Bhopal Gas Tragedy: भोपाल गैस त्रासदी को 40 साल पूरे हो चुके हैं. इस त्रासदी को लेकर एक पत्रकार ने 2 साल पहले ही बता दिया था कि भोपाल में भयानक गैस त्रासदी होने वाली है. अपने लेखों के जरिए समाज, शासन-प्रशासन और फैक्ट्री मैनेजमेंट को चेताया लेकिन फिर भी ऐसी भयंकर त्रासदी हुई कि हजारों लोग काल के गाल में समा गए. केसवानी ने गैस त्रासदी से पहले ही लेख लिखने शुरू कर दिए थे.
वो कौन से लेख थे जिसने कंपनी की लापरवाही को उजागर किया
राजकुमार केसवानी ने साल 1982 ने 1984 तक कई आर्टिकल लिखे. इन आर्टिकल्स में भोपाल गैस त्रासदी को लेकर चेतावनी दी गई थी. लेख में सचेत करते हुए लिखा गया था कि अब नहीं सुधरे तो अंजाम भयानक हो सकते हैं. भोपाल में रहने वाले केसवानी एक साप्ताहिक पत्रिका रपट पब्लिश किया करते थे. इसमें पहली बार इस त्रासदी को लेकर लेख 26 सितंबर को पब्लिश किया गया. ‘बचाइए हुजूर इस शहर को बचाइए’ प्रकाशित किया.
इसके बाद 1 अक्टूबर को ‘ज्वालामुखी के मुहाने बैठा भोपाल’ और 8 अक्टूबर को ‘ना समझोगे तो आखिर मिट ही जाओगे’ लेख लिखे. इनमें उन्होंने संयंत्र में सुरक्षा खामियों का खुलासा किया और चेतावनी दी कि यह शहर के लिए गंभीर खतरा है.
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इन रिपोर्ट के पब्लिश होने के दौरान हुआ एक गंभीर हादसा
साल 1984 में हुई भोपाल गैस त्रासदी से 2 साल पहले यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में एक हादसा हुआ था. 5 अक्टूबर 1982 को यूनियन कार्बाइड के प्लांट में क्लोरोफॉर्म, मिथाइल आइसोसाइनेट और हाइड्रोक्लोरिक एसिड का रिसाव हुआ. इस रिसाव से 18 लोग प्रभावित हुए थे. इनमें से कई गंभीर रूप से घायल हो गए थे. इसी घटना को लेकर केसवानी ने ‘ना समझोगे तो आखिर मिट ही जाओगे’ नामक लेख लिखा था.
आखिरी केसवानी को इतनी फिक्र क्यों थी?
1981 में केसवानी ने यूनियन कार्बाइड भोपाल प्लांट में दिलचस्पी लेनी शुरू की. केसवानी के दोस्त मोहम्मद अशरफ यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री में काम करते थे. अशरफ अक्सर केसवानी को फैक्ट्री में हो रही लापरवाही और बजट को लेकर कमी की बात कहा करते थे. इसी बात को लेकर राजकुमार केसवानी ने रुचि लेना शुरू किया.
24 दिसंबर 1981 को प्लांट में फॉस्जीन गैस के संपर्क से अशरफ की मृत्यु हो गई. इसके बाद केसवानी ने संयंत्र की इंटरनल जानकारी हासिल करने के लिए दो पूर्व कर्मचारियों बशीरउल्लाह और शंकर मालवीय से संपर्क किया. इनसे मिली जानकारी के आधार पर केसवानी ने 1982 में अपना पहला लेख लिखा, जिसमें उन्हें नौ महीने लगे थे.
केसवानी ने यूनियन कार्बाइड की रिपोर्ट में मिथाइल आइसोसाइनेट के खतरों को समझा और पाया कि यह गैस ‘हवा से भारी’ थी. जब उन्होंने सेकेंड वर्ल्ड वॉर में फॉस्जीन गैस के उपयोग का जिक्र पढ़ा तो उन्हें संयंत्र की संभावित खतरनाक स्थिति का अंदाजा हुआ.
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नौकरशाह को दिया प्लांट शिफ्ट करना का आइडिया
राजकुमार केसवानी ने प्रदेश के नौकरशाह एम.एन.बुच को सुझाव दिया था कि प्लांट को कहीं और शिफ्ट कर देना चाहिए. इसके पीछे कारण था कि फैक्ट्री के आसपास तेजी से रहवासी बढ़ रहे हैं. प्रशासन ने इसे अनसुना किया और इसके साथ ही यूनियन कार्बाइड ने इसे नजरअंदाज किया.
‘मैं पहला पत्रकार जिसे विफलता के लिए अवॉर्ड मिला’
इसमें कोई दोराय नहीं है कि केसवानी बेहद शानदार पत्रकार थे. पत्रकारिता के लिए उन्हें कई अवॉर्ड भी मिले. 1985 में बी.डी. गोयनका पुरस्कार और 2008 में माधवराव सप्रे पुरस्कार से सम्मानित किया गया. एक पुरस्कार सम्मान में केसवानी ने कहा था कि ‘शायद मैं पहला व्यक्ति हूं जिसने इतनी बड़ी पत्रकारिता विफलता के लिए पुरस्कार प्राप्त किया है. अगर मेरी चेतावनियों को समय रहते सुना गया होता, तो इस त्रासदी को टाला जा सकता था.’
आज भी हम राजकुमार केसवानी को याद करते हैं. सही समय पर केसवानी की बात सुन ली जाती तो आज हजारों लोगों की जान बच सकती थी. काम की लगन को लेकर उन्हें कैसेंड्रा (ग्रीक भाषा का शब्द जिसका अर्थ पुरुषों में श्रेष्ठ होना है) और ‘जंगल में अकेली आवाज’ कहा गया.