Bastar news: “हमें लगता है कि अब धर्मांतरण को लेकर हमें मारा नहीं जाएगा, क्योंकि जो मारने वाले थे वो अब सरकार में हैं.” ये कहना था छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले के रहने वाले एक 57 वर्षीय ईसाई आदिवासी का, जिनके साथ कथित तौर पर पिछले वर्ष 2022 में मारपीट हुई थी. पिछले साल यहां ईसाई धर्म अपनाने वाले आदिवासियों पर कई हमले किए गए. लेकिन बस्तर में ये धर्मांतरण का मुद्दा गरमाया कैसे? मौजूदा परिस्थितियों ने कैसे बस्तर के जीवन को प्रभावित किया है?
ईसाई मिशनरियों की उपस्थिति का इतिहास बस्तर में काफी अस्पष्ट है. चूंकि यह भारतीय उपमहाद्वीप का एक कम विचारित और अलग-थलग कोना था, ब्रिटिश आक्रमण के काल तक यह ईसाई मिशनरियों के लिए अगम्य बना रहा. वर्ष 1880 के आसपास बस्तर क्षेत्र में ईसाई मिशनरियों और उनकी गतिविधियों का उल्लेख मिलता है. एक अमेरिकी चार्ल्स बी. वार्ड, बस्तर के पहले मिशनरी थे. उनके आगमन के बाद हमें बस्तर में विभिन्न ईसाई संप्रदायों का प्रभाव देखने को मिलता है. लेकिन ये बस्तर के कुछ अंचलों तक सीमित और बहुत कम पाए जाते हैं. बस्तर के सबसे पुराने लाल चर्च (जगदलपुर) की नींव लगभग 1890 के आस पास रखी गई थी.
2020 में छत्तीसगढ़ के गठन के बाद वो आदिवासी जो ईसाई धर्म अपना चुके हैं और वो जो अपने मूल धर्म में ही हैं, उनके बीच में कभी-कभार झगड़ों की आहट मिलती रहती थी. लेकिन इन झगड़ों ने कभी दंगों का या टारगेटेड हिंसा का रूप नहीं लिया. लेकिन पिछले वर्ष जुलाई-अगस्त 2022 के आसपास ईसाई आदिवासी और आदिवासियों के बीच इस झगड़े की खाई अचानक से बढ़ गई. एकाएक बस्तर संभाग के कई हिस्सों में ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों पर अत्याचार की खबरें आने लगीं. बस्तर के कई गांवों से ईसाई आदिवासियों को उनके घरों से निकाल दिया गया, गांव से भगा दिया गया और कई जगह तो महिलाओं और बच्चों के साथ भी मारपीट की गई.
रेमावंड गांव की रहने वाली बुदनी कोर्राम ने बताया, “मुझे ईसाई धर्म अपनाए हुए 20 साल से अधिक हो गए हैं. मेरे धर्म परिवर्तन के शुरुआती दिनों में कुछ नोकझोंक होती थी लेकिन चर्च जाने पर हमें कभी नहीं पीटा गया. इस बार मगर मामला अलग था. ग्रामीण खून-खराबा करने पर उतारू थे. उन्हें उकसाया गया था, झूठी बातें फैलाई गईं और हम पर हमला करने के लिए उकसाया गया था. तमाम कोशिशों और मिन्नतों के बाद भी तत्कालीन सरकार ने कुछ नहीं किया. तत्कालीन सरकार हमारे बचाव में नहीं आई.”
बस्तर में आदिवासी ईसाइयों और उनकी संपत्तियों पर हमलों में भी अचानक तेजी देखी गई. कई मौकों पर ईसाई आदिवासियों को अपने मृतकों को उनके गांव में दफनाने की अनुमति भी नहीं दी. लेकिन धर्मांतरण विवाद की कड़ी का पहला पड़ाव क्या था?
बस्तर में धर्मपरिवर्तन का मुद्दा केंद्र में कैसे आया?
दरअसल कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद और भूपेश बघेल के मुख्यमंत्री कार्यकाल में सुकमा एसपी सुनील शर्मा ने एक आधिकारिक निर्देश जारी किया था, जिसके बाद विवाद छिड़ गया. 12 जुलाई, 2022 को सुकमा एसपी सुनील शर्मा ने एक आधिकारिक निर्देश जारी किया, जिसमें सभी पुलिस स्टेशनों को ‘जबरन धर्म परिवर्तन’ को रोकने के लिए ईसाई मिशनरियों और हाल ही में धर्मांतरित लोगों पर नजर रखने का आदेश दिया गया था. इसके बाद के महीनों में नारायणपुर में गांवों और ईसाई बने ट्राइबल्स के बीच जबरदस्त झड़पें हुईं .
