Vistaar NEWS

मराठी अस्मिता पर वार या राष्ट्रीय एकता की कोशिश? इस बार शिक्षा नीति से निकला ‘सियासी भूत’, महाराष्ट्र में हिंदी अनिवार्य करने पर संग्राम!

Maharashtra Hindi Controversy

प्रतीकात्मक तस्वीर

Maharashtra Hindi Controversy: महाराष्ट्र में नई शिक्षा नीति (NEP) के तहत पहली से पांचवीं कक्षा तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में अनिवार्य बनाने के फैसले ने सूबे की राजनीति को गर्मा दिया है, जहां केंद्र सरकार इसे ‘भाषा के सम्मान’ से जोड़कर देख रही है. वहीं महाराष्ट्र के कई राजनीतिक दल इसे ‘मराठी अस्मिता’ पर हमला करार दे रहे हैं. मामला शिक्षा नीति से बढ़कर अब मराठी स्वाभिमान और क्षेत्रीय पहचान की राजनीति तक पहुंच गया है.

सरकार का तर्क क्या है?

महाराष्ट्र सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 के तहत निर्णय लिया है कि राज्य के स्कूलों में पहली से पांचवीं कक्षा तक हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाया जाएगा. सरकार का कहना है कि हिंदी देश की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है और छात्रों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार करने के लिए हिंदी सीखना जरूरी है. इसके साथ-साथ मराठी को पहली भाषा और अंग्रेजी को दूसरी भाषा के तौर पर पढ़ाने का प्रावधान भी जारी रहेगा. सरकार के मुताबिक, इस फैसले से बच्चों को भाषाई ज्ञान बढ़ेगा और वे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय अवसरों का लाभ उठा सकेंगे.

मराठी अस्मिता पर हमला: विपक्ष

लेकिन विपक्षी दलों ने इस फैसले का कड़ा विरोध किया है. महा विकास अघाड़ी (MVA) का आरोप है कि हिंदी को अनिवार्य करना महाराष्ट्र की मराठी संस्कृति, भाषा और पहचान के खिलाफ साजिश है. कांग्रेस नेता विजय वडेट्टीवार ने कहा,”यह केवल भाषा का मामला नहीं है, बल्कि महाराष्ट्र के स्वाभिमान और अधिकारों का हनन है.” उद्धव ठाकरे ने भी इसे ‘मराठी मानुष’ का अपमान बताते हुए कहा कि केंद्र सरकार मराठी समाज को दबाने की कोशिश कर रही है.

मराठी अस्मिता का लंबा संघर्ष

मराठी अस्मिता महाराष्ट्र की राजनीति का हमेशा से केंद्र बिंदु रही है. 1950 के दशक में ‘संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन’ की लड़ाई से लेकर 1960 में महाराष्ट्र राज्य के गठन तक, भाषा और संस्कृति की रक्षा के लिए कई ऐतिहासिक संघर्ष हुए हैं. 1966 में बाल ठाकरे ने शिवसेना की स्थापना ही मराठी युवाओं को रोजगार और सम्मान दिलाने के मकसद से की थी. आज जब सरकार हिंदी को बढ़ावा देने की बात कर रही है, तो विपक्ष इसे इन्हीं पुराने संघर्षों के खिलाफ एक ‘सांस्कृतिक हमला’ बता रहा है.

यह भी पढ़ें: पहले राणा, अब पासिया…ऐसे ही नहीं देश के ‘बेलगाम’ दुश्मनों पर अमेरिका में लग रहा ‘लगाम’, समझिए भारत की कूटनीति

महायुति सरकार में अंदरूनी दबाव

महाराष्ट्र में फिलहाल बीजेपी, एकनाथ शिंदे की शिवसेना और अजित पवार की एनसीपी मिलकर सत्ता में हैं. लेकिन हिंदी को लेकर आए इस फैसले ने महायुति सरकार के भीतर भी असहजता बढ़ा दी है. एकनाथ शिंदे, जो ‘मराठी माणूस’ के नाम पर राजनीति करते आए हैं, अब एक तरफ मराठी अस्मिता और दूसरी तरफ केंद्र की नीति के बीच फंसे नजर आ रहे हैं. देवेंद्र फडणवीस ने जहां हिंदी को जोड़ने का बचाव किया, वहीं उन्होंने मराठी भाषा के सम्मान की भी बात करनी पड़ी, ताकि स्थानीय मतदाताओं की नाराजगी न बढ़े.

राज ठाकरे की एंट्री

इस पूरे विवाद में राज ठाकरे सबसे आक्रामक तेवर में नजर आ रहे हैं. उन्होंने सरकार पर सीधा हमला बोलते हुए कहा कि ‘मराठी को कमजोर करने की साजिश’ को किसी भी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. राज ठाकरे का मराठी अस्मिता का एजेंडा फिर से चर्चा में आ गया है और वे इस मौके को आगामी नगर निगम (BMC) चुनावों में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं. राज ठाकरे ने एक सभा में कहा, “हिंदी जरूरी है लेकिन मराठी से ऊपर नहीं. मराठी हमारी आत्मा है.”

सामाजिक तनाव भी बढ़ा

राजनीतिक माहौल गर्म होने के साथ-साथ समाज में भी इसका असर दिखने लगा है.मुंबई की एक हाउसिंग सोसाइटी में मराठी और गैर-मराठी (गुजराती) निवासियों के बीच खाने-पीने और भाषा को लेकर टकराव की खबरें सामने आईं. मनसे कार्यकर्ताओं के हस्तक्षेप ने मामले को और तूल दे दिया. इससे साफ है कि अगर राजनीतिक दल भाषा के मुद्दे पर लगातार आग में घी डालते रहे तो जमीन पर सामाजिक सौहार्द्र भी प्रभावित हो सकता है.

अजित पवार की कूटनीति

अजित पवार ने बड़े ही संतुलित अंदाज में इस विवाद पर प्रतिक्रिया दी. उन्होंने एक ओर सरकार के फैसले का समर्थन किया तो दूसरी ओर राज ठाकरे पर तंज कसते हुए कहा, “कुछ लोगों को चर्चा में बने रहने के लिए रोज़ कुछ न कुछ चाहिए.” अजित पवार की कोशिश है कि वे न तो दिल्ली से टकराव लें और न ही मराठी अस्मिता के मुद्दे पर जनता की नाराजगी मोल लें.

भाषा के सवाल पर महाराष्ट्र में सियासी जंग तेज हो चुकी है. सरकार को अब बेहद संतुलित कदम उठाने होंगे, ताकि शिक्षा के स्तर पर बच्चों का विकास भी हो और मराठी अस्मिता की भावनाएं भी आहत न हों.विपक्ष इस मुद्दे को पूरी ताकत से भुनाने में लगा है, खासतौर पर मुंबई, ठाणे, पुणे जैसे शहरी इलाकों में जहां निकाय चुनाव नजदीक हैं. अगर सरकार जल्द ही संवाद और समझाइश का रास्ता नहीं अपनाती, तो यह विवाद निकाय चुनावों में बड़ा राजनीतिक नुकसान भी कर सकता है.

Exit mobile version