Tribal Divorce Laws: आदिवासी समुदाय में तलाक की प्रक्रिया क्या है? छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का वकील से सवाल
Tribal Divorce Laws: छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी दंपत्ति के तलाक के मामले ने एक बार फिर सामान नागरिक संहिता और सरना कोड जैसे मुद्दों पर बहस तेज़ कर दी है. इस मामले पर स्वयं छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता के वकील से जानकारी मांगी कि आदिवासियों में तलाक के मामलों की प्रक्रिया क्या है?
कोरबा की रहने वाली एक भारिया आदिवासी समुदाय की महिला द्वारा दाखिल अपने पति पर “प्रताड़ना के बाद तलाक” का मामला जब हाई कोर्ट पहुंचा तो कोर्ट ने उल्टे वकील से यह पूछा है कि आखिर आदिवासी समुदाय में तलाक के मामले किस नियम के तहत सुलझाए जाते हैं?
छत्तीसगढ़ जो कि एक आदिवासी बाहुल्य प्रदेश माना जाता है. वहां 31 फीसदी के आस-पास आदिवासी जनसंख्या का निवास है. राज्य के लगभग 60% विकासखंड आदिवासी विकासखंड हैं. ऐसे में राज्य में आदिवासी समाज के लिए लागू होने वाली कानून व्यवस्था एक अहम चर्चा है.
याचिकाकर्ता के वकील जयदीप सिंह यादव ने बताया कि कोर्ट ने उन्हें आदिवासी समाज में प्रचलित रीति रिवाज जो कि तलाक के मामलों में निर्णय लेने में सहायता करते हों उनके बारे में जानकारी देने के लिए निर्देशित किया है.
वकील ने कहा, “पत्नी द्वारा छोड़ कर चले जाने को आधार बनाकर पति ने निचली अदालत से तलाक ले लिया था. लेकिन पत्नी यानी कि हमारी मुवक्किल ने इसको चैलेंज किया है. अब समस्या ये आ रही है कि अब तक के नियमों के अनुसार आदिवासी समाज हिंदू विवाह अधिनियम के तहत गवर्न नहीं होता है. साथ ही विशेष विवाह अधिनियम भी इन पर लागू नहीं होता है. ऐसे में अगर तलाक की प्रक्रिया पर कोई कानूनी निर्णय लेना है तो वो किस कानून के तहत लिया जाएगा? इस पर उच्च न्यायालय ने हमें जानकारी देने के लिए कहा है”. काफी समय से चल रहे समान नागरिक संहिता और सरना कोड पर छिड़ी बहस को ऐसी परिस्थितियों से बल मिल सकता है.
रीति रिवाजों के कानून होते हैं लागू
लगभग 40 से ज्यादा आदिवासी जातियों के घर छत्तीसगढ़ में हर समाज की अपनी कार्यशैली, रीति रिवाज और कानून हैं. जन्म से लेकर मृत्यु तक किए जाने वाले संस्कारों में भी काफी भिन्नता है.
हिंदू विवाह अधिनियम की धारा दो की उपधारा (2) के अनुसार हिंदू विवाह अधिनियम अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर लागू नहीं होगी, जब तक कि केंद्र सरकार ऑफिशियल राजपत्र में अधिसूचना जारी कर अन्यथा निर्देशित न कर दे. सुप्रीम कोर्ट ने अपने 2001 के एक फैसले में यह स्पष्ट किया था कि चाहे कोई भी पक्षकार हो, अगर वो अपने सामाजिक और रूढ़ी परंपराओं का पालन करते हैं तो उन पर प्रथागत कानून ही लागू होंगे, फिर चाहें वो किसी भी धर्म या मत को मानते हैं.
आदिवासी समाज में विवाह विच्छेद या तलाक संबंधी कानून बहुत कम लागू होते हैं, सामान्यतः ऐसे मामलों में पत्नी को घर से निकल दिया जाता है. मध्यप्रदेश के एक आदिवासी समुदाय में अगर तलाक लेना हो या पति को दूसरी शादी करनी हो तो वह पत्नी को एक तयशूदा रकम देकर तलाक ले सकता है. हालांकि ऐसे मामलों में सामाजिक पंचायतों का निर्णय ही अंतिम निर्णय माना जाता है.
महिलाओं की स्थिति वैसी नहीं जैसी बाहर से दिखती है
आपने कई जगह सुना होगा कि आदिवासी समुदाय मातृसत्तात्मक होते हैं और इन समुदायों में महिलाओं की निर्णय लेने की क्षमता पर ज्यादा भरोसा जताया जाता है. लेकिन असल में पंचायत के स्तर पर लिए जाने फैसले अक्सर पुरुषों द्वारा ही लिए जाते हैं. पुरुष ही पंचायत के मुख्य सदस्य होते हैं और इस स्थिति में महिलाओं के हक़, अधिकार और मातृसत्तात्मक अपर हैंड की बात हाशिए पर चली जाती है.
झारखंड के लोहरदगा जिले के एक गांव में पंचायत ने फैसला सुनाते हुए एक महिला को डायन करार देकर उसे उसके ही घर और गांव से बहिष्कृत कर दिया था. ऐसे कई मामले मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी देखने को मिलते हैं, जहां आदिवासी समाजों में भी पुरुष प्रधान पंचायत महिलाओं के अधिकारों का हनन करती हैं.
बस्तर स्थिति आदिवासी हितों के लिए काम करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि आदिवासी समाज में परंपराओं का पालन जरूरी है. लेकिन अति रूढ़िवादी परंपराओं के कारण महिलाओं को मिलने वाले हक़ से वो आज भी वंचित हैं. देशभर में समान नागरिक संहिता को लेकर छिड़ी बहस के बीच छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में जारी इस आदिवासी दंपत्ति के तलाक के मामले का बड़ा असर हो सकता है.