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मंदिर-मस्जिद विवाद और प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट…सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई से क्या बदल सकता है भारत का धार्मिक भविष्य?

Places of Worship Act

Places of Worship Act

Places of Worship Act: भारत में धार्मिक विवादों का इतिहास बहुत पुराना है, और समय-समय पर नए विवाद उभरकर साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ाते रहते हैं. हाल के दिनों में अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे स्थानों पर मंदिर-मस्जिद के विवाद ने फिर से ध्यान खींचा है. इन विवादों के बीच एक महत्वपूर्ण कानून प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट का नाम बार-बार लिया जाता है. यह कानून धार्मिक स्थलों के स्वरूप को लेकर विवादों को नियंत्रित करने के उद्देश्य से 1991 में लागू किया गया था. लेकिन आज, सुप्रीम कोर्ट में इस कानून की संवैधानिकता पर सुनवाई हो रही है, और यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि यह कानून क्या है…

धार्मिक विवादों का बढ़ता दायरा

भारत में मंदिर-मस्जिद के विवाद सदियों से चले आ रहे हैं. अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर हुए विवाद ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी बहस को जन्म दिया था, जिसके बाद वहां राम मंदिर का निर्माण हुआ. हालांकि, यह विवाद एक तरह से समाप्त हो गया, लेकिन अब काशी (ज्ञानवापी मस्जिद) और मथुरा (शाही ईदगाह मस्जिद) जैसे स्थानों पर नए विवाद सामने आ रहे हैं. इन विवादों में यह दावा किया जा रहा है कि मुस्लिम धर्मस्थल पहले किसी हिंदू मंदिर पर बने थे, और अब उन पर दावा किया जा रहा है. साथ ही, मध्य प्रदेश के धार जिले की भोजशाला, उत्तर प्रदेश के संभल और बदायूं, और राजस्थान के अजमेर जैसे स्थानों पर भी इस तरह के विवाद उभर रहे हैं. ये सभी विवाद प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट से संबंधित हैं, जिसके तहत पूजा स्थलों के धार्मिक स्वरूप को लेकर किसी भी बदलाव पर रोक है.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट क्या है?

यह कानून 1991 में भारत सरकार ने लाया था, जब राम मंदिर आंदोलन चरम पर था और इस प्रकार के विवादों के बढ़ने का खतरा था. तब की कांग्रेस सरकार के गृहमंत्री शंकरराव चव्हाण ने लोकसभा में इस बिल को पेश किया. यह बिल 10 सितंबर 1991 को संसद से पारित हो गया. इस कानून का उद्देश्य था कि 15 अगस्त 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव नहीं किया जा सकता. आसान शब्दों में कहें तो अगर 1947 के समय कोई स्थान मंदिर था तो वह मंदिर ही रहेगा, मस्जिद था तो मस्जिद और गिरिजाघर था तो वह गिरिजाघर रहेगा. इस कानून में यह भी प्रावधान था कि यदि कोई व्यक्ति किसी धार्मिक स्थल के स्वरूप में बदलाव करने की कोशिश करता है, तो उसे तीन साल तक की सजा और जुर्माना हो सकता है.

हालांकि, इस कानून में बाबरी मस्जिद के विवाद को अलग रखा गया था, क्योंकि वह मामला अदालत में चल रहा था. इस कानून का उद्देश्य था कि धार्मिक स्थानों के बारे में विवादों को बढ़ावा न मिले और साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखा जाए.

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इस कानून पर सवाल क्यों उठे?

हाल ही में इस कानून को लेकर कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई हैं. वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय ने इस कानून की संवैधानिकता पर सवाल उठाया है. उनका कहना है कि यह कानून हिंदू, जैन, बौद्ध और सिख धर्म के अनुयायियों के अधिकारों का उल्लंघन करता है. उनका तर्क है कि इस कानून के कारण विदेशी आक्रांताओं द्वारा ध्वस्त किए गए धार्मिक स्थलों पर हिंदू समुदाय अपना दावा नहीं कर सकता. इसके अलावा, उनका कहना है कि इस कानून का प्रभाव उन लोगों पर भी पड़ता है जो अन्य धर्मों से संबंधित हैं, क्योंकि यह उनके अधिकारों का हनन करता है.

इसके विपरीत, मुस्लिम संगठनों और कुछ धर्मनिरपेक्ष दलों का यह कहना है कि इस कानून को समाप्त करने से धार्मिक सौहार्द बिगड़ेगा. जमीयत उलमा-ए-हिंद ने इसे भारत की धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने के लिए महत्वपूर्ण बताया है. उनका यह मानना है कि इस कानून की वजह से धार्मिक स्थलों पर विवादों को बढ़ावा नहीं मिलता और देश में शांति बनी रहती है.

सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट में इस मामले की सुनवाई अब आगे बढ़ी है. कोर्ट में इस पर बहस हो रही है कि क्या इस कानून को रद्द किया जा सकता है या नहीं. इस पर विभिन्न पक्षों के दावे और विरोध प्रस्तुत किए जा रहे हैं. वकील अश्विनी कुमार उपाध्याय और अन्य हिंदू संगठनों का कहना है कि यह कानून उनके धार्मिक अधिकारों के खिलाफ है, जबकि मुस्लिम संगठनों का मानना है कि इस कानून को बनाए रखना देश में साम्प्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने के लिए आवश्यक है.

सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में केंद्र सरकार से नोटिस जारी किया था, लेकिन सरकार ने अभी तक इस मुद्दे पर अपना पक्ष नहीं रखा है. अब, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई करने का निर्णय लिया है, जो आने वाले समय में भारत के धार्मिक और कानूनी परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण निर्णय हो सकता है.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई का परिणाम देश के धार्मिक विवादों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है. यह कानून जहां एक ओर धार्मिक स्थलों के स्वरूप को स्थिर रखने की कोशिश करता है, वहीं दूसरी ओर कुछ लोग इसे अपने अधिकारों का उल्लंघन मानते हैं. अगर यह कानून रद्द हो जाता है, तो इससे मंदिर-मस्जिद विवादों में और अधिक उतार-चढ़ाव आ सकते हैं, जबकि इसके बने रहने से धार्मिक शांति बनी रह सकती है. आने वाले समय में सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस मुद्दे पर एक निर्णायक मोड़ ला सकता है, जो देश की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति को प्रभावित करेगा.

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