अपने ही घरों से हटाए गए ईसाई ट्राइबल्स 10 दिसंबर 2022 को नारायणपुर जिला मुख्यालय पहुंचे. उन्होंने जिला कलेक्टर से गुहार लगाई. स्थानीय प्रशासन ने फौरी तौर पर उनके रहने का इंतजाम किया. नारायणपुर इंडोर स्टेडियम में इन परिवारों के रहने का इंतजाम हुआ.
इसी प्रक्रिया में जनवरी 2023 में नारायणपुर में एक बड़ी हिंसक वारदात हुई. 2 जनवरी 2023 को दक्षिणपंथी गुटों ने एक विरोध रैली नारायणपुर में आयोजित की. इसमें बीजेपी भी शामिल थी. इस रैली में नारायणपुर, कोंडागांव, अंतागढ़, और केशकल से गैर ईसाई ट्राइबल्स हजारों की संख्या में जुटे. रैली में BJP के जिला यूनिट के नेता और दूसरे स्थानीय नेता भी आए. लोगों की ये भीड़ जल्द ही बेकाबू हो गई. भीड़ ने SP सदानंद कुमार पर हमला कर दिया और उनका सिर फोड़ दिया. चर्च में तोड़फोड़ की गई, देखते ही देखते नारायणपुर की सड़कों पर अफरातफरी मच गई. आदिवासियों और ईसाई धर्म अपनाने वालों के बीच टकराव उत्तरी छत्तीसगढ़ में आम था, लेकिन पिछले वर्ष जो घटना बस्तर में हुई वो एक झटके की तरह था, जहां 130 साल पहले जगदलपुर में पहला चर्च बनाया गया था.
जिला मुख्यालय से ही 15 किलोमीटर दूर गोर्रा गांव में ही दिसंबर 2022 में एक बड़ी घटना घटी. नारायणपुर ममें स्थित गोर्रा गांव में पिछले एक दशक में करीब 200 से ज्यादा निवासियों ने ईसाई धर्म को अपना लिया. इसने गोंड आदिवासी बहुल इलाकों में बड़ा विभाजन पैदा कर दिया. अपनी आबादी में बदलाव से परेशान गांव वालों ने 31 दिसंबर को 2022 को एक सभा की. इन्होंने ईसाई धर्म अपना चुके गांव के उन लोगों से फिर से अपने धर्म और रिवाज वापस अपनाने को कहा. आदिवासी ईसाईयों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया. इसकी वजह से इन दो ग्रुपों में छोटे-मोटे कुछ टकराव भी हुए. 33 साल के अंकालु राम करंगा और उनकी पत्नी और चार बच्चे उन सैकड़ों परिवारों में से थे, जिन्हें दिसंबर में ईसाई विरोधी घटनाओं में अचानक वृद्धि के बाद उनके गांवों से बेदखल कर दिया गया और नारायणपुर के एक इनडोर स्टेडियम में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा. इसी के कुछ दिन बाद नारायणपुर में चर्च पर हमला हो गया.
छत्तीसगढ़ के नारायणपुर जिले में आदिवासी ईसाई अपने गांव लौट आए हैं. हालांकि, उनका कहना है कि चीजें पहले जैसी नहीं हैं क्योंकि वे अब डर में रहते हैं. हाल ही में खत्म हुए विधानसभा चुनावों के दौरान सीएम भूपेश बघेल की जनसभा से लौट रही आदिवासी महिलाओं ने कहा था कि वे सभी रैलियों में शामिल होती हैं, लेकिन अपने समुदाय के रुझान और अपने बुजुर्गों की सलाह पर वोट करेंगी. उनका कहना था कि सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार ने आदिवासी ईसाइयों को उस समय बेसहारा छोड़ दिया, जब उनके समुदाय के सैकड़ों सदस्यों पर उनकी आस्था को लेकर पूरे बस्तर में हमला किया जा रहा था.
कांग्रेस के लिए गले का फांस, भाजपा के लिए पोलराइजेशन का मैदान!
रायपुर में एक कांग्रेस नेता कहते हैं कि पार्टी ट्राइबल्स की बड़ी आबादी को नाराज नहीं करना चाहती थी और इस कारण उन्होंने धर्मांतरण के मुद्दे पर न्यूट्रल बने रहना बेहतर स्ट्रेटजी लगी. उनका कहना था, “कोई भी पार्टी कुछ थोड़े से वोटों के लिए अपने बहुमत वोटों को जोखिम में नहीं डालेगी और कांग्रेस भी ऐसा नहीं करेगी. हम सभी समूहों के प्रति सहानुभूति रखते हैं लेकिन हम कुछ वोटों के लिए बहुसंख्यक समुदाय के सदस्यों को नाराज नहीं करना चाहते थे, हमें लगा कि यह बेहतर स्ट्रेटजी है.”
