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44 साल में ‘इकाई’ से सीटों का ‘तीहरा शतक’ जड़ने वाली BJP; जानिए कैसे जनसंघ से निकलकर बनी दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी

श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, पीएम मोदी

श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, पीएम मोदी

BJP Foundation Day: बीजेपी आज जिस मुकाम पर है वहां पहुंचने के लिए राजनीतिक पार्टियां सिर्फ सपने देखा करती है. 9 करोड़ एक्टिव मेंबर के साथ बीजेपी देश ही नहीं बल्कि दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है. बड़ी पार्टी होने के साथ इस पार्टी के ऊपर जिम्मेदारी भी बड़ी है.आज बीजेपी की स्थापना दिवस है. बीजेपी का इतिहास भारतीय जनसंघ से जुड़ा है और यह संबंध 72 साल पुराना है. दिल्ली में जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को हुई थी, जबकि बीजेपी की स्थापना 6 अप्रैल 1980 को हुई थी. आज बीजेपी अपने चरम पर है. पार्टी ने इस स्थिति तक पहुंचने के लिए संघर्ष और लंबे समय तक उतार-चढ़ाव देखा है, जहां वह लगातार दूसरी बार केंद्र में सत्ता में है, और आधे से अधिक राज्यों पर शासन कर रही है.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जनसंघ की कहानी

जनसंघ की नींव श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने रखी थी. देश की आजादी के बाद वह जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का हिस्सा थे, लेकिन 19 अप्रैल 1950 को मुखर्जी ने मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक राजनीतिक पार्टी बनाने का फैसला किया. उस वक्त उनके उद्योग मंत्री के पद से हटने और जनसंघ का गठन करने से कई सवाल उठे. जनसंघ को बाद में बीजेपी के नाम से जाना जाने लगा. दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी बनने की अपनी यात्रा में, यहीं से भाजपा की कहानी शुरू हुई.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने क्यों छोड़ा नेहरू का मंत्रिमंडल ?

भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद लाखों लोगों ने पलायन किया. नेहरू-लियाकत समझौते के कारण दोनों देश भीषण दंगों से पीड़ित थे. दोनों देशों के बीच यह समझौता हुआ कि वे अल्पसंख्यक आयोग का गठन करेंगे. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के मन में जवाहरलाल नेहरू की नीतियों के विरुद्ध वैकल्पिक राजनीति की इच्छा पनपने लगी. नेहरू-लियाकत समझौते को नेहरू की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति बताते हुए मुखर्जी ने 19 अप्रैल 1950 को केंद्रीय उद्योग मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के विकल्प के रूप में एक नई राजनीतिक पार्टी बनाने का बीड़ा उठाया.

क्यों हुआ जनसंघ का गठन ?

जानकारों की मानें तो जनसंघ के गठन के दो कारण थे. एक था नेहरू-लियाकत समझौता और दूसरा था महात्मा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) पर प्रतिबंध. आरएसएस पर लगे प्रतिबन्ध के कारण देश का एक वर्ग यह सोचने लगा कि कांग्रेस का विकल्प होना आवश्यक है. जनसंघ से जुड़े लोगों को भी राजनीतिक आधार की जरूरत थी. कहा जाता है कि नेहरू सरकार से इस्तीफा देने के बाद श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक माधव सदाशिवराव गोलवलकर से मुलाकात की थी. और इसी मुलाकात के बाद जनसंघ के गठन की रणनीति बनाई गई.

भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को दिल्ली में एक छोटे से कार्यक्रम में हुई थी. कहा जाता है कि उस वक्त इनलोगों के पास फंड की बहुत कमी थी. जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी, बलराज मधोक और दीनदयाल उपाध्याय थे. जनसंघ का चुनाव चिन्ह ‘दीपक’था.

जनसंघ का पहला चुनाव

1952 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ के टिकट और उसके चुनाव चिन्ह पर उम्मीदवारों ने 94 सीटों पर चुनाव लड़ा. 1952 में पहली बार जनसंघ के तीन सांसद चुने गए. दो पश्चिम बंगाल से और एक राजस्थान से. तीन निर्वाचित प्रतिनिधि श्यामा प्रसाद मुखर्जी (कोलकाता दक्षिण-पूर्व सीट से), दुर्गा चरण बनर्जी (मिदनापुर-झारग्राम सीट से) और उमाशंकर त्रिवेदी (चित्तौड़, राजस्थान से) थे.

