Silicosis a lung disease: “हमको तो लगता है कि हम मर जाएं तो बेहतर हो, ऐसे दर्द में तीन दशक से जी रहे हैं, अब हिम्मत नहीं है,” 67 वर्षीय वैदेही प्रसाद ये कहते हुए रो पड़ते हैं. वैदेही प्रसाद की जिंदगी मध्यप्रदेश के पन्ना जिले में स्थिति सैकड़ों पत्थर खदानों में से एक खदान में शुरू हुई और आज लगभग तीन दशक बाद वो इस मोड़ पर खड़े हैं कि एक दिन भी बिना दर्द के नहीं गुज़ार पाते हैं. ये दर्द जिसका नाम है सिलिकोसिस और कारण है पत्थर खदानों में काम करने के दौरान सांस के माध्यम से अंदर जाने वाला सिलिका यानी कि पत्थर के बहुत महीन पाउडर नुमा कण, ये दर्द पन्ना के कई परिवारों बल्कि कई पीढ़ियों का दर्द बन चुका है.
मध्य प्रदेश के पन्ना जिले में पत्थरों का बहुत बड़ा व्यापार है, इसमें हजारों मजदूर काम करते हैं और बदले में इन मजदूरों को क्या मिलता है? मिलती है एक लाइलाज़ बीमारी Silicosis. आज आपको इन्हीं परिवारों, इन पत्थर फोड़ने वाले मजदूरों की कहानियाँ बताते हैं जिनकी मेहनत से हमारा घर बनता है और जिनकी वही मेहनत उन्हें मौत की दहलीज़ तक ले जाती है. खबर करने पहुंचे तो पन्ना के साथी रविकांत पाठक हमें ले गए बढ़ोर गांव जहां वैदेही प्रसाद और उनके साथ बैठे इसी बीमारी के साथी लच्छू लाल मिले. हमने जैसे ही सिलिकोसिस बीमारी के बारे में जानना चाहा वैदेही प्रसाद का मानो भावनाओं का बांध टूट गया हो.
“सीने में दर्द है श्रीमान, सीने में बहुत दर्द है. जब पन्ना में अस्पताल में भर्ती हुए तो डॉक्टर ने पूछा कि पत्थर का काम करते थे क्या? हमने बताया कि हां पत्थर खदान में काम करते है. वही काम ही था, हमारे पास यहां और कोई काम नहीं था. यहीं चलती थीं खदानें बहुत सारी तो वही पत्थरों का काम करते थे. डॉक्टर ने फिर बताया कि मुझे सिलिकोसिस की बीमारी हो गई है. वही दवाई चलती रही, उसकी दवाई खाता रहा फिर अस्पताल से छुट्टी हो गई और मुझे डॉक्टरों ने यह कहा कि यही दवाई खाते रहो आराम मिलेगा लेकिन आराम नहीं मिला,” वैदेही प्रसाद ने हमसे कहा.
हमने जब वैदेही प्रसाद से पूछा कि पत्थर काटने, या अन्य उद्योगों में काम करने वाले लोगों को सुरक्षा के उपाय दिए जाते हैं क्या आप लोगों को किसी ने नहीं बताया था तो जवाब में वैदेही प्रसाद ने कहा “किसी ने कुछ नहीं बताया, कुछ नहीं ठेकेदारों ने. कभी किसी ने नहीं बताया कि इससे ये सिलिकोसिस की बीमारी हो जाएगी वरना हम भूखे मर जाते लेकिन ये काम न करते”. सिलिकोसिस, एक जानलेवा बीमारी है जो कि सिलिका मिश्रित धूल के इंसानी शरीर में जाने से होती है. इस बीमारी का होना इंसान के हाथ में अपना मृत्यु प्रमाण पत्र होने जैसा है.
भारत में हर साल हजारों मजदूर इस बीमारी का शिकार बनते हैं. सिलिका डस्ट के शरीर में जाने से फेफड़ों की बीमारी होती है. ये धूल जिसमे सिलिका मिला हुआ है वो धीरे धीरे लंग्स में इक्कट्ठी होती है और मांस मज्जा से बने लंग्स पथरीले होते जाते हैं. वैदेही प्रसाद के गांव के साथी लच्छू लाल भी इसी बीमारी से पीड़ित है. जब हम मिले तो लच्छू लाल दवाइयों की एक नई खेप अस्पताल से लेकर लौटे थे.
