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शिवाजी पार्क से सत्ता के शिखर तक…एक ‘कार्टूनिस्ट’ का सपना कैसे हुआ साकार? शिवसेना की जन्म-कथा

Shiv Sena Foundation Day

बालासाहेब ठाकरे

Shiv Sena Foundation Day: 19 जून, शिवसेना का स्थापना दिवस. यह तारीख महाराष्ट्र के इतिहास में एक बड़े बदलाव की गवाह है. लेकिन क्या आप जानते हैं, जिस पार्टी ने महाराष्ट्र की राजनीति को हिलाकर रख दिया, उसकी शुरुआत कैसे हुई? कौन थे वो लोग जिन्होंने एक साधारण कार्टूनिस्ट के सपने को हकीकत में बदलने के लिए दिन-रात एक कर दिया? यह कहानी है एक ‘आग’ की, जो अन्याय के खिलाफ़ भड़की और पूरे महाराष्ट्र को अपनी चपेट में ले लिया.

एक कार्टूनिस्ट की कलम से निकली क्रांति की आग

बात 1960 के दशक की है. महाराष्ट्र बन चुका था, लेकिन सपनों की नगरी मुंबई में ‘मराठी मानुष’ खुद को बेगाना महसूस कर रहा था. फैक्ट्रियों से लेकर दफ्तरों तक, बाहर से आए लोगों का बोलबाला था. मराठी युवाओं को नौकरी के लिए दर-दर भटकना पड़ता था. इस भेदभाव को अपनी आंखों से देख रहे थे एक तेजतर्रार कार्टूनिस्ट – बालासाहेब ठाकरे.

बालासाहेब अपनी कलम से उस दौर की सियासत और समाज पर तीखे व्यंग्य करते थे. उनका साप्ताहिक कार्टून अखबार ‘मार्मिक’ घर-घर में पढ़ा जाता था. ‘मार्मिक’ सिर्फ एक अखबार नहीं था, वो मराठी मानुष की आवाज़ बन चुका था. बालासाहेब ने अपनी लेखनी से देखा कि कैसे मुंबई, जिसे मराठी लोगों ने बसाया था, वहीं पर उनकी अनदेखी हो रही थी. नौकरियों से लेकर सम्मान तक, हर जगह मराठी भाषा और संस्कृति को दबाया जा रहा था. यह अन्याय उन्हें भीतर तक कचोट रहा था.

बालासाहेब सिर्फ कार्टून बनाकर शांत नहीं बैठ सकते थे. उन्हें लगा कि सिर्फ कलम से काम नहीं चलेगा, अब एक ‘सेना’ की ज़रूरत है. एक ऐसी सेना जो मराठी अस्मिता के लिए लड़े, उनके हकों के लिए आवाज़ उठाए और अन्याय के खिलाफ खड़ी हो. इसी सोच के साथ 19 जून 1966 को दादर के शिवाजी पार्क में शिवसेना की नींव रखी गई. शिवाजी पार्क को बाद में ‘शिवतीर्थ’ कहा गया,

बालासाहेब के साथ शुरुआत में कौन थे वो लोग?

शिवसेना की शुरुआत किसी बड़े राजनीतिक मंच से नहीं, बल्कि आम मराठी लोगों के बीच से हुई थी. बालासाहेब ठाकरे के साथ शुरुआत में कुछ करीबी मित्र और उनके ‘मार्मिक’ अखबार के पाठक जुड़े. ये वो लोग थे जिन्होंने बालासाहेब के सपनों को अपना सपना मान लिया था. इनमें प्रमुख थे, मधुकर सारपोतदार, प्रमोद नवलकर, सुधीर जोशी. ये कुछ शुरुआती चेहरे थे जिन्होंने संगठन को खड़ा करने में बालासाहेब का साथ दिया.

लेकिन, असली ताकत तो आम मराठी युवा थे, जो बालासाहेब की बातों से प्रेरित हुए. उन्हें लगा कि कोई तो है जो उनकी पीड़ा को समझ रहा है. लेकिन राह आसान नहीं थी. शिवसेना की शुरुआत में कई बड़ी चुनौतियां थीं. शुरुआती दौर में पार्टी के पास कोई बड़ा फंड नहीं था. सब कुछ आम लोगों के चंदे और बालासाहेब के व्यक्तिगत प्रयासों से चलता था. कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियां शिवसेना को एक खतरा मानने लगीं. उन्हें लगा कि यह नया संगठन उनकी राजनीतिक जमीन छीन लेगा.

एक नए संगठन को खड़ा करना, रैलियां करना और लोगों को संगठित करना आसान नहीं था. प्रशासन और पुलिस से भी कई बार टकराव होता था. कई लोगों ने शिवसेना को सिर्फ ‘क्षेत्रीय पार्टी’ या ‘हिंसक समूह’ कहकर खारिज करने की कोशिश की. लेकिन बालासाहेब ने अपनी रणनीति और लोगों के समर्थन से इसका मुकाबला किया.

