Chhattisgarh Tableau: कर्तव्य पथ पर निकली छत्तीसगढ़ की झांकी ‘मुरिया दरबार’, जानें क्या है लिमऊ-राजा की कहानी

Chhattisgarh Tableau: नई दिल्ली के कर्तव्य पथ पर गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल छत्तीसगढ़ की झांकी 'बस्तर की आदिम जनसंसद मुरिया दरबार' ने दर्शकों का मन मोह लिया.
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छत्तीसगढ़ की झांकी

Chhattisgarh Tableau: नई दिल्ली के कर्तव्य पथ पर गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल छत्तीसगढ़ की झांकी “बस्तर की आदिम जनसंसद मुरिया दरबार ने दर्शकों का मन मोह लिया. राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित मुख्य अतिथि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने भी छत्तीसगढ़ की झांकी देखी है. दरअसल प्रदेश की इस झांकी के विषय चयन और प्रस्तुतिकरण के लिए राज्य शासन ने जनसंपर्क विभाग को जिम्मेदारी दी थी. विषयों पर व्यापक शोध के बाद वरिष्ठ अधिकारियों और विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में झांकी को तैयार किया गया था.

छत्तीसगढ़ की झांकी भारत सरकार की थीम ‘भारत लोकतंत्र की जननी’ पर आधारित थी. यह झांकी जनजातीय समाज में आदि-काल से उपस्थित लोकतांत्रिक चेतना और परंपराओं को दर्शाती है, जो आजादी के 75 साल बाद भी राज्य के बस्तर संभाग में जीवंत और प्रचलित है. इस झांकी में केंद्रीय विषय “आदिम जन-संसद” के अंतर्गत जगदलपुर के “मुरिया दरबार” और कोंडागांव जिले के बड़े डोंगर में स्थित “लिमऊ-राजा” को दर्शाया गया था. झांकी के प्रदर्शन के दौरान कर्तव्य पथ पर छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों ने परब नृत्य भी प्रस्तुत किया.

परेशानियों को हल करने के लिए ‘मुरिया दरबार’ परंपरा की शुरुआत

बता दें कि छत्तीसगढ़ के बस्तर में एक समय ऐसा भी था जब आदिवासी समुदायों के बीच कोई राजा नहीं होता था, ऐसे में लोगों ने अपनी समस्याएं और परेशानियों को हल करने के लिए ‘मुरिया दरबार’ परंपरा की शुरुआत की, जिसमें लोग अपनी बात रखते थे और आपस में बातचीत करके निर्णय लेते थे. इस प्रक्रिया में कोई इंसान मध्यस्थता करने के लिए नहीं होता था बल्कि नींबू को प्रतीक के तौर पर राजा मानकर निर्णय लिया जाता था.

कैसे शुरु हुई मुरिया दरबार की प्रथा

आदिवासी समाज की अधिकांश प्रथा प्रकृति से जुड़ी है. जहां आज के समय में हम प्रकृति के दूर होते जा रहे हैं, नई तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं. वहीं आदिवासी समाज आज भी अपनी समस्या को दरबार के माध्यम से रखता है, जो बस्तर में ‘मुरिया दरबार’ के नाम से प्रसिद्ध है. 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा की एक परंपरा है.

इसकी शुरुआत 8 मार्च, 1876 को हुई थी, जिसमें सिरोंचा के डिप्टी कमिश्नर मेक जार्ज ने मांझी-चालकियों को संबोधित किया था. बाद में लोगों की सुविधा के अनुरूप इसे बस्तर दशहरा का अभिन्न अंग बनाया गया, जो परंपरानुसार 148 साल से जारी है. प्राचीन समय में इस परंपरा में राजा मौजूद रहते थे और वह ग्रामीणों की समस्याएं सुनकर उनका हल निकालते थे. समय के साथ राजा महाराजाओं का दौर खत्म हुआ और परंपराएं भी बदलीं. अब ग्रामीणों की समस्याएं शासन प्रशासन के लोग सुनते हैं.

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