अखिलेश यादव की तरह BJP को पटखनी क्यों नहीं दे पाए तेजस्वी यादव? जान लीजिए पूरी ABCD

पटना से गंगा नदी के उस पार राजद उत्तर बिहार की कोई भी सीट जीतने में विफल रही. इसमें हाजीपुर से वाल्मीकि नगर तक और सारण से लेकर यूपी की सीमा से लगे गोपालगंज तक क्षेत्र फैली हुई है.
अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव

अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव

Election 2024: लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे भी आ गए. अब नरेंद्र मोदी तीसरी बार लगातार पीएम पद की शपथ भी लेने जा रहे हैं. लेकिन अब भी अलग-अलग नेताओं और उनकी नीतियों की चर्चा हो रही है. ऐसे ही दो नेता हैं अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव. बिहार में इंडी ब्लॉक ने इस बार लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव के नेतृत्व में चुनाव लड़ा, जबकि यूपी में अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी का नेतृत्व किया. राजद ने इस बार अपनी स्थिति में सुधार भी किया है. 2019 के चुनाव में राजद एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. हालांकि, इसके बावजूद अपने राज्य में अखिलेश की उपलब्धि को दोहरा नहीं पाए. आज यहां हम वो कारण बता रहे हैं, जिसकी वजह से तेजस्वी यादव अखिलेश यादव की तरह शानदार प्रदर्शन नहीं कर पाए.

‘एम-वाई’ से ‘पीडीए’ का सफर

बता दें कि साल 2019 के लोकसभा चुना में सपा ने यूपी में सिर्फ 5 सीटें जीती थीं. उस समय अखिलेश यादव की पार्टी राज्य की 80 सीटों में से 37 सीटों पर चुनाव लड़ा था. मौजूदा चुनाव में सपा ने 62 सीटों पर और कांग्रेस 17 सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा. लेकिन इस बार अखिलेश यादव की नीति अलग रही. अपने मूल मुस्लिम-यादव (M-Y) वोट आधार को बनाए रखने और गैर-यादव ओबीसी के वोटों में सेंध लगाने की कोशिश में सपा ने यादव समुदाय से केवल 5 उम्मीदवार मैदान में उतारे. सबसे खास बात ये कि सभी यादव उम्मीदवार मुलायम सिंह यादव के परिवार से ही थे.

2019 में सपा ने अपने 37 उम्मीदवारों में से 10 यादव चेहरे मैदान में उतारे थे. इस बार, सपा ने केवल चार मुस्लिम उम्मीदवारों को मैदान में उतारा. वास्तव में अखिलेश ने अपने वोट आधार के लिए एक नया नारा गढ़ा, जो “एम-वाई” से “पीडीए” तक फैल गया. इस लिए सपा के टिकटों का बड़ा हिस्सा गैर-यादव ओबीसी से 27, अनुसूचित जाति (SC) से 15 और 11 उच्च जाति के चेहरे (जिनमें चार ब्राह्मण, दो ठाकुर, दो वैश्य और एक खत्री शामिल हैं) को दिया गया.

अयोध्या से अखिलेश ने चला दलित कार्ड

दलितों तक अपनी पहुंच बनाने के लिए सपा ने एक सामान्य सीट फैजाबाद (अयोध्या) से भी एक पासी (दलित) चेहरे अवधेश प्रसाद को मैदान में उतारा, उन्होंने चुनाव जीत कर इतिहास रच दिया.  जबकि तेजस्वी भी राजद के आधार को उसके पारंपरिक ‘एम-वाई’ वोट बैंक से आगे बढ़ाने के प्रयास कर रहे हैं, लेकिन चुनाव परिणामों से पता चलता है कि उन्हें ज्यादा सफलता नहीं मिल पाई. बिहार में राजद 23 सीटों पर तो कांग्रेस 9 सीटों पर चुनाव लड़ी थी.

हालांकि, राजद सिर्फ 4 सीट ही जीत पाई, वहीं कांग्रेस को तीन और दो सीटें सीपीआई एमएल ने जीतीं. दूसरी ओर भाजपा ने 17 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की, जबकि जेडी(यू) ने 16 में से 12 सीटें जीतीं, जबकि चिराग पासवान की अगुवाई वाली एलजेपी (रामविलास) ने सभी पांच सीटों पर जीत हासिल की.