बालासाहेब ने शुरुआत में ‘मार्मिक’ के जरिए अपनी बातें लोगों तक पहुंचाईं. उन्होंने आम सभाएं करनी शुरू कीं, जहां वे सीधे और सरल भाषा में मराठी लोगों की समस्याओं को उठाते थे. उनके भाषण इतने दमदार होते थे कि हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे. उन्होंने ‘भूमिपुत्रों’ के लिए आरक्षण की मांग की, मराठी भाषा और संस्कृति के संरक्षण पर जोर दिया और बाहरी लोगों के प्रभुत्व का विरोध किया.

शिवसेना ने शुरुआत में अपने मुद्दों को उजागर करने के लिए सड़कों पर उतरने का रास्ता अपनाया. विरोध प्रदर्शन, मोर्चा निकालना और ‘घेराव’ करना उनकी रणनीति का हिस्सा था. जब भी किसी कंपनी में मराठी युवाओं को नौकरी नहीं मिलती थी या मराठी भाषा का अपमान होता था, शिवसैनिक तुरंत एक्शन में आ जाते थे. इससे उन्हें आम लोगों का भारी समर्थन मिलने लगा.

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एक आंदोलन से सत्ता की सीढ़ी तक

धीरे-धीरे शिवसेना सिर्फ एक संगठन नहीं रही, वो एक जन-आंदोलन बन गई. बालासाहेब का करिश्मा ऐसा था कि लोग उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार हो जाते थे. उन्होंने मराठी अस्मिता के साथ-साथ हिंदुत्व के मुद्दे को भी जोड़ा, जिससे उनका जनाधार और बढ़ा. शिवसेना ने शुरुआत में खुद को एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के तौर पर पेश किया, लेकिन धीरे-धीरे उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं बढ़ती गईं. पहली बार शिवसेना ने 1990 के विधानसभा चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन किया. इस चुनाव में शिवसेना ने 183 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जबकि भाजपा 104 सीटों पर लड़ी. इसमें शिवसेना को 52 सीटें मिलीं और भाजपा को 42 सीटें, जिससे महाराष्ट्र की राजनीति में ‘छोटे भाई-बड़े भाई’ की भूमिका तय हुई, जहां शिवसेना बड़े भाई की भूमिका में रही.

लेकिन असली इतिहास रचा गया 1995 के विधानसभा चुनावों में. कांग्रेस दशकों से महाराष्ट्र में राज कर रही थी और उसे हराना असंभव सा लग रहा था. इस बार शिवसेना और भाजपा ने अपनी रणनीति बदली. शिवसेना ने 169 सीटों पर चुनाव लड़ा और भाजपा ने 105 सीटों पर, यानी पिछली बार से भाजपा को एक सीट ज्यादा मिली थी. बालासाहेब ठाकरे ने अपनी करिश्माई छवि और हिंदुत्व के मुद्दे को मराठी अस्मिता के साथ जोड़कर एक जबरदस्त लहर पैदा की. उनके भाषणों में इतनी आग थी कि लोगों का उत्साह चरम पर था.

जब चुनाव के नतीजे आए, तो सब हैरान रह गए. शिवसेना ने 73 सीटें जीतीं और भाजपा को 65 सीटें मिलीं. दोनों दलों की सीटों को मिलाकर आंकड़ा बहुमत के पार चला गया. यह महाराष्ट्र के इतिहास में पहली बार था जब कांग्रेस को हटाकर कोई गैर-कांग्रेसी सरकार बनी. बालासाहेब ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद खुद नहीं संभाला, बल्कि शिवसेना के मनोहर जोशी को मुख्यमंत्री बनाया. यह दर्शाता था कि सत्ता के प्रति उनका मोह नहीं था, बल्कि वे पार्टी को मजबूत करना चाहते थे और मराठी गौरव को स्थापित करना चाहते थे. यह गठबंधन सिर्फ सत्ता के लिए नहीं था, बल्कि हिंदुत्व और मराठी अस्मिता के साझा विचार पर आधारित था, जिसने महाराष्ट्र की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया.

बालासाहेब का जलवा बनाम आज की शिवसेना

बालासाहेब के दौर में शिवसेना एक चट्टान की तरह मज़बूत थी. उनका शब्द ही अंतिम था और पार्टी में कोई फूट नहीं थी. शिवसैनिकों के लिए बालासाहेब भगवान से कम नहीं थे. लेकिन उनके निधन के बाद शिवसेना में वो एकता नहीं रही. आज शिवसेना दो फाड़ हो चुकी है – एकनाथ शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे गुट. दोनों गुट एक-दूसरे के खिलाफ खड़े हैं और पार्टी का भविष्य अनिश्चित दिख रहा है. बालासाहेब के समय का वो प्रचंड रुतबा अब एक इतिहास बनकर रह गया है. आज भी शिवसेना के स्थापना दिवस पर बालासाहेब ठाकरे को याद किया जाता है.

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