Farmers Protest: 1500 ट्रैक्टर, 500 गाड़ियां 6 महीने का राशन, गद्दे और तमाम सुविधाओं से लैस किसान दिल्ली की ओर कूच कर रहे हैं. इसे किसान आंदोलन 2.0 का नाम दिया जा रहा है. यानी 2020 में तीन कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ चले लंबे दौर के आंदोलन का दूसरा पार्ट. लेकिन, इस बार इस आंदोलन से वे तमाम बड़े संगठन ग़ायब हैं जो तीन कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ मुहिम का अहम हिस्सा रहे थे. इनमें संयुक्त किसान मोर्चा (SKM) से जुड़े तमाम किसान नेता इस बार के आंदोलन से दूर हैं. पिछले आंदोलन के प्रमुख चेहरे न तो गुरनाम सिंह चढूनी इस बार शामिल हैं और न ही राकेश टिकैत. इन दोनों किसान नेताओं ने अपनी दूरी की बात पहले ही स्पष्ट कर दी है.
ऐसे में सवाल उठता है कि ये किसान संगठन कौन हैं और इनके पीछे की बैकिंग क्या है? बहरहाल, इस सवाल का कोई सत्यापित जवाब तो नहीं है. लेकिन, जिस तरह से राजनीतिक दलों ने इस आंदोलन को अपना समर्थन दिया है, उसे देख लगता है कि इस मुहिम के पीछे लोकसभा चुनाव एक बड़ा मसला है. पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और किसानों के दिल्ली मार्च पर इस राज्य में कोई भी अवरोध या सकारात्मक बातचीत की दशा और दिशा नहीं तय हुई. किसान हरियाणा में जैसे ही प्रवेश किए AAP के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने उनकी मुहिम को समर्थन देने का ऐलान कर दिया. वहीं, दूसरी ओर पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष अमरिंदर सिंह राजा वड़िंग ने घोषणा कर दी कि कांग्रेस आंदोलन कर रहे किसानों को ‘क़ानूनी मदद’ मुहैया कराएगी.
राहुल का ऐलान: लोकसभा चुनाव जीते तो एमएसपी पर बनाएंगे क़ानून
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी वैसे तो भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर हैं. लेकिन उन्होंने भी माहौल को भांपते हुए अपनी यात्रा छत्तीसगढ़ में स्थगित कर दी और दिल्ली के लिए रवाना हो गए. दिल्ली रवाना होने से पहले राहुल गांधी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए ऐलान किया कि यदि उनके गठबंधन की सरकार 2024 में बनती है तो वो एसएसपी पर क़ानून जरूर बनाएगी. उन्होंने भी आंदोलन कर रहे किसानों को समर्थन देने की बात कही.
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशें क्या सिर्फ़ चुनावी मुद्दा हैं?
वैसे समझना होगा कि कृषि रिफॉर्म को लेकर बने स्वामीनाथन आयोग ने अपनी पांचों सिफ़ारिशें 2004 से लेकर 2006 के बीच तत्कालीन यूपीए सरकार को भेज दी थीं. इसमें फसलों की एमएसपी पर क़ानून बनाने का भी सुझाव शामिल था. तब 2006 से लेकर 2014 तक कांग्रेस की नेतृत्व वाली यूपीए ही सत्ता में रही. ऐसे में सवाल उठता है कि तब कांग्रेस ने आयोग की सिफ़ारिशों को लागू क्यों नहीं किया. जब बीजेपी भी विपक्ष में थी तब वह भी इसे लागू कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाती थी. लेकिन, सत्ता में आने के बाद उसकी ओर से भी टाल-मटोल देखा गया. बहरहाल, राहुल गांधी के वादे के पीछे उनकी ख़ुद की सरकार का एक लंबा कार्यकाल कई प्रश्न खड़े करता है.
किसान आंदोलन या लोकसभा चुनाव की स्क्रिप्ट?
लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र किसान आंदोलन को अधिकांश लोग मोदी सरकार पर एक दबाव की रणनीति के रूप में देख रहे हैं. लेकिन, कांग्रेस और AAP जैसे विपक्षी दलों के समर्थन को देखते हुए क़यास कुछ और भी लगने लगे हैं. मसलन, कहीं इस आंदोलन की स्क्रिप्ट राजनीतिक दलों ने तो नहीं लिखी है? जिस तरह से 2011 में अन्ना आंदोलन तत्कालीन सरकार के ख़िलाफ़ एक बड़ी मुहिम साबित हुआ था, उसी तर्ज़ पर इस आंदोलन को भी सरकार के ख़िलाफ़ हवा देने के लिए इस्तेमाल में लाया जा रहा हो. क्योंकि, इस आंदोलन की जड़ में किसानों की वो मांगें हैं, जिनकी पृष्ठभूमि में 2020 के आंदोलन में छिपी है.
तब इस आंदोलन को ‘संयुक्त किसान मोर्चा’ के तहत जुड़े किसान संगठन और इनके नेताओं ने लीड किया था. तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने के समझौते के दौरान ही एमएसपी को लेकर भी सहमति बनाने की बात कही गई. हालाँकि, तब इसको लेकर कोई डेडलाइन नहीं दिया गया. इस आंदोलन के दौरान लखीमपुर खीरी का कांड हुआ जब किसानों पर केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र के बेटे आशीष मिश्र ने प्रदर्शन कर रहे किसानों के ऊपर कथित रूप से अपनी गाड़ी चढ़ा दी थी. इस घटना में 8 किसानों की मौत हुई थी. लेकिन, इस बार दिल्ली कूच कर रहे किसानों के साथ बातचीत के टेबल पर पुराने किसान नेता नज़र नहीं आए. सवाल ये है कि जिन किसान नेताओं के साथ बातचीत का पुराना ढर्रा तैयार हुआ, वो इस आंदोलन से क्यों नहीं जुड़ रहे हैं.
किसानों की क्या हैं मांगें
इस बार किसानों के प्रदर्शन की अगुवाई पंजाब किसान मज़दूर संघर्ष समिति के महासचिव सरवन सिंह पंढेर कर रहे हैं. उन्होंने दावा किया है कि शंभू बॉर्डर पर उनके साथ 10 हज़ार किसान मौजूद हैं. उनका कहना है कि अगर सरकार उनकी माँगे नहीं मानती है तो आंदोलन और बड़ा होगा. उनकी प्रमुख मांगे नीचे लिखी हैं-
1. किसानों की मांग में सबसे अहम MSP के लिए क़ानून बनाने की है
2. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करे सरकार
3. लखीमपुर खीरी हिंसा में मारे लोगों को पीड़ित परिवार को न्याय
4. विश्व बाज़ार संगठन (WTO) से भारत को बाहर निकाला जाए
5. किसानों के ऋण माफ़ किए जाएं
6. फल, दूध, सब्ज़ियों समेत कृषि उत्पादों पर आयात शुल्क कम किया जाए
7. 58 साल से अधिक आयु के किसानों को 10 हज़ार रुपये प्रति माह दिया जाए पेंशन
8. भूमि अधिग्रहण के संबंध में राज्य सरकारों को केंद्र की ओर से दिए गए निर्देशों को रद्द किया जाए
MSP पर क़ानून बनाने से क्यों कतराती रही हैं सरकारें?
स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिशों के तहत फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) को लागू करने से पूर्व की सरकारें कतराती रही हैं. इसमें यूपीए की सरकार भी शामिल है. इसकी वजह साफ़ है कि इसका आर्थिक बोझ देश पर काफ़ी ज़्यादा आएगा. देश की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ महंगाई के मोर्चे पर भी गंभीर परिणाम देखे जा सकते हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ अगर फसलों पर एमएसपी की गारंटी वाला क़ानून लागू होता है तो सरकार पर 10 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ वहन करना पड़ेगा. यही वजह है कि इस पर क़ानून बनाने से सरकारें कतराती रही हैं.
फ़िलहाल, केंद्र सरकार 24 फसलों पर एमएसपी मुहैया कराती है. गौर करने वाली बात ये है कि वित्त वर्ष 2020 में MSP पर ख़रीदी गईं फसलों की कुल लागत 2.5 लाख करोड़ रुपये के क़रीब थी. यह कुल कृषि उपज का महज़ 6.25 फ़ीसदी था. ऐसे में सभी दल इस पक्ष के तार्किक और पैक्टिकल पेचीदगियों को समझते हैं. लेकिन, राजनीतिक सरगर्मी बनाए रखने के लिए अपनी सुविधा के मुताबिक़ इसका राग अक्सर हर दल द्वारा आलापा जाता रहा है.