांग्रेस केवल 44 सीटों पर सिमट गई थी. और इस क्षण ने 24 अकबर रोड को एक बड़ा संकट सामने ला दिया. उसके बाद 2019 और फिर 2024 के चुनावों में भी कांग्रेस की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. वह पराजय के बाद पराजय और संकट से गुजरती रही. पार्टी का नेतृत्व भी सवालों के घेरे में था, और 24 अकबर रोड पर आने वाली आवाज़ें अब पहले जैसी नहीं रही.
आज भी 24 अकबर रोड में कांग्रेस का दफ्तर है, लेकिन पार्टी को एक नई दिशा की तलाश है. राजनीति का यह खेल कभी आसान नहीं होता. कांग्रेस के भीतर नेतृत्व का संकट है, और पार्टी को यह समझने की जरूरत है कि बदलाव की आंधी में खुद को किस दिशा में ले जाना है.
आज के समय में कांग्रेस को न केवल अपने भीतर के टूट को संभालना होगा, बल्कि समाज में अपनी पहचान को फिर से मजबूत करना होगा. कांग्रेस को एक नई पहल करनी होगी, जिससे पार्टी अपने पुराने रंग में लौट सके. लेकिन यह सवाल अब भी मौजूद है कि क्या कांग्रेस फिर से उठ पाएगी?
कांग्रेस के पास न केवल इतिहास है, बल्कि उसे एक नई पहचान भी बनानी होगी. आज 24 अकबर रोड की दीवारों के बीच में छुपी हैं कांग्रेस के उत्थान और पतन की कहानियां. यहां पर हर क़दम एक नयी दिशा की ओर बढ़ता था, और हर मोड़ पर सत्ता के खेल ने इतिहास रचा था. अब 24 अकबर रोड तो है लेकिन कांग्रेस का मुख्यालय नहीं. कांग्रेस का नया पता अब कोटला रोड स्थित इंदिरा भवन है. पार्टी अब यहीं से काम करेगी.