टीबी और सिलिकोसिस बीमारी में अंतर पहचानने में हो रही चूक?
लच्छू लाल ने बताया, “हल्की फुल्की तबीयत गड़बड़ हुई तो डॉक्टरों ने कहा कि टीबी हो गई है. 10 महीने बाद मुझे खून की उल्टियां होने लगीं. उस साल जो तबियत खराब हुई तो फिर हम टूट गए. लोगों ने कहा कि अब तुम्हे पन्ना की दवाई ही असर करेगी फिर दो तीन साल खाई पन्ना की दवाई. 6 महीने का कोर्स था तीन डब्बे दवाई खाई”.
जब इन दवाइयों के असर पर सवाल पूछा तो लच्छू लाल ने बताया कि पहले उन्हें टीबी की बीमारी होना बताया गया था. “कुछ भी आराम नहीं मिला भईया, आंतों में छाले अलग हो गए थे. फिर चित्रकूट गए तो वहां की दवाई से आराम मिला. फिर वहीं की दवाई चलती रही बस ऐसे ही जी रहे हैं. पहले डॉक्टरों ने बताया कि टीबी हो गई है 4-5 साल टीबी के लिए दवाई खाई मैंने लेकिन असर कैसे होता. बीमारी ही दूसरी थी. ये तो वही बात हो गई कि दर्द सर में हो और आप पेट खराब होने की दवाई खाएं,” लच्छू लाल ने कहा.
ग्रामीण अंचल में सिलकोसिस नामक इस बीमारी के बारे में जानकारी का अभाव बहुत है. लोग वर्षों से यहां टीबी की दवाई खा रहे हैं, कइयों की तो सिलिकोसिस है या नहीं इसकी जांच भी नहीं हुई है. दरअसल टीबी एक बैक्टिरियल इन्फेक्शन है जो कि मुख्य तौर पर फेफड़ों को प्रभावित करता है और सिलिकोसिस सिलिका डस्ट के फेफड़ों में जमा होने से होती है.
ज़मीनी हकीकत यह है कि सिलिकोसिस पीड़ितों की सही पहचान नहीं हो पाती क्योंकि टीबी की जांच बलगम, रक्त व एक्सरे की सहायता से की जाती है वहीं, सिलिकोसिस का पता अल्ट्रासाउण्ड और बायोप्सी जैसी जांच से ही लगाया जा सकता है. लछुलाल और वैदेही प्रसाद के गांव से लगभग 20 किलोमीटर दूर स्थित है गांधीग्राम. बाहर से देखने में किसी आम भारतीय गांव जैसा दिखता है लेकिन मशहूर है विधवाओं के गांव के नाम से. हंसते खेलते गांव की ये पहचान पत्थर खदानों द्वारा पहुंचाई गई चोट है. इसी गांव में रहती हैं दयाराम अहिरवार की मां जो कभी अपना ससुराल छोड़ मायके में लौट आईं थीं वो बताती हैं कि उनके पति टीबी की दवाई खाते खाते एक सुबह खत्म हो गए.
“ऐसा कोई साल नहीं होता है जब किसी की मृत्यु इन खदानों के कारण न हुई हो. पति ज्यादा खतम होते हैं. औरतें कम, औरतें नहीं मरती हैं. पतियों को पत्थर खदानों में ज्यादा मेहनत करनी पड़ती है. उनके अंदर धूल ज्यादा जाती है क्योंकि पुरुष ही पत्थर कटाई करते हैं महिलाएं उस से निकलने वाले कचरे को समेटने और फेंकने में रहती हैं… इसीलिए आप देखेंगे कि लगभग हर घर में कोई न कोई विधवा है. बल्कि कई घरों में तो 2-3 पीढ़ियों की विधवाएं एक साथ देखेंगे आप” दयाराम की मां ने अपने कच्चे घर के आंगन में बैठे बैठे ये बात कही. एक तरफ दयाराम की मां की आंखों में शून्य झलकता है तो वहीं दूसरी तरफ अपने बेटे को पति की तरह उसी बीमारी की चपेट में देखकर दुख. “हां हर घर में हैं कुछ घरों को छोड़कर हर घर में दवाई चलती है. और जैसे ही पति बीमार हो जाते हैं तो फिर उनके बच्चे वही काम करते हैं. पैसा कमाना ही है वरना भूख कैसे मिटेगी ?” दयाराम की मां ने बात जोड़ी.
