Emergency: 1970 का दशक, भारत के लिए राजनीतिक और आर्थिक उथल-पुथल का दौर था. तेल संकट और बढ़ती महंगाई ने जनता में असंतोष को जन्म दिया. गुजरात और बिहार में छात्र आंदोलन तेज हो रहे थे, और इन आंदोलनों को दिशा देने के लिए समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) सामने आए. 1974 में पटना के गांधी मैदान में जेपी ने ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया. जिसमें भ्रष्टाचार, शिक्षा व्यवस्था और तानाशाही शासन के खिलाफ बदलाव की मांग थी. यह आंदोलन जल्द ही राष्ट्रीय स्तर पर फैल गया, जिसमें छात्र, बुद्धिजीवी और विपक्षी दल शामिल हो गए.
जेपी का यह आंदोलन जब राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचा तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सत्ता के पैर हिलने लगे थे. धीरे-धीरे यह आंदोलन विकराल रूप लेने लगा. जो आगे चलकर इंदिरा को सत्ता से हटाने में अहम किरदार निभाने वाला था. इंदिरा को सत्ता जाने का डर सताने लगा था. इसी बीच इलाहबाद हाई कोर्ट के फैसले के बाद डरी इंदिरा ने रातो-रात देश में ‘इमरजेंसी’ लगा दी. इंदिरा गाँधी के इस फैसले ने उन्हें कुछ महीनों तक सत्ता में बनाए रखा. इस दौरान उन्होंने जेपी सहित सैकड़ों समाजवादी नेताओं को जेल में बंद करवा दिया. मगर, जेल में बंद होने के बाद भी जेपी के आंदोलन की धार कम नहीं हुई.
इंदिरा की सत्ता पर संकट
12 जून 1975 को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया, जिसमें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 1971 के रायबरेली लोकसभा चुनाव में कदाचार का दोषी ठहराया गया. उनके प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने कोर्ट में दावा किया था कि इंदिरा ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया. वकील शांति भूषण ने साबित किया कि इंदिरा के सचिव यशपाल कपूर ने नियमों का उल्लंघन किया. कोर्ट ने इंदिरा का चुनाव रद्द कर दिया और उन्हें छह साल तक चुनाव लड़ने से रोक दिया. इस फैसले ने उनकी सत्ता को पूरी तरह से झकझोर कर रख दिया.
जेपी की रैली और संपूर्ण क्रांति की हुंकार
25 जून 1975 को दिल्ली के रामलीला मैदान में जेपी ने एक विशाल रैली बुलाई. इस रैली में उन्होंने रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ पढ़कर जनता को एकजुट किया. जेपी ने सेना और पुलिस से अपील की कि वे इंदिरा सरकार के अवैध आदेशों का पालन न करें. उन्होंने इंदिरा को तानाशाह करार देते हुए इस्तीफे की मांग की. इस रैली ने इंदिरा सरकार को घेर लिया और जनता में उनके खिलाफ आक्रोश को और भड़काया.
आपातकाल की घोषणा: लोकतंत्र पर अंधेरा
जेपी की हुंकार से घबराई इंदिरा गांधी ने उसी रात यानी 25 जून 1975 को संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी. यह फैसला बिना कैबिनेट की मंजूरी के लिया गया था. राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने मध्यरात्रि में इस पर हस्ताक्षर किए थे. आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए, प्रेस पर सेंसरशिप लागू हुई, और विपक्षी नेताओं, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया. जेपी सहित कई बड़े नेता गिरफ्तार हुए.
जनता का प्रतिरोध और आपातकाल का अंत
21 महीने तक चले आपातकाल को भारतीय लोकतंत्र का काला अध्याय माना जाता है. इस दौरान जबरन नसबंदी और तुर्कमान गेट जैसे अत्याचारों ने जनता का गुस्सा बढ़ाया. 1977 में इंदिरा ने चुनाव की घोषणा की, शायद यह सोचकर कि जनता उनके साथ है. लेकिन जनता ने जवाब दिया और जनता पार्टी के नेतृत्व में मोरारजी देसाई की सरकार बनी. इंदिरा गांधी खुद रायबरेली से चुनाव हार गईं.
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लोकतंत्र की कीमत
आपातकाल की 50वीं बरसी पर यह याद करना जरूरी है कि लोकतंत्र कितने बलिदानों से हासिल हुआ है. जेपी की हुंकार ने दिखाया कि जनता की आवाज को दबाया नहीं जा सकता. यह दौर हमें सिखाता है कि सत्ता का दुरुपयोग और तानाशाही लोकतंत्र के लिए खतरा है.
