छत्तीसगढ़ में विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र को बचाने में जुटे शिक्षक, जानें इन यंत्रों से जुड़ी कहानी

CG News: सूरजपुर जिले में कई ऐसे परंपरागत, प्राचीन औऱ अब विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र मिलते हैं. जो आज के युग मे बहुत ही कम लोगों ने देखा होगा. हांलाकि इनमे से कुछ वाद्य यंत्रो की ही तरह अत्याधुनिक वाद्य यंत्र आज के बाजार मे जरूर मिल सकते हैं. लेकिन ऐसे वाद्य यंत्र अब बमुश्किल ही किसी के पास होंगे.
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छत्तीसगढ़ के वाद्य यंत्र

CG News: सूरजपुर जिले में कई ऐसे परंपरागत, प्राचीन और अब विलुप्त हो रहे वाद्य यंत्र मिलते हैं. जो आज के युग मे बहुत ही कम लोगों ने देखा होगा. हांलाकि इनमे से कुछ वाद्य यंत्रो की ही तरह अत्याधुनिक वाद्य यंत्र आज के बाजार मे जरूर मिल सकते हैं. लेकिन ऐसे वाद्य यंत्र अब बमुश्किल ही किसी के पास होंगे. दरअसल सूरजपुर जिले के प्रतापपुर के एक शिक्षक के प्रयास से आज इन विलुप्त होते वाद्य यंत्र को बचाया जा सका है. खास बात ये है कि इनमे से कुछ वाद्य तो ऐसे हैं जिनकी आवाज सुनकर सबसे खतरनाक माने जाने वाला जंगली जानवर शेर भी रिझ जाता था. और बाजा बजाने के पास तक आ जाता था. और कुछ ऐसे विलुप्त होते वाद्य यंत्र हैं. जिनको हाथ के साथ पेट से भी बजाया जाता है..

संरक्षित रखने मे शिक्षक की प्रमुख भूमिका

जिले के प्रतापपुर ब्लाक मे अलग अलग आदिवासी परिवारो के पास करीब 70 से अधिक ऐसे वाद्य यंत्र हैं. जो राजा महराजाओ के समय या उसके पहले प्रचलन मे थे. खास बात ये कि कुछ साल पहले प्राचीन वाद्य यंत्रो को सहेजने का काम करने वाले शिक्षक अजय चतुर्वेदी को पता चली. जिसके बाद उन्होने जिले के विभिन्न गांवो मे लोगो से संपर्क किया. और कबाड मे पडे इन वाद्य यंत्रो की साफ सफाई औऱ मरम्मत करवाकर उसको उन्ही ग्रामीणों के घर मे सुरक्षित रखवा दिया. शिक्षक और प्राचीन वाद्य यंत्रो की खोज करने वाले अजय चतुर्वेदी की बदौलत आज जिले के कई गांवो के आदिवासी परिवारो मे रखे करीब 70 प्राचीन वाद्य यंत्र की धुन एक बार फिर गांवो मे सुनाई देने लगी. और पूर्वजो के अपने वाद्य यंत्रो को उनके उत्तराधिकारी अब बजाना भी सीखने लगे हैं. श्री चतुर्वेदी के मुताबिक इन अलग अलग वाद्य यंत्रो की इतिहास 100 से 200 वर्ष पुराना हो सकता है.

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इन यंत्रों को सुनकर शेर भी पास आ जाते थे

विलुप्त होते प्राचीन वाद्य यंत्रो की श्रंखला मे जिले के सौंतार गांव के रहने वाले हेमंत कुमार आयाम के घर मे 9 ऐसे प्राचीनत वाद्य यंत्र मिलें. श्री आयाम के मुताबिक ये वाद्य यंत्र उनके दादा जी के दादा जी के समय के हैं. जिनका इतिहास भी पुराना औऱ उनका काम भी ऐतिहासिक था. दरअसल हेमंत कुमार आयाम बताते हैं कि इनमे से कुछ वाद्य यंत्र की आवाज सुनकर पुराने समय मे शेर जैसा जंगली जानवर भी रिझ कर ग्रामीणो के चंगुल मे फंस जाता था. इसके अलावा कुछ ऐसे वाद्य ऐसे हैं जो पेट से बजाकर जंगली जानवरो को जंगल की ओर खडेडा जाता था. इसके अवाला कुछ ऐसे भी वाद्य यंत्र हैं जिसको बजाकर आदिवासी समाज के लोग जानवरो से अपनी खेतों की रक्षा करते थे. औऱ भिक्षा औऱ भजन गाने मे उनका उपयोग किया जाता था. दरअसल एक साथ सबसे अधिक वाद्य यंत्र संरक्षित करके रखने वाले हेंमत के मुताबिक दादा जी के समय तक इनका खूब उपयोग होता था. लेकिन धीरे धीरे इसका उपयोग कम हो गया था. लेकिन एक बार फिर इन्हे धरोहर मान कर लोग इस बजाने भी लगें है औऱ सुरक्षित भी रखे हुए हैं. गौरतलब है कि ऐसे प्राचीन औऱ खासकर विलुप्त होते वाद्य यंत्र को सुरक्षित रखने के लिए शासन को ध्यान देना चाहिए औऱ इनके लिए एक संग्राहालय बनाना चाहिए.. जिसकी वाद्य यंत्र रखने औऱ इनकी खोज करने वाले शिक्षक भी मांग कर रहे हैं.

ये हैं प्राचीन और विलुप्त होते वाद्य यंत्र

भरथरी बाजा- इस प्राचीन वाद्य यंत्र का प्रय़ोग प्राय: भीक्षा मांगने के लिए किया जाता था.

डम्फा- चंदन की लकडी से बना ये एक प्राचीन वाद्य यंत्र है. जिसमे बंदर की छाल लगाई जाती थी.

ढोंक- पेट और हाथ के सहारे बजाए जान वाला लगभग विलुप्ती की कगार मे पहुंच चुका वाद्य यंत्र

महुअर- बांसुरी की तरह दिखने वाला प्राचीन वाद्य यंत्र , जिसके ऊपर की तरफ फूंक कर नहीं बजाया जाता है जबकि उसको बीचो बीच बने छिद्र मे हवा फूंक कर बजाया जाता है.

झुनका या शिकारी बाजा- लोहे की रिंग मे लोह के कई छल्ले लगाकर बनाया जाता था. जिसका उपयोग शिकार मे किसी जंगली जानवर को रिझाने के लिए किया जाता था.

मृदंग- छत्तीसगढ समेत मध्यप्रदेश उत्तप्रदेश औऱ बिहार झारखंड मे शराबबंदी के लिए क्रांति लाने वाली राजमोहनी देवी द्वारा बजाए जाने वाला वाद्य यंत्र
किंदरा बाजा- किंदरा का अर्थ होता है. घूम घूम कर.. मतलब किंदरा बाजा का उपयोग पुराने समय मे भिक्षा मांगने के लिए किया जाता था. साथ ही देवी भजन गाते समय इसे बजाया जाता था.

रौनी- सबसे दुर्लभ प्राचीन औऱ अब विलुप्त हो चुके इस वाद्य यंत्र मे मृत गोह की छाल लगाई जाती थी. साथ ही इसमे तार के रूप मे मृत मवेशियो के नसों का इस्तेमाल किया जाता था.

मांदर- ये वाद्य यंत्र आज भी प्रचलन मे हैं. इसका इस्तेमाल आदिवासियो के परंपरागत नृत्य शैला औऱ करमा के दौरान किया जाता है. साथ ही आदिवासी इलाके मे किसी शुभ काम मे इसको बजाए जाने का प्रचलन हैं.

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