फिल्म “Despatch” नहीं कर पाती दर्शकों को अटैच, कहानी को स्क्रीन पर उतारने में चूक गए कनु बहल
Dispatch: 13 दिसंबर को ज़ी-5 पर रिलीज हुई फिल्म डिस्पैच एक ऐसे पत्रकार जॉय (मनोज बाजपेयी) की कहानी है, जो हर समय अपनी अगली बड़ी खबर के पीछे भागता रहता है. बदलते समय के साथ जब ‘डिजिटल फर्स्ट, प्रिंट लेटर’ का दौर न्यूजरूम में हावी हो चुका है, जॉय को एक बड़े घोटाले का सुराग मिलता है. यह घोटाला अंडरवर्ल्ड, पुलिस, और हाई-प्रोफाइल लोगों से जुड़ा है, जो देश को हिला सकता है.
वहीं दूसरी तरफ, जॉय की निजी जिंदगी उथल-पुथल से भरी है. उसकी शादी श्वेता (शहाना गोस्वामी) से टूटने की कगार पर है, और वह अपनी प्रेमिका प्रेरणा (अर्चिता अग्रवाल) के साथ एक नई शुरुआत करने की योजना बना रहा है. इन जटिल हालातों के बीच, जॉय किस तरह इस घोटाले का पर्दाफाश करता है, यही फिल्म की कहानी है.
पटकथा और निर्देशन
फिल्म का विषय बेहद सामयिक और गहरा है. डिजिटल मीडिया और पत्रकारिता के बदलते स्वरूप पर बनी यह फिल्म एक अलग दृष्टिकोण पेश करती है. लेकिन कहानी को स्क्रीन पर उतारने में निर्देशक कनु बहल चूक गए. फिल्म का निर्माण रोनी स्क्रूवाला के आरएसवीपी मूवीज के तहत हुआ है, जो हमेशा कंटेंट-ड्रिवन फिल्मों के लिए जाने जाते हैं. इस बार उन्होंने कनु बहल और मनोज बाजपेयी की जोड़ी के साथ एक क्राइम थ्रिलर पेश की है, जिसमें पत्रकारिता और अंडरवर्ल्ड की परतों को खोलने की कोशिश की गई है.
पटकथा कई जगह कमजोर लगती है. जॉय का किरदार एक पत्रकार से ज्यादा इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर जैसा प्रतीत होता है. फिल्म में उसे पुलिस रेड में हिस्सा लेते, अपराधियों को धमकाते, और विदेश जाकर आसानी से जानकारी इकट्ठा करते दिखाया गया है. यह सब कहानी की वास्तविकता पर सवाल खड़ा करता है.
फिल्म कई बार बोर करती है और इसकी गति काफी धीमी है. पटकथा दर्शकों को बांधे रखने में नाकाम रहती है. फिल्म में कई बार घटनाएं इतनी उलझ जाती हैं कि दर्शक कंफ्यूज हो जाते हैं. एक क्राइम थ्रिलर से जो रोमांच और गति की उम्मीद होती है, वह यहां गायब है.
अभिनय
मनोज बाजपेयी ने अपने किरदार को बखूबी निभाया है. उनके चेहरे पर दिखता तनाव और उलझन उनके अभिनय की गहराई को दर्शाता है. हालांकि, किरदार को जिस तरह लिखा गया है, वह उसे कमजोर बना देता है.
शहाना गोस्वामी ने अपनी सीमित भूमिका में प्रभावशाली प्रदर्शन किया है. अर्चिता अग्रवाल ने प्रेरणा के किरदार को आत्मविश्वास और बेबाकी के साथ निभाया है. सहायक कलाकारों ने भी अपनी भूमिकाओं में अच्छा काम किया है, लेकिन उन्हें ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं दिया गया.
तकनीकी पक्ष
फिल्म की सिनेमैटोग्राफी औसत है. शहर का माहौल और न्यूजरूम की व्यस्तता को दिखाने की कोशिश की गई है, लेकिन इसे गहराई से पेश नहीं किया गया. बैकग्राउंड म्यूजिक और संवाद सामान्य हैं, जो फिल्म को खास बनाने में विफल रहते हैं.
फिल्म की खास बातें और खामियां
फिल्म पत्रकारिता के कुछ पहलुओं को अच्छी तरह दिखाने में सफल रहती है, जैसे जॉय का अपने सूत्रों के साथ चाय के ठेले पर बातचीत करना और खबरों के पीछे की राजनीति. लेकिन फिल्म कई मोर्चों पर कमजोर साबित होती है.
गति की कमी: फिल्म का अधिकांश हिस्सा धीमा है, जो इसे बोरिंग बना देता है.
वास्तविकता से दूरी: जॉय का किरदार और उसकी हरकतें वास्तविक पत्रकारों से मेल नहीं खातीं.
कन्फ्यूजन: कहानी में कई किरदार और घटनाएं इतनी उलझी हुई हैं कि दर्शक उनसे जुड़ नहीं पाते.
मनोरंजन का अभाव: यह फिल्म गंभीर दर्शकों के लिए है, लेकिन मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को निराश करती है.
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फिल्म का उद्देश्य और अनुभव
डिस्पैच एक बेहतर विषय पर बनाई गई फिल्म है, लेकिन इसे पर्दे पर प्रभावी ढंग से उतारने में निर्देशक सफल नहीं हो पाए. कनु बहल, जिन्होंने तितली और अगरा जैसी फिल्मों में गहराई और संवेदनशीलता दिखाई थी, इस बार वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाए.
कुल मिलाकर देखें तो डिस्पैच एक ऐसा प्रयास है, जो एक महत्वपूर्ण और सामयिक विषय पर आधारित है. लेकिन इसे पर्दे पर प्रभावी ढंग से पेश करने में फिल्म नाकाम रहती है. गंभीर और सोचने वाले दर्शकों को यह फिल्म पसंद आ सकती है, लेकिन मनोरंजन की तलाश में आए दर्शकों को यह निराश करेगी. डिस्पैच पत्रकारिता के बदलते स्वरूप को दिखाने की कोशिश करती है. हालांकि, इसकी धीमी गति, कमजोर पटकथा, और उलझी हुई कहानी इसे औसत बना देती है. मनोज बाजपेयी के शानदार अभिनय और फिल्म के विषय की नवीनता के लिए इसे एक बार देखा जा सकता है. लेकिन मनोरंजन और थ्रिल की उम्मीद रखने वाले दर्शकों के लिए यह फिल्म निराशाजनक साबित हो सकती है.