जातियों को देखकर टिकटों का बंटवारा

इस चुनाव में अखिलेश ने विभिन्न जाति समूहों को ध्यान में रखते हुए गैर-यादव और गैर-मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिए. तेजस्वी ने अच्छी संख्या में कुशवाहा (गैर-यादव ओबीसी) को टिकट दिए. इसकी तुलना में अखिलेश ने कुर्मी, निषाद और कुछ ईबीसी (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) चेहरों को भी टिकट दिए. जबकि तेजस्वी ने मुकेश सहनी (विकासशील इंसान पार्टी प्रमुख) जैसे जाति के नेता की तलाश की, अखिलेश ने सीधे अपने पारंपरिक वोट आधार से परे ऐसी जातियों को प्रतिनिधित्व देने की कोशिश की. अपने 23 उम्मीदवारों में से राजद ने आठ यादव, चार कुशवाहा, दो ईबीसी उम्मीदवार, चार दलित, दो मुस्लिम, दो उच्च जाति के चेहरे और एक बनिया को मैदान में उतारा.

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नीतीश फैक्टर से लगा झटका

अखिलेश के विपरीत तेजस्वी को नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली जेडीयू से सामना करना पड़ा. दरअसल, बिहार में एनडीए के लिए गेम-चेंजर साबित हुई, जिसमें नीतीश ने ईबीसी और महादलित समुदायों में अपना समर्थन आधार बनाए रखा. अपने 16 उम्मीदवारों में से जेडीयू ने छह ईबीसी चेहरे, तीन कुशवाह, एक कुर्मी (ओबीसी), दो यादव, एक मुस्लिम और एक दलित को मैदान में उतारा.

कैसा रहा क्षेत्रीय प्रभाव?

बिहार में इंडिया ब्लॉक ने तीन क्षेत्रों – शाहाबाद, मगध और सीमांचल पर अपना दबदबा बनाया. इसने शाहाबाद में तीन सीटें – आरा, बक्सर और सासाराम  और मगध में दो सीटें – औरंगाबाद और काराकाट – जीतकर शानदार प्रदर्शन किया. इसने प्रतिष्ठित पाटलिपुत्र सीट भी जीती, जहां राजद की मीसा भारती ने भाजपा के मौजूदा सांसद रामकृपाल यादव को हराया. मीसा की जीत का एक बड़ा कारण राजद के पारंपरिक एम-वाई आधार से परे उनकी पहुंच थी. बक्सर में राजद की जीत अधिक महत्व रखती है क्योंकि भाजपा इसे अपनी सबसे सुरक्षित सीटों में से एक मानती है, जिसका प्रतिनिधित्व पहले पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्विनी कुमार चौबे करते थे.

औरंगाबाद में राजद ने ओबीसी कुशवाहा वोटों को भी डायवर्ट करने में सफलता पाई, क्योंकि लो-प्रोफाइल अभय कुशवाहा ने भाजपा के मौजूदा सांसद सुशील कुमार सिंह को हराया. राजद ने कुछ महत्वपूर्ण सीटों पर अपने वोटों को अपने इंडी गुट को हस्तांतरित करने में भी सफलता प्राप्त की. इनमें आरा की सीट भी शामिल है. यहां से सीपीआई एमएल) के सुदामा प्रसाद ने भाजपा के हाई-प्रोफाइल उम्मीदवार और पूर्व केंद्रीय मंत्री आर के सिंह को हराया.

वहीं पटना से गंगा नदी के उस पार राजद उत्तर बिहार की कोई भी सीट जीतने में विफल रही. इसमें हाजीपुर से वाल्मीकि नगर तक और सारण से लेकर यूपी की सीमा से लगे गोपालगंज तक क्षेत्र फैली हुई है. पार्टी एनडीए से दरभंगा, झंझारपुर और मधुबनी की मिथिलांचल सीटों के अलावा कोसी क्षेत्र की सुपौल और मधेपुरा सीटों को भी छीनने में विफल रही. यहां राजद के ठीक-ठाक प्रदर्शन नहीं करने के पीछे सहयोगी पार्टी के कोर वोटरों को वोट न मिलना बताया जा रहा है.वीआईपी खुद पूर्वी चंपारण, गोपालगंज और झंझारपुर सीटों पर एनडीए से बुरी तरह हारी.

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