जनसंघ के मुद्दे

चुनाव के बाद जनसंघ ने तीन मुद्दे को खूब उठाया. जनसंघ ने देश के लिए समान नागरिक संहिता, गोहत्या पर पूर्ण प्रतिबंध और जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की मांग की. 1953 में जनसंघ ने जम्मू-कश्मीर को लेकर पहला बड़ा अभियान चलाया. जनसंघ का कहना था कि कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह पूरी तरह से भारत में एकीकृत किया जाना चाहिए. उस समय जम्मू-कश्मीर जाने के लिए परमिट की आवश्यकता होती थी और वहां मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री का कार्यालय होता था.

मुखर्जी ने इसे देश की एकता में बाधक नीति के रूप में देखा और इसका डटकर विरोध किया. साल 1953 में मुखर्जी ने बिना परमिट के जम्मू-कश्मीर की यात्रा शुरू की. जम्मू में प्रवेश करने के बाद उन्हें शेख अब्दुल्ला सरकार ने गिरफ्तार कर लिया. उनकी गिरफ्तारी के ठीक 40 दिन बाद 23 जून 1953 को खबर आई कि मुखर्जी का निधन हो गया है.

राजनीति के जानकारों का कहना है कि पार्टी की राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में मजबूत उपस्थिति थी, लेकिन राजनीतिक आधार उत्तर भारत तक ही सीमित था. दक्षिण भारत में जनसंघ को स्वीकार नहीं किया गया. मुखर्जी के बाद, दीन दयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी ने भी जनसंघ का नेतृत्व किया.

जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का उदय कैसे हुआ?

जनसंघ की राह में निर्णायक मोड़ 1975 में आया जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लगा दिया. जनसंघ ने आपातकाल का खुलकर विरोध किया और उससे जुड़े सभी नेताओं को जेल में डाल दिया गया. 1977 में इंदिरा गांधी के आपातकाल हटाने के बाद देश में आम चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई. विपक्षी दलों ने वैचारिक मतभेद भुलाकर इंदिरा गांधी और कांग्रेस को हराने के एकमात्र उद्देश्य से हाथ मिला लिया. फिर जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया, जिसमें समाजवादी और कांग्रेस के विद्रोही गुट भी शामिल थे. 1977 के चुनाव में जनसंघ के नेता बहुत सफल होकर उभरे.

मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी ने केंद्र में सरकार बनाई. अटल बिहारी वाजपेयी विदेश मंत्री बने, जबकि लालकृष्ण आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्री बने. राजनीति के जानकारों की मानें तो जनता पार्टी में अपनी स्थापना के समय से ही कई गुट रहे हैं- एक मोरारजी देसाई का, दूसरा चौधरी चरण सिंह और राज नारायण का, तीसरा बाबू जगजीवन राम का और चौथा जनसंघ नेताओं का गुट था. 1978 में समाजवादी नेता मधु लिमये ने दोहरी सदस्यता का मुद्दा उठाया.

इससे इस बात पर बहस छिड़ गई कि क्या जनता पार्टी में शामिल हुए जनसंघ के सदस्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनता पार्टी के सदस्य बने रह सकते हैं. यह प्रासंगिक था क्योंकि जनता पार्टी ने जनसंघ नेताओं से इस शर्त पर हाथ मिलाया था कि वे अपनी आरएसएस सदस्यता छोड़ देंगे. 1979 में जनता पार्टी की सरकार गिर गई. लोकदल नेता चौधरी चरण सिंह कांग्रेस के समर्थन से पीएम बने.