दयाराम के पिता और भाई सभी पत्थर खदानों में काम करते थे और दूसरे वैकल्पिक उद्योग या पैसे कमाने के जरिए के अभाव में दयाराम भी इसी काम में लग गए थे. 15 वर्ष की उम्र से पत्थर कटाई में जुटे दयाराम बताते हैं कि, “समस्या टीबी बोलते हैं डॉक्टर, मैं लगभग 10-12 वर्षों से मैं परेशान हूं. टीबी टीबी टीबी दवाई खाते लेकिन आराम नहीं मिला. टीबी के इलाज में चलने वाला DOTS का कोर्स भी पूरा चला, कई बार कोर्स पूरा किया प्राइवेट अस्पतालों में भी दिखाया, जब तक दवाई खाते रहो तब तक आराम रहता है और जैसे ही दवाई बंद वैसे ही ज्यों का त्यों.”
ये कहानी नई नहीं है, कई बार बताई जा चुकी है, बावजूद इसके आखिर इन कहानियों में कमी क्यों नहीं आती, ये कहानियां खत्म क्यों नहीं होती. आखिर इसका जिम्मेदार कौन है, सरकारी उदासी या ठेकेदारों की धमक या फिर गरीबों की बेबसी. ये बीमारी जो समाज के सबसे गरीब और निचले तबके की रोज़ी रोटी, उनके परिवारों का सुख, उनके बच्चों की पढ़ाई और भविष्य से लेकर उनकी नस्लें बर्बाद कर देने का कारण है इस पर लगाम क्यों नहीं लग पा रही है?
पन्ना के गांधी ग्राम गांव में लगभग हर परिवार में कोई न कोई व्यक्ति सिलिका डस्ट से होने वाली बीमारी से पीड़ित है, कइयों को तो ये भी नहीं पता चल पाता कि वो TB के मरीज हैं या सिलिकोसिस से पीड़ित हैं, बस दवाई खाते रहते हैं और एक दिन उनकी मृत्यु हो जाती है.
इसी गांव की रहवासी हैं तिरसिया बाई जो अपनों को silicosis के हाथों हार जाने के बाद आज भी आर्थिक मदद की राह ताक रही हैं. “इसी पत्थर खदान में मेरा आदमी चला गया, इसी में सास चली गई, इसी में देवर चले गए, और मेरा जवान लड़का पत्थरों का काम करके अभी मर गया, अभी वर्ष भर पूरा नहीं हुआ है…. इसी में मेरी बड़ी बहू भी खत्म हो गई है,” तिरसिया बाई ने कहा.
तिरसिया बाई ने अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि “ मेरे पति की मौत सिलिकोसिस से कई साल पहले हो चुकी है. इस मैटर में हमें पन्ना (जिला मुख्यालय) बुलाया जाता था, तो पन्ना जाते थे, महीना भर दौड़े लेकिन कोई आर्थिक मदद नहीं मिली सर. रोड में काम करती थी मैं जब वो खत्म हुए थे, हमारी फोटो खींच कर ले गए ये कहते हुए कि मदद मिलेगी लेकिन कोई मदद नहीं मिली”. वैसे तो सिलिकोसिस का खतरा सिलिका डस्ट जहां भी पाई जाती है वहीं मौजूद रहता है लेकिन पत्थर कटाई, मूर्तिकारी, पेंसिल निर्माण, सिरामिक, पाउडर इंडस्ट्री, धातु और कांच के उद्योगों में इसका खतरा बहुत ज्यादा होता है.
