CG News: दंतेवाड़ा जिले के बैलाडीला में स्थित एनएमडीसी नौ रत्नों में शुमार है. बैलाडीला की खदानों से निकले कच्चे लोहे का कारोबार करोड़ों अरबों का है. लेकिन जिन आदिवासियों की जमीन पर यह खदान बनाई गई है, उनका जीवन आज भी मूलभूत सुविधाओं को तरस रहा है. ऐसा ही एक मामला शुक्रवार को देखने मिला जब सर्च ऑपरेशन में निकली फोर्स बैलाडीला के निचले इलाकों में बसे लोहागांव पहुंची. जहां गर्भवती महिला को खाट के सहारे कंधे में उठाकर एंबुलेंस तक पहुंचाया गया.
जवानों ने अपनी जान खतरे में डालकर गर्भवती महिला को किया रेस्क्यू
दरअसल लोहागांव के आसपास का इलाका आज भी नक्सल प्रभावित है. डीआरजी जवानों को गांव में एक गर्भवती महिला दर्द से कराहती नजर आई.महिला को दर्द में देख जवानों ने सर्च ऑपरेशन बंद कर दिया.लेकिन आजादी के इतने वर्षों बाद भी लोहागांव तक कोई सड़क मार्ग नहीं है. इसलिए जवानों ने महिला को अस्पताल पहुंचाने पैदल चलना ही शुरू कर दिया. जवानों ने खाट की कावड़ बना महिला को उस पर लिटा दिया. लेकिन रास्ता चुनौतीपूर्ण था.
जवानों को सड़क तक पहुंचने के लिए 3 पहाड़ों को पार करना पड़ा. इतना ही नहीं इस दौरान जवानों ने छोटे बड़े 9 नाले भी पार किए. नक्सली खतरे के बीच किसी तरह जवान सड़क तक पहुंचे, जहां से एंबुलेंस की मदद से गर्भवती महिला को अस्पताल भेजा गया. इस पूरे ऑपरेशन की कमान संभाल रहे कपिल चंद्रा ने बताया कि इन इलाकों में नक्सली हमले का खतरा रहता है लेकिन जवानों ने बहादुरी और मानवता की मिसाल पेश करते हुए महिला को किसी तरह अस्पताल पहुंचाया.
दो महीना पहले माओवादियों ने प्लांट किए थे सीरियल बम
दो माह पहले माओवादियों ने ठीक 11 सी खदान के नीचे से लोहा गांव जाने वाले रास्ते पर 10 आईईडी प्लांट किए थे. ये बम 10 किलो से लेकर पांच किलो तक के थे. इन प्रेशर बमों की चपेट में यदि जवान आ जाते तो बचना बेहद मुश्किल था. इसी रास्ते से जान जोखिम में डाल कर जवान गर्भवती महिला को लेकर आए हैं. इस ऑपरेशन को लीड कर रहे एसडीओपी को माओवादियों की साजिश का भी अंदेशा लग रहा था. वे कहते हैं कि महिला को दर्द में तड़पता हुआ भी छोड़कर नहीं जाया जा सकता था. जिस पुलिस को भरोसा जीतना है, गांव के लोगों को माओवादियों के झूठे अभा मंडल से बाहर निकालना है, यह जोखित उठाना भी जरूरी था.
चारों ओर पहाड़ी से घिरा है लोहागांव
चारों ओर से खूबसूरत वादियों से घिरा एनएमडीसी का गोद ग्राम है लोहा गांव. यहां महज 15 परिवार ही निवासरत हैं. यह गांव हिरौली पंचायत का हिस्सा है. पिछले पचास वर्षो में यहां एनएमडीसी न तो सडक़ बना सकी और न ही पुल-पुलियों का निर्माण कर सकी है. बरसात में यह गांव पूरी तरह से टापू में बदल जाता है. इस गांव में रहने वाले आदिवासियों का जीवन वनोपज पर ही आधारित हैं. ग्रामीण सल्फी, बांस इमली महुआ बेचने किरन्दुल आते हैं. इन उत्पादों को बेच कर वापस पहाडिय़ों और नालों को पार कर गांव लौटते है. किरन्दुल आने जाने के लिए ग्रामीणों को 10 से 12 घंटे सफर करना पड़ता है.