जनता पार्टी से भारतीय जनता पार्टी

1980 के लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी को करारी हार का सामना करना पड़ा. इसके बाद जनता पार्टी की कार्यकारिणी बैठक में एक प्रस्ताव पारित किया गया, जिसमें जनता पार्टी में आरएसएस से संबंध रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया. इसके बाद जनसंघ से जनता पार्टी में आए नेताओं ने नयी राजनीतिक राह बनाई. 1980 तक जनता पार्टी में समाजवादियों और जनसंघ के सदस्यों की राहें अलग-अलग हो गईं. 6 अप्रैल 1980 को दिल्ली के फ़िरोज़ शाह कोटला मैदान में अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी और जनसंघ के अन्य नेताओं ने बीजेपी बनाने की घोषणा की.

बीजेपी के पहले अध्यक्ष बने अटल बिहारी वाजपेई

बीजेपी के संस्थापक सदस्य अटल बिहार वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, नानाजी देशमुख, केआर मलकानी, सिकंदर बख्त, विजय कुमार मल्होत्रा, विजय राजे सिंधिया, भैरो सिंह शेखावत, शांता कुमार, राम जेठमलानी और जगन्नाथ राव थे. अटल बिहारी वाजपेई बीजेपी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष बने थे.

बीजेपी ने कमल को चुनाव चिन्ह क्यों चुना?

जनसंघ का चुनाव चिन्ह ‘दीपक’ था, जबकि भाजपा का चुनाव चिन्ह ‘कमल’ का फूल बना. भाजपा संस्थापकों ने ‘कमल’ को चुनाव चिन्ह बनाया क्योंकि इस चिन्ह का प्रयोग पहले ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह करने के लिए किया जाता था. कमल के फूल को हिंदू परंपरा से भी जोड़कर देखा जाता है. कमल देश का राष्ट्रीय फूल भी है. कमल के फूल को चुनाव चिह्न बनाकर भाजपा ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद दोनों का चलन शुरू किया.

राम मंदिर आंदोलन से पहले बीजेपी

भाजपा ने 1984 का लोकसभा चुनाव अटल बिहारी वाजपेयी की अध्यक्षता में लड़ा, लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या से उपजी सहानुभूति के कारण उसे जनसंघ के पहले चुनाव की तुलना में एक सीट कम मिली. बीजेपी ने दो सीटें जीतीं. अटल बिहारी वाजपेयी चुनाव हार गए, जबकि लालकृष्ण आडवाणी ने चुनाव नहीं लड़ा. भाजपा के पहले दो सांसद गुजरात के मेहसाणा से एके पटेल और आंध्र प्रदेश की हनमकोंडा सीट से सी जंगा रेड्डी थे.

1986 में लालकृष्ण आडवाणी के बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद पार्टी एक नई राह पर चल पड़ी. साल 1989 तक राजीव गांधी सरकार बोफोर्स घोटाले में फंस गई थी. वहीं बीजेपी ने हिंदुत्व के एजेंडे पर आगे बढ़ने का फैसला किया था. जून 1989 के पालमपुर अधिवेशन में भाजपा ने पहली बार राम जन्मभूमि को मुक्त कराने और विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाने का प्रस्ताव पारित किया. बीजेपी ने राम मंदिर मुद्दे को अपने राजनीतिक एजेंडे में रखा और इसे अपने चुनावी घोषणा पत्र में भी शामिल किया.

1989 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जबरदस्त राजनीतिक लाभ मिला. भाजपा दो सांसदों से बढ़कर 85 सांसदों तक पहुंच गई. कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और वीपी सिंह देश के प्रधानमंत्री बने. बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दिया.

बीजेपी में अटल-आडवाणी युग

जब राम मंदिर मुद्दा बीजेपी के लिए संजीवनी साबित हुआ तो लालकृष्ण आडवाणी कट्टर हिंदुत्व का चेहरा बन गए. वीपी सिंह सरकार ने जैसे ही मंडल कमीशन लागू किया, इसके बाद से ही भाजपा ने राम मंदिर मुद्दे पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया. मंडल आयोग के बाद पिछड़े वर्गों की गोलबंदी का मुकाबला करने के लिए भाजपा ने लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राम मंदिर आंदोलन शुरू करने का फैसला किया.

