विधानसभा चुनाव में जनसुराज कितना असरदार? क्या आएगी बिहार में बहार?

प्रशांत किशोर
Bihar Election 2025: बिहार, एक ऐसा राज्य जिसकी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत भारत की आत्मा में रची-बसी है. चाणक्य, अशोक और बुद्ध की भूमि होने का गौरव रखने वाला यह राज्य कभी देश के विकास का अग्रदूत था. लेकिन 1970 के दशक के बाद से यह धरती राजनीतिक अस्थिरता और विकासहीनता की गिरफ्त में आती गई. 1967 से 1990 तक के 23 वर्षों में 20 से ज़्यादा सरकारों का आना-जाना यह दर्शाता है कि सत्ता की कुर्सी पर स्थायित्व की भारी कमी रही. इसी अस्थिरता ने बिहार को विकास की दौड़ में पीछे धकेल दिया.
बिहार की नीतीश सरकार का कार्यकाल 23 नवंबर 2020 से शुरू हुआ था. नीतीश सरकार का कार्यकाल इस साल 22 नवंबर तक है. जाहिर है कि इससे पहले चुनाव होंगे. माना जा रहा है कि सितंबर से अक्टूबर के बीच आचार संहित लग जाएगी. माना ये भी जा रहा है कि अक्टूबर से नवंबर के शुरुआती हफ्ते के बीच वोटिंग और मतों की गिनती संपन्न कराई जा सकती है.
अब, जब 2025 के विधानसभा चुनाव का बिगुल बजने को है, एक अहम सवाल फिर सिर उठा रहा है- क्या बिहार अब एक नए राजनीतिक विकल्प को अपनाने के लिए तैयार है? और अगर हां, तो क्या वह विकल्प प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज बन सकती है?
प्रशांत किशोर और जन सुराज की राजनीतिक यात्रा
प्रशांत किशोर, भारत के सबसे चतुर और सफल राजनीतिक रणनीतिकारों में गिने जाते हैं. उन्होंने मोदी (2014), नीतीश (2015), कांग्रेस (पंजाब 2017), और ममता बनर्जी (2021) जैसे बड़े नेताओं के लिए जीत की पटकथा लिखी है. लेकिन जब बात खुद राजनीति में उतरने की आई, तो चुनौती पूरी तरह अलग दिखी.
उनकी पार्टी ‘जन सुराज’ खुद को पारंपरिक दलों से अलग बताती है. यह पार्टी तीन बुनियादी सिद्धांतों पर टिकी है- सही लोग, सही सोच, और सामूहिक प्रयास. प्रशांत किशोर इसे ‘जनता का स्वराज’ कहते हैं. जहां नेतृत्व थोपे नहीं, चुने जाएं. लेकिन क्या ये बातें वोट में तब्दील हो पाती हैं?
एक निजी मीडिया चैनल इंटरव्यू देते हुए उन्होंने यह भी दावा किया है कि इस बार नीतीश कुमार मुख्यमंत्री नहीं होंगे. बिहार को एक नया मुख्यमंत्री मिलने वाला है. हालांकि वह किसी पार्टी या नेता का नाम लेने से किनारा लेते हुए नजर आए. साथ ही उन्होंने यह भी दावा किया कि इस बार बिहार विधानसभा चुनाव में “जन सुराज” के चुनाव लड़ने से सबसे ज्यादा नुकसान NDA को होगा.
उपचुनाव में हार: जनता का संकेत?
नवंबर 2024 में हुए बिहार उपचुनावों को जन सुराज के लिए एक ‘लिटमस टेस्ट’ माना जा रहा था. पार्टी ने चार सीटों पर उम्मीदवार उतारे लेकिन चारों सीटों पर करारी हार मिली और तीन में तो जमानत तक जब्त हो गई.
परिणाम
रामगढ़ – बीजेपी जीती
तारारी – बीजेपी
बेलागंज – जेडीयू
इमामगंज – हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा
इस हार ने यह साफ कर दिया कि जमीन पर जन सुराज की पकड़ फिलहाल बहुत कमजोर है.
जन सुराज: एक आंदोलन या एक और प्रयोग?
2020 में प्लुरल्स पार्टी और पुष्पम प्रिया ने भी हाई-प्रोफाइल एंट्री की थी- लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स की डिग्री, ब्लैक आउटफिट, सीएम पद की दावेदारी। पुष्पम प्रिया चौधरी, मुख्यमंत्री पद की दावेदार बनने के साथ ही उनकी लोकप्रियता का कारण उनका ब्लैक आउटफिट था. 2020 में चुनावी नतीजों के बाद पुष्पम प्रिया चौधरी को निराशा हाथ लगी है. उनकी द प्लूरल्स पार्टी का खाता भी नहीं खुला. वहीं, खुद को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने वाली पुष्पम प्रिया को करारी हार मिली. पुष्पम प्रिया चुनाव में 43 सीटों पर उम्मीदवारों को उतारा था. हालांकि, चुनाव में मिली हार के बाद इन सभी के हौसले पस्त हो गए, ऐसे में यह सवाल लाजमी है, क्या जन सुराज भी उसी रास्ते पर जा रही है?
क्या हैं बिहार के मुद्दे?
