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गन्ना, गंडक और गुंडा… तीन समस्याओं का गढ़, जानें 3 CM देने वाली गोपालगंज सीट का क्या है समीकरण

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प्रतीकात्मक तस्वीर

Gopalganj Lok Sabha Seat: इन दिनों ‘NDA बनाम INDIA’ की सियासत और लोकसभा चुनाव हॉट टॉपीक है. इसके लिए राष्ट्रीय पार्टी से लेकर क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों ने सियासी ज़मीन मज़बूत करने के लिए बूथ लेवल तक मेहनत शुरू कर दी है. वहीं बिहार में भी लोकसभा चुनाव की तैयारी तेज है. इसी क्रम में लोकसभा सीटों को लेकर भी सियासी चर्चा तेज़ हो गई है. हालांकि, बिहार में अभी तक किसी भी सियासी दलों के बीच सीट शेयरिंग का फॉर्मूला तय नहीं हो सका है. कहा जा रहा है कि जल्द ही बिहार में प्रत्याशियों के नामों का ऐलान किया जा सकता है.

इस चुनावी चर्चा के बीच हम आपको बिहार के गोपालगंज लोकसभा सीट का सियासी इतिहास और समीकरण बताने जा रहे हैं. गोपालगंज लोकसभा सीट का इतिहास काफी दिलचस्प रहा है, यहा कभी कांग्रेस, कभी राजद तो कभी भाजपा के उम्मीदवारों ने पार्टी का परचम लहराया है.

गोपालगंज का इतिहास

इस सीट का इतिहास रहा है कि साल 1980 के बाद से इस सीट का इतिहास रहा है कि कोई भी उम्मीदवार यहां से दोबारा सांसद नहीं चुना गया. सियासी जानकारों ने बताया कि इंदिरा गांधी के मर्डर के बाद कांग्रेस के लिए देश भर में साहनुभूति की लहर थी. इसके बाद गोपालगंज लोकसभा सीट से कांग्रेस जीत दर्ज नहीं कर पाई. बिहार के 40 लोकसभा सीटों में एक गोपालगंज उत्तर प्रदेश के देवरिया और कुशीनगर जिले की सीमा से लगा हुआ है. गंडक नदी के किनारे बसे गोपालगंज की पूरी अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर है. लोकसभा चुनाव 2009 से यह गोपालगंज सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. गन्ना की खेती के लिए मशहूर गोपालगंज लोकसभा क्षेत्र कांग्रेस का मजबूत गढ़ रहा है.

बता दें कि बिहार में लोकसभा की कुल 40 सीटें हैं, इनमें से एक है गोपालगंज. राजद सुप्रीमो लालू यादव का यह होम ग्राउंड है. गोपालगंज यूपी के देवरिया और कुशीनगर से सटा हुआ है. साल 2009 के लोकसभा चुनाव से यह सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. गन्ना की खेती के लिए मशहूर गोपालगंज लोकसभा सीट कभी कांग्रेस का किला रहा है. जी हां, यह बिल्कुल सच है. देश के पहले लोकसभा चुनाव (1952) से लेकर साल 1980 तक यहां से कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे. 1952 और 1957 में दो बार कांग्रेस के सैयद महमूद और 1962 से 1977 तक लगातार चार बार कांग्रेस के द्वारिकानाथ तिवारी सांसद चुने गए. इसके बाद 1980 में कांग्रेस के नगीना राय सांसद बने. हालांकि, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में सहानुभूति लहर के बावजूद कांग्रेस गोपालगंज सीट नहीं जीत सकी थी.

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लालू भी नहीं बदल पाए तस्वीर

पूर्व मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर, लालू प्रसाद यादव और राबड़ी देवी का गृह जिला गोपालगंज को 6 विधानसभा को जोड़कर एक लोकसभा सीट बनाया गया है. हैरत की बात ये है कि क्राइम के लिए मशहूर गोपालगंज सीट से आज तक किसी भी महिला को जीत हासिल नहीं हुई है.

इसी गोपालगंज के लालू यादव का बिहार ही नहीं देश की राजनीति पर दखल रहा है. बिहार में मुख्यमंत्री और केन्द्र में मंत्री रहने के बाद भी लालू ने इस जिले का उतना विकास नहीं किया जितना करना चाहिए था. स्थानीय लोगों का कहना है कि लालू एंड फैमिली ने सिर्फ फुलवरिया पर ध्यान दिया. फुलवरिया तक रेलवे लाइन पहुंची. सड़क और अस्पताल बने लेकिन जिले के दूसरे हिस्से विकास की दौड़ में काफी पिछड़ गए. साल 2024 के लोकसभा चुनाव में लोगों को उम्मीद है कि यहां कुछ विकास हो सके.

2019 लोकसभा चुनाव के नतीजे

गोपालगंज बिहार की एक ऐसी लोकसभा सीट है, जो अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है. यहां साक्षरता दर 65.47% के करीब है. 2014 के डेटा के मुताबिक यहां 8,71,590 पुरुष और 7,83,212 महिला मतदाता हैं. यहां अनुसूचित जाति की आबादी 12.49% और अनुसूचित जनजाति की आबादी 2.37% के करीब है.

2014 के चुनाव में इस सीट पर INC को हराकर NDA के प्रत्याशी जनक राम विजयी हुए थे. कुल मतों 9,03,583 में से 4,78,773 मत हासिल कर BJP ने जीत दर्ज की थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में कुल 54.60% मतदाताओं ने मतदान किया था. 2009 लोकसभा चुनाव में JDU ने इस सीट पर जीत दर्ज की थी.

जातीय समीकरण

गंडक, गन्ना और गुंडे की समस्या से जूझ रहे गोपालगंज सीट पर स्थानीय मुद्दों के साथ-साथ जातीय समीकरण भी हमेशा से हावी रहा है. इस सीट पर जातीय समीकरण की बात करें तो मुस्लिम, यादव के अलावा राजपूत, ब्राह्मण और भूमिहार जाति के वोटरों का दबदबा है. वैश्य, कुर्मी, कुशवाहा और महादलित वोटर गोलबंदी चुनाव में निर्णायक भूमिका अदा करती है ऐसे में अब देखना होगा कि इस बार बार गोपालगंज के जंग में कौन बाजी मारता है.

 

 

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