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सिलिकोसिस न सिर्फ मध्य प्रदेश बल्कि गुजरात, राजस्थान, पॉन्डिचेरी, हरयाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, उड़ीसा और वेस्ट बंगाल सहित दिल्ली से सटे इलाकों में भी भारी मात्रा में पाया जाता है. दिहाड़ी मजदूरी पर काम करने को मजबूर ये लोग मात्र 250- 300 रुपयों के लिए एक जानलेवा बीमारी को गले लगा लेते हैं. पन्ना में 2011 में, दिल्ली स्थित एक NGO Environics Trust ने पन्ना जिले के एक चिकित्सा शिविर में 78 लोगों को सिलिकोसिस से पीड़ित पाया था.
ये बात और है कि वर्ष 2024 आते आते ये संख्या सरकारी दावों में महज 15-20 तक सिमट गई है जिसमे अधिकांश वो लोग हैं जिनके सिलोकिसिस पीड़ित होने की जानकारी 2017 में मिली है. ग्रामीणों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मानें तो सरकारी आंकड़े दूर दूर तक सच्चाई बयां नहीं करते.
पन्ना जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी Dr वी. एस उपाध्याय ने दावा किया कि जिले में मात्र 20 ही सिलिकोसिस पीड़ित हैं लेकिन सामाजिक कार्यकर्ता और पृथ्वी ट्रस्ट जो कि सिलिकोसिस पीड़ितों की लड़ाई लड़ने के साथ साथ उन परिवारों के जीवन यापन के लिए भी रास्ते बना रहा है उनकी संयोजक समीना बेग ने इस आंकड़े से इतर ये दावा किया कि सिलिकोसिस पीड़ितों की संख्या सैकड़ों में है और सरकारी उदासीनता और सिलिकोसिस पीड़ितों के लिए नदारद सरकारी मदद को सिलिकोसिस के खिलाफ लड़ाई का सबसे बड़ा कांटा बताया है.
“हमने एक दशक पहले एक जांच कैंप में 45 मजदूरों की जांच की जिसमें 39 मज़दूर सिलिकोसिस पीड़ित थे. पन्ना में हज़ारों लोग इस व्यवसाय से जुड़े हैं ऐसे में इस बीमारी से पीड़ितों की संख्या सरकारी दावों से बहुत ज्यादा है”.
हम और आप जब इत्मीनान से बैठे हैं, इन लोगों की कहानियां सुन रहे हैं तो ये भी सुन लीजिए कि ये सिर्फ शारीरिक रूप से पीड़ित नहीं हैं, बल्कि मानसिक रूप से भी व्यथित हैं. वैदेही प्रसाद ने लगभग अपने सारे दोस्त इसी बीमारी को खो दिए हैं. अपने बचपन के दोस्तों के बिना गांव की उन्हीं गलियों में बीमारी से त्रस्त शरीर और हारा हुआ मन लेकर जीवन और कठिन हो गया है.
“बहुत लोग मर गए हैं सर. बहुत लोग मर गए. हम लोग सिर्फ 6-8 लोग बचे हैं बांकी सब खत्म हो गए हैं. हम लोग भी अब जाने वाले हैं. हमारे समय के सब लोग खत्म हैं. बाकी हमारे संगी साथी लोग हर साल ही खत्म होते जा रहे हैं,” वैदेही प्रसाद
मध्यप्रदेश के पन्ना में एक दर्द छिपा है, वो दर्द है जीते जी मदद न मिलने का. वर्षों से सिलिकोसिस पीड़ितों को पहले तो बीमारी के बारे में जानकारी नहीं थी जब जानकारी हुई तो पता चला की ये लाइलाज बीमारी है. पीढ़ियां खप गईं पत्थरों को काटते काटते और जब जरूरत पड़ी तो सारा सिस्टम पत्थर बन गया. इनकी मदद को कोई नहीं आता, इनकी सिर्फ एक ही रिक्वेस्ट है कि एक ही डिमांड है कि जिंदा रहते मदद मिल जाए तो कुछ दिन और जी लें.