दरअसल, कांग्रेस के लिए धर्मांतरण का विषय गले की फांस बन गया था जो न कि उगलते बन रहा था न निगलते. अगर वो ईसाई आदिवासियों के साथ खड़े होकर उन पर हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध कड़ी प्रशासनिक कारवाई करते. तो बहुतायत आदिवासी समुदाय (गैर ईसाई) कांग्रेस से नाराज़ हो सकता था. इस कारण कांग्रेस ने न इधर की राह पकड़ी न उधर की. हालांकि इसका भी कांग्रेस को भारी खामियाजा भुगतना पड़ा. कांग्रेस को बस्तर की 12 सीटों में से 8 सीटों पर हार का मुंह देखना पड़ा ,जिसमे इनके मौजूदा प्रदेश अध्यक्ष दीपक बैज और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम की हार भी शामिल है. वहीं दूसरी तरफ, हिंदुत्ववादी संगठनों का भी एनिमिस्ट आदिवासियों का ‘हिंदूकरण’ करने की कोशिश करने का भी इतिहास रहा है.
इस मामले में उनका दृष्टिकोण आदिवासी मान्यताओं को चुनौती देने का नहीं बल्कि ईसाई और गैर-ईसाई आदिवासियों के बीच तनाव को बढ़ावा देकर बहुतायत आदिवासी संख्या को हिंदू धर्म में किसी न किसी तरह से सम्मिलित करने का है. इनमें से कई संगठन इस तर्क को भी आगे बढ़ाते हैं कि हिंदू धर्म ईसाई धर्म की तुलना में आदिवासी जीववादी मान्यताओं के साथ अधिक तालमेल में है.
आखिर दोनों गुट क्यों कांग्रेस सरकार से नाराज थे?
ईसाई आदिवासियों के खिलाफ इस तरह की घटनाएं कोंडागांव, कांकेर, बीजापुर और सुकमा में भी घटी. इस वजह से राज्य सरकार काफी मुश्किल हालत में फंस गई थी. 64 साल के अमलू डुग्गा नारायणपुर के एडका गांव में देवगुडी मंदिर के पास आई लोगों की भीड़ से जोर-जोर से कहते हैं, ‘अलग-अलग हो जाओगे तो…’. यहां पर डुग्गा इसी धर्मपरिवर्तन का हवाला दे रहे थे, जिसकी वजह से कथित तौर पर आदिवासियों में अलगाव या आपसी दूरियां बढ़ रही हैं.
एडका देवगुड़ी (मंदिर स्थल) पर एकत्र हुए बहुसंख्यक गैर-धर्मांतरित आदिवासियों के सदस्यों ने राय दी कि समुदाय को आदिवासी ईसाइयों के खिलाफ उनके विरोध का समर्थन करने वाले उम्मीदवार को वोट देना चाहिए. उन्होंने कहा, “इस बार कोई हमारे लिए लड़ रहा है. कोई आदिवासी की परंपरा और संस्कृति के लिए लड़ रहा है .. हमें इसे समझना चाहिए और उनके लिए वोट करना चाहिए”. यहां जिस ‘कोई’ का हवाला डुग्गा दे रहे हैं, वो कोई और नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी है. एडका गांव के 26 वर्षीय संतलाल कुमेटी ने बीजेपी नेता केदार कश्यप को अपना समर्थन दिया था जिन्होंने इस बार कांग्रेस के प्रत्याशी को बडे़ वोटों के अंतर से हराया था.
संतलाल कुमेटी ने कहा, “पिछली सरकार ने हमारी सुध नहीं ली. आदिवासी रीति-रिवाजों और परंपराओं को बहाल करने के हमारे प्रयास में हमारा समर्थन नहीं किया. इसके बजाय उन्होंने ईसाइयों का पक्ष लिया, हम किसी ऐसे व्यक्ति को वोट क्यों देते, जो आदिवासी समुदाय के भीतर विभाजन का समर्थन कर रहा था?”
BJP को क्यों बढ़त मिल गई?
धर्मांतरण मुद्दे का असर नारायणपुर की सीमा से लगे कम से कम चार अन्य विधानसभा क्षेत्रों, अंतागढ़, कोंडागांव और केशकाल और चित्रकोट में दिखाई दे रहा था. कोंडागांव, जिसका प्रतिनिधित्व 2013 से कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम करते रहे हैं, वे भी कड़ी टक्कर के लिए तैयार थे. 2013 में मरकाम ने बीजेपी की लता उसेंडी को लगभग 5,000 वोटों के अंतर से हराया था, जबकि बीजेपी सरकार के खिलाफ मजबूत सत्ता विरोधी लहर के बावजूद, 2018 के चुनावों में यह अंतर घटकर 1700 वोटों पर आ गया था. इस बार मोहन मरकाम अपनी सीट नहीं बचा पाए.