तीन राज्यों में बीजेपी सरकार

लालकृष्ण आडवाणी के पार्टी अध्यक्ष रहते हुए भाजपा पहली बार राज्यों में सत्ता में आई. मार्च 1990 में भाजपा ने एक साथ तीन राज्यों में सरकारें बनाईं, जिनमें राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश शामिल थे. भैरों सिंह शेखावत राजस्थान के मुख्यमंत्री बने, सुंदर लाल पटवा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और शांता कुमार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री बने.

25 सितंबर 1990 को दीनदयाल उपाध्याय की जयंती पर बीजेपी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ से अयोध्या तक राम रथ यात्रा शुरू की थी. यात्रा में उनके साथ लाखों कारसेवक अयोध्या के लिए निकले थे. बीजेपी ने राम मंदिर मुद्दे पर घर-घर अभियान चलाने की योजना बनाई.

30 अक्टूबर को हजारों कार सेवक आडवाणी के साथ चलकर अयोध्या पहुंचे. 23 अक्टूबर 1990 को बिहार के समस्तीपुर में लालू यादव सरकार ने रथ यात्रा रोक दी और आडवाणी को हिरासत में ले लिया गया. लेकिन कार सेवकों ने अयोध्या कूच कर दिया. कथित तौर पर उत्तर प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में पुलिस ने कारसेवकों पर गोलियां चलाईं. कारसेवकों की हत्या के विरोध में बीजेपी ने वीपी सिंह सरकार के खिलाफ हल्ला बोला.

बीजेपी के पहले पीएम बने वाजपेयी

1991 में मुरली मनोहर जोशी बीजेपी के अध्यक्ष बने. 1991 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सीटें 85 से बढ़कर 120 हो गईं. राम मंदिर आंदोलन के चलते 1991 में यूपी में बीजेपी सत्ता में आई और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. 6 दिसंबर 1992 को कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद को ढहा दिया था. इसके चलते देश में सांप्रदायिक तनाव फैल गया और देश भर में कई हिंसक घटनाएं हुईं. इसके तहत आने वाले सभी चार राज्यों – यूपी, एमपी, राजस्थान और हिमाचल में बीजेपी सरकारें बर्खास्त कर दी गईं.

राम मंदिर आंदोलन के चलते बीजेपी का राजनीतिक ग्राफ लगातार बढ़ता गया. बाबरी विध्वंस के बाद बीजेपी को बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, गोवा और गुजरात में प्रमुखता मिली. 1996, 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. अटल बिहार वाजपेई पहले 13 दिन और फिर 13 महीने के लिए प्रधानमंत्री बने. वाजपेयी साढ़े चार साल तक देश के प्रधानमंत्री रहे क्योंकि बीजेपी ने छह महीने पहले ही चुनाव करा लिया था. 2004 के आम चुनाव में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा और 2014 तक वह केंद्र की सत्ता से बाहर हो गई.

2004 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को कांग्रेस के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा. 2009 के आम चुनाव में भी आडवाणी के नेतृत्व में बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा, जिसके बाद पार्टी में उनकी स्थिति लगातार कमजोर होती गई.

मोदी-शाह युग

2014 के आम चुनाव के लिए भाजपा ने गोवा में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को अपना चुनाव अभियान प्रमुख बनाया. चुनाव में पार्टी ने 282 सीटें जीतीं और केंद्र में सरकार बनाई. यहीं से भाजपा में एक नए युग की शुरुआत हुई…जिसे मोदी-शाह युग कहा जा सकता है. दोनों दिग्गज नेताओं के नेतृत्व में भाजपा ने कई राज्यों में सरकार बनाई. दिसंबर 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, “जब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं तो कांग्रेस की सरकार 18 राज्यों में थी, लेकिन जब हम सत्ता में हैं तो हमारी सरकार 19 राज्यों में है.”

रिपोर्ट के मुताबिक, मार्च 2018 तक बीजेपी ने 21 राज्यों में सरकार बना ली थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी 2014 के मुकाबले बड़े अंतर से जीत के साथ सत्ता में लौटी. इस चुनाव में बीजेपी ने 303 सीटें जीतीं. यह पहली बार था कि किसी गैर-कांग्रेसी पार्टी को लगातार बहुमत मिला.

 

 

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