C-Voter के अनुसार 45% बिहारवासी बेरोजगारी को सबसे बड़ा मुद्दा मानते हैं. इसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, पलायन और भ्रष्टाचार प्रमुख मुद्दे हैं. साथ ही चुनाव से पहले कन्हैया कुमार इन दिनों रोजगार और पलायन के मुद्दे को लेकर यात्रा पर है, ऐसे में बिहार में बेरोजगारी और पलायन मुख्य चुनावी मुद्दा बनते जा रहे हैं. वहीं प्रशांत किशोर इन्हीं मुद्दों को केंद्र में रखकर चुनावी नैरेटिव सेट करने की कोशिश कर रहे हैं:
- शराबबंदी हटाने का वादा: 15-20 हजार करोड़ का नुकसान बताकर शराबबंदी को “ढोंग” करार दिया
- शिक्षा और नौकरियों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने की बात
- बीपीएससी छात्रों के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी
बिहार की वर्तमान राजनीतिक स्थिति
बिहार की वर्तमान राजनीतिक स्थिति काफी दिलचस्प और जटिल बनी हुई है. वर्ष 2020 के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) ने जनता दल यूनाइटेड (JD(U)) के साथ मिलकर गठबंधन (NDA) के तहत चुनाव लड़ा था, जिसमें बीजेपी को 74 सीटें और जेडीयू को 43 सीटें मिली थीं. हालांकि, वर्तमान में यह गठबंधन अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है और सरकार की स्थिरता पर सवाल उठने लगे हैं.
विपक्ष की बात करें तो राष्ट्रीय जनता दल (RJD) ने 2020 में 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी और वह महागठबंधन का नेतृत्व कर रही है. हालांकि वह सत्ता में नहीं है, लेकिन विपक्ष में उसकी स्थिति मजबूत बनी हुई है. कांग्रेस ने भी महागठबंधन का हिस्सा होते हुए 19 सीटें हासिल की थीं. इसके अलावा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM), भाकपा-माले (CPI-ML) जैसी अन्य छोटी पार्टियों ने मिलकर 32 सीटें जीती थीं और वे भी गठबंधन-निर्भर हैं. कुल मिलाकर, बिहार की राजनीति गठबंधनों की जटिलता और दलों के बदलते समीकरणों के कारण लगातार अस्थिर और परिवर्तनशील बनी हुई है.
जन सुराज की रणनीति और भविष्य की संभावनाएं
प्रशांत किशोर का कहना है कि जन सुराज सभी 243 सीटों पर बिना किसी गठबंधन के चुनाव लड़ेगी. यह एक बड़ा राजनीतिक दांव है, लेकिन इसमें जोखिम भी उतना ही बड़ा है. लेकिन पिछले कुछ दशक का इतिहास उठा कर देखे तो बिहार के मूड को एक बार फिर राजद (गठबंधन) की तरफ जाते हुए देखा जा सकता है, क्योंकि सच यह है कि बिहार की जनता आज भी लालू यादव और नितीश कुमार से ऊपर उठ नहीं पाई है, ऐसे में किसी नई पार्टी द्वारा अपनी पैठ बनाना बहुत ही मुश्किल है. हां, लेकिन वोट काटने में “जन सुराज” पार्टी की एक महत्वपूर्ण भूमिका रह सकती है.
एक रिपोर्ट के अनुसार प्रशांत किशोर का कहना है कि बिहार में शराबबंदी नहीं है. यहां सिर्फ शराब की दुकानें बंद हैं. अगर जन सुराज की सरकार बनती है तो एक घंटे के अंदर शराबबंदी कानून को हटा दिया जाएगा. दुनिया में कही इसका प्रमाण नहीं है कि शराबबंदी के माध्यम से किसी समाज का आर्थिक, सामाजिक, नैतिक उत्थान ह़ुआ है. शराबबंदी की वजह से बिहार में करीब 15 से 20 हजार करोड़ का नुकसान हो रहा है. प्रशांत किशोर ने बिहार की दुर्दशा के लिए कांग्रेस और भाजपा को जिम्मेदार बताते हुए कहा कि अगर शराबबंदी इतना हीं फायदेमंद है तो भाजपा पूरे देश में शराबबंदी कानून क्यों नहीं लागू करती है. बिहार की बर्बादी के लिए लालू और नीतीश जिम्मेदार हैं.
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जन सुराज की संभावित भूमिका:
वोट कटवा – विशेषकर एनडीए को नुकसान
युवा वोटर्स को अपील – बेरोजगारी, शिक्षा जैसे मुद्दों से
सामाजिक रूप से जागरूक वर्गों का समर्थन – शहरी मध्यम वर्ग, छात्र
जातिगत वोट बैंक की कमी – जो बिहार की राजनीति की हकीकत है
स्थानीय स्तर पर संगठन का अभाव – खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में
क्या बदलेगी बिहार की बयार?
बिहार की राजनीति किसी सीधी रेखा में नहीं चलती. यह जाति, नेतृत्व की विश्वसनीयता, स्थानीय संगठन, और जमीनी पकड़ पर टिकी होती है. जन सुराज एक नई उम्मीद जरूर बन रही है, लेकिन सत्ता तक पहुंचने के लिए उसे जनता के दिल तक पहुंचना होगा – और वह काम आसान नहीं है, जिसका एक बड़ा उदाहरण उपचुनाव में देखने को मिल चुका है.
हालांकि, प्रशांत किशोर को कम नहीं आंका जा सकता, लेकिन राजनीति में “रणनीति” के साथ “जनता का जुड़ाव” जरूरी है. इस चुनाव में वे यदि सीट न भी जीतें, लेकिन 5-10% वोट शेयर बटोर लेते हैं, तो यह भविष्य के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. जन सुराज भले ही अभी सत्ता से दूर हो, लेकिन अगर यह दीर्घकालिक सोच और जनसंपर्क बनाए रखती है, तो बिहार की राजनीति में एक तीसरे विकल्प के तौर पर उभर सकती है.