कोंडागांव निवासी सुनीता मरकाम ने दावा किया कि स्थानीय लोग अपने विधायक मरकाम के अस्पष्ट रुख और अन्य कारणों से नाखुश हैं. यहां तक कि पानी की कमी जैसे स्थानीय मुद्दे पर भी विधायक से नाराजगी है. उनका कहना था, “जब हमारे लोगों और ईसाई धर्म अपनाने वालों के बीच यह सारी लड़ाई छिड़ गई, तो मोहन मरकाम ने यह साफ नहीं किया कि वह किस पक्ष में थे. अब उन्होंने दोनों पक्षों के लोगों को नाराज कर दिया है. हम उम्मीद करते हैं कि हमारे नेता स्पष्ट रुख और सच्चाई के साथ एकजुट होंगे. उन्हें हमारे साथ खड़ा होना चाहिए था, न कि उन लोगों के साथ जो आदिवासी जीवन शैली को तोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, इसलिए इस बार हमने भाजपा को वोट दिया था.”
पूर्व प्रदेश अध्यक्ष मोहन मरकाम ने मीडिया से चुनाव के पहले कहा था कि बीजेपी भले ही धर्मांतरण को बड़ा मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है, लेकिन इसका ज्यादा असर नहीं होगा. मरकाम ने कहा था, “हमने विकास पर कड़ी मेहनत की है और 2018 के घोषणापत्र के अपने सभी वादे पूरे किए हैं. हम फिर से किसानों का कर्ज माफ करेंगे और हम सरकार बनाएंगे.” हालांकि, एक स्थानीय पादरी ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए बताया कि ईसाई समुदाय मरकाम को नहीं बल्कि ईसाई उम्मीदवार को वोट देगा क्योंकि अगर उनके समुदाय के भीतर से प्रतिनिधित्व होता तो वे अधिक सुरक्षित महसूस करते.
चुनावी नतीजे ये स्पष्ट करते हैं कि ईसाई आदिवासी और आदिवासियों के बीच के झगड़े से भाजपा को बड़ा फायदा हुआ है. भाजपा गैर ईसाई आदिवासी समुदाय को संगठित करने में सक्षम रही और भाजपा को बस्तर में एक निर्णायक जीत हासिल हुई. बीजेपी बहुसंख्यक गैर-ईसाई जनजातियों के बीच यह धारणा फैलाने में सफल रही कि कांग्रेस उनके खिलाफ है और धर्म परिवर्तन करने वालों के साथ है, जबकि कांग्रेस जितना संभव हो सके, इस मुद्दे से दूर रहने की कोशिश कर रही थी.
तर्रेपाल गांव के 42 वर्षीय बुधराम वड्डे ने कहा, “कांग्रेस सरकार ने ईसाइयों की मदद की, न कि उनकी जो समुदाय को एक साथ रखने की कोशिश कर रहे हैं. हम बीजेपी को वोट देंगे क्योंकि वे हमारी लड़ाई लड़ रहे हैं.” छत्तीसगढ़ के बस्तर में बीजेपी और कांग्रेस के बीच कड़ी टक्कर दिख रही थी. साथ ही सर्व आदिवासी समाज, CPI और सर्व आदि समाज ने मैदान में अपनी दावेदारी खड़ी करके चुनावों को रोचक बनाने की कोशिश की थी. हालांकि नतीजों से यह जाहिर है कि धर्मांतरण के मुद्दे को हवा देने से भाजपा को फायदा हुआ है.
बस्तर के एक वरिष्ठ पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पे कहा कि बस्तर में अब धर्मांतरण का मुद्दा ठंडा पड़ जाएगा. इसके पीछे उन्होंने तर्क दिया, “देखिए धर्मांतरण का मामला बस्तर के लिए कोई बड़ा मामला नहीं था. कुछ जगहों पर यह सामाजिक मामला है. लेकिन इसको बड़ा बनाया गया ताकि बस्तर में कांग्रेस और सीपीआई को जाने वाला वोट भले ही ना सध पाए लेकिन जो गैर ईसाई आदिवासी जनसंख्या है वो एकजुट हो जाए. संस्कृति, रीति रिवाज और आदिवासी सभ्यता के खत्म हो जाने के डर को यहां के भोले-भाले आदिवासियों के दिल में बैठा दिया गया है. यही कारण है कि चुनावी नतीजे ऐसे रहे. अब लेकिन भाजपा को इस मुद्दे पर लगे रहने की जरूरत नहीं है. अब सरकार है तो शांति बनी रहे यही प्राथमिकता होगी”.