Lok Sabha Election 2024: लोकसभा चुनाव के जनादेश में जातीय राजनीति की साफ़ झलक दिखी है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारतीय राजनीति में ‘मंडल युग’ की वापसी हो चुकी है? क्योंकि, जिस तरह से उत्तर प्रदेश और बिहार में हर सीट पर जाति आधारित ध्रुवीकरण देखा गया है, उससे यही लग रहा है कि एक दशक बाद फिर से यूपी में जाति आधारित सियासत ने पैर जमा लिया है. हिंदुत्व की लहर पर सवार बीजेपी को काउंटर करने में समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव की PDA यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक की रणनीति पूरी तरह कामयाब रही है. ऊपर से युवाओं के भीतर पेपर-लीक और भर्तियों के कैंसिल होने का रोष अलग था, जो उन्हें कास्ट-लाइन से बाहर जाकर वोट करने के लिए प्रेरित किया. कुल मिलाकर अखिलेश यादव की रणनीति में यूपी का युवा वर्ग एक बोनस की तरह मिला.
जातियों की जहां तक बात है तो इसके संकेत अधिकांश सीटों पर देखने को मिलेगा. पश्चिमी यूपी से लेकर पूर्वी यूपी की सीटों पर जातीय राजनीति का बोलबाला देखा. हां, यह कहा जा सकता है कि सब कुछ स्पष्ट नहीं था लेकिन भीतर खाने बड़े स्तर पर ‘खेला’ हो रहा था. उदाहरण के तौर पर मुजफ्फरनगर की सीट से बीजेपी प्रत्याशी संजीव बालियान की हार जातिगत ध्रुवीकरण के चलते मानी जा रही है. यहां पर राजपूत वोटरों ने सारा खेल बिगाड़ दिया.
अंदरखाने की ख़बर ये है कि बीजेपी नेता संगीत सोम राजपूत बिरादरी से आते हैं और उनकी बालियान के साथ नाराजगी जगजाहिर है. जब मुजफ्फरनगर का मतदान हुआ था, तब सोम ने बयान दिया कि जनता ने अपना काम कर दिया है. मुजफ्फरनगर की सियासत को समझने वालों ने इस बयान का सीधा नहीं बल्कि घुमावदार मतलब निकाला और यह मान लिया कि मतदाताओं का एक वर्ग संजीव बालियान से कट गया है.
वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में बीजेपी की प्रासंगिकता वाली रही सही कसर भी ख़त्म हो गई. वाराणसी की सीट पर पीएम मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय चार राउंड की काउंटिंग तक आगे चले और क्षेत्र में यही चर्चा का विषय बन गया. पूर्वांचल में बीजेपी की हार से ज़्यादा वाराणसी की सीट पर पीएम मोदी के जीत का अंतर कम होने की चर्चा ख़ासा सनसनीख़ेज़ रही.
अजय राय ने तो इस परिस्थिति को ही अपनी जीत के रूप में दिखाना शुरू कर दिया है. मीडिया में बयान देते हुए अजय राय ने पीएम मोदी की जीत के अंतर पर तंज कसा. उन्होंने कहा, “पीएम मोदी के लिए सीएम से लेकर पार्षद तक प्रचार कर रहे थे. इसके बावजूद वह 3 घंटे तक पीछे चल रहे थे. डेढ़ लाख के अंतर से जीतना भी उनके लिए कठिन हो गया था.”
जातिगत समीकरण किस तरह हिट हुआ इसके लिए बलिया की सीट भी काफ़ी अहम रही है. 2014 से मोदी के नाम पर बलिया की सीट बीजेपी की झोली में जा रही थी. लेकिन, इस बार कास्ट-फैक्टर ऐसा हावी हुआ कि यहां से सपा के उम्मीदवार सनातन पांडे आखिरकार बीजेपी के नीरज शेखर के खिलाफ चुनाव जीत गए. इसमें कोई संदेह नहीं कि सनातन पांडेय की जीत में उनका ब्राह्मण होना अहम कारण है. बलिया की लड़ाई राजपूत बनाम ब्राह्मण हो गई.
पब्लिक के इसी नब्ज को समझते हुए अखिलेश यादव ने सनातन पांडेय को ही टिकट दिया था. पहले से इस सीट पर यादवों की संख्या काफ़ी थी ऊपर से मुस्लिम और अन्य पिछड़ी जातियों के साथ आने से सनातन पांडेय मजबूत हो गए. 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार वीरेंद्र सिंह मस्त के साथ भी सनातन पांडेय की टक्कर की चर्चा खूब रही. इस दौरान पांडेय तकरीबन 15 हज़ार वोटों के अंतर से हार गए थे. लेकिन, इस बार बाजी पलटने में कामयाब रहे और पूर्व पीएम चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर को 41,658 वोटों के अंतर से पटखनी दे दी.
जातीय जोड़तोड़ का सबसे बड़ा उदाहरण तो अयोध्या है. यहां के बीजेपी प्रत्याशी लल्लू सिंह की स्थिति शुरू से ही डावांडोल हो चुकी थी. राजनीतिक पंडितों को अनुमान था कि ‘राम मंदिर’ के निर्माण से हिंदुत्व की आंधी और मजबूत होगी और यूपी समेत देश के बाकी हिस्सों में अपना प्रभाव दिखाएगी. लेकिन, यहां तो अयोध्या में ही बीजेपी प्रत्याशी लल्लू सिंह को सपा के अवधेश प्रसाद से 54,567 वोटों के अंतर से हार का मुंह देखना पड़ा. अयोध्या की सीट वैसे तो सामान्य है लेकिन यहां पर दलित में पासी जाति की संख्या काफी ज्यादा है. अखिलेश यादव ने जाति से पासी उम्मीदवार अवधेश प्रसाद को उम्मीदवार बनाया. दलित उम्मीदवार को खड़ा होने के बाद सपा के कैंपेन में अलग धार दिखी. नारा दिया गया, ‘अयोध्या में न मथुरा न काशी, सिर्फ़ अवधेश पासी.’ माना जा रहा है कि PDA के नारे के चलते न सिर्फ़ दलित बल्कि कुर्मी समेत दूसरी पिछड़ी जातियां भी गोलबंद हुईं और यह सीट सपा के खाते में चली गई.
यूपी के डेंट ने ही बीजेपी को बहुमत के आंकड़े से दूर कर दिया. चुनाव के इस नतीजे ने ‘मंडल’ वाली सियासत को फिर से हवा दे दी है. यानी इंडिया ब्लॉक के नेता जिस जातीय जनगणना की मांग कर रहे थे, ज़ाहिर है उस मांग का आकार और ज़्यादा बड़ा और प्रचंड होने वाला है. ‘संख्या के बराबरी हिस्सेदारी’ की मांग Modi 3.0 के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. साथ ही आगामी वर्षों में बिहार विधानसभा चुनाव में एक कड़ा संघर्ष देखने को मिलेगा.