‘जाट’, ‘पठान’ और ‘राजपूत’…जातिवाद का नया बॉलीवुड फॉर्मूला! जानिए कितना पुराना है ये ‘खेल’

जब खाप (2011) और शूद्र: द राइजिंग (2012) जैसी फिल्में आती हैं, तो यह साफ हो जाता है कि बॉलीवुड समाज के असल मुद्दों को अपने पर्दे पर दिखाने की कोशिश करता है. लेकिन कभी-कभी, ये सब कुछ ऐसा लगता है जैसे सिर्फ पब्लिक का ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया हो. सच्चाई तो ये है कि जातिवाद को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन क्या ये सच में समाज में सुधार लाने की बजाय सिर्फ पैसा बनाने का तरीका बन गई हैं?
Jaat Trailer

बॉलीवुड फिल्म

Jaat Trailer: बॉलीवुड में अब एक नया ही ट्रेंड चल पड़ा है. जाट, राजपूत, और पठान – ये अब सिर्फ खानदानों के नाम नहीं, बल्कि फिल्मों के टाइटल्स बन गए हैं. जब से सनी देओल की फिल्म जाट का ट्रेलर सामने आया है, एक बार फिर जाति और पहचान के मुद्दे पर बहस छिड़ गई है.

जब से सनी देओल ने डायलॉग मारा है – ‘नो इफ एंड बट, ओनली जट’, तब से ऐसा लग रहा है जैसे बॉलीवुड ने जाति का तगड़ा टर्न लिया है. लेकिन सवाल ये है कि यह बदलाव समाज को जागरूक कर रहा है या फिर ये महज एक क्यूट सी मार्केटिंग ट्रिक है?

अब सनी देओल का नाम सुनते ही सबसे पहले आपके दिमाग में क्या आता है? हां, वो ही ढाई किलो का हाथ, जो दुश्मन को पलक झपकते ही जमीन पर लिटा देता है. लेकिन इस बार उनका किरदार थोड़ा अलग है. वो ‘जाट’ बनकर अपनी जाति पर गर्व महसूस करते हुए फिल्म में खून-खराबे की धमकी दे रहे हैं. “जाट खड़ा करे खाट, लगाए सबकी वाट” — ये डायलॉग आपको जरूर याद होगा! और इस डायलॉग के साथ, अब बॉलीवुड ने एक नई जातिवादी फिल्म शुरू कर दी है, जिसमें हर एक्शन सीन के बाद आपको जातिवाद का तड़का जरूर मिलेगा.

क्या ये बॉलीवुड का नया ‘पैटर्न’ है?

बॉलीवुड का अतीत अगर देखें, तो फिल्मों में जातिवाद का नाम तक नहीं था. हमारे देश में जाति या धर्म का कोई मतलब नहीं-ये था बॉलीवुड का पुराना अंदाज. लेकिन अब कुछ सालों से ऐसा लगता है जैसे बॉलीवुड ने जातिवाद को कूल बना दिया है. सनी देओल की जाट हो या शाहरुख खान की पठान, सब में जाति का बखान ज़ोर-शोर से हो रहा है.

याद कीजिए पठान के गाने “झूमे जो पठान” को! क्या गाना था, और क्या म्यूजिक था! अब, अगर आप गाने के बोल ध्यान से सुनें तो उसमें सिर्फ मस्ती और रोमांस की बात नहीं है, बल्कि पठान जाति का गौरव भी है. शाहरुख खान ने अपने किरदार में एक ऐसा पावर दिखाया, जिसे देखकर लगता है, “पठान बनो, और पूरी दुनिया अपनी है!” यही नहीं, फिल्म में शाहरुख ने बार-बार अपनी जाति पर गर्व किया, जैसे किसी ने सोशल मीडिया पर अपने जातिवाद के तामझाम के साथ गाड़ी की नंबर प्लेट पर जाति का नाम चिपका रखा हो!

बॉलीवुड में जातिवाद पर परफेक्ट टाइमिंग

अब अगर हम सनी देओल की फिल्म जाट की बात करें, तो ये कोई पहली फिल्म नहीं है जिसमें जातिवाद का तड़का लग रहा हो. बॉलीवुड ने इस ट्रेंड को पक्का पकड़ लिया है. 1982 में आई धर्मेंद्र की ‘राजपूत’ भी इसी रास्ते पर चली थी. उस फिल्म में दिखाया गया था कि कैसे एक राजपूत परिवार की ज़िंदगी का तहस-नहस हो जाता है जब उनका राजपाट खत्म कर दिया जाता है. हालांकि, ये फिल्म भी किसी जातिवाद का समर्थन करने से ज्यादा, एक पारिवारिक संघर्ष को दिखाने वाली थी. लेकिन अब वही “राजपूत शान” वाले संवाद और पद्मावत जैसे विवादों ने जातिवाद का प्रचार करते हुए, एक नई दिशा दे दी है. “राजपूत की आन, बान और शान!” – ये लाइन अब फिल्म इंडस्ट्री में एक नया नारा बन गई है.

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जाति के नाम पर पब्लिक को जगाना कितना सही है?

जब खाप (2011) और शूद्र: द राइजिंग (2012) जैसी फिल्में आती हैं, तो यह साफ हो जाता है कि बॉलीवुड समाज के असल मुद्दों को अपने पर्दे पर दिखाने की कोशिश करता है. लेकिन कभी-कभी, ये सब कुछ ऐसा लगता है जैसे सिर्फ पब्लिक का ध्यान आकर्षित करने के लिए किया गया हो. सच्चाई तो ये है कि जातिवाद को लेकर कई फिल्में बन चुकी हैं, लेकिन क्या ये सच में समाज में सुधार लाने की बजाय सिर्फ पैसा बनाने का तरीका बन गई हैं?

साल 2021 में आई जय भीम जैसी फिल्मों ने ज़रूर जातिवाद के खिलाफ एक ज़बरदस्त संदेश दिया. उस फिल्म में जातिवादी व्यवस्था को लेकर बहुत गहरी चोट की गई थी. तो क्या अब सनी देओल की जाट जैसी फिल्में जातिवाद को बढ़ावा देने वाली हैं, या फिर ये बस एक तगड़ा एंटरटेनमेंट पैकेज हैं? यह सवाल सही मायनों में अभी भी हमारे सामने है.

बॉलीवुड के इस ‘जातिवादी’ दौर में क्या सही और क्या गलत?

अब जब फिल्मों में जातिवाद का तड़का लगाने का फैशन बढ़ चुका है, तो सवाल ये उठता है कि क्या ये सही है? क्या हमें जाति और पहचान के नाम पर गौरव बढ़ाने की बजाय, एक बेहतर समाज की दिशा में काम नहीं करना चाहिए? क्या बॉलीवुड का मकसद सिर्फ बॉक्स ऑफिस के लिए जातिवाद को ‘कूल’ बनाना है?

ये जो संदेश हम फिल्मों में देख रहे हैं, वो दर्शकों पर गहरा असर डालते हैं. जातिवाद को लेकर फिल्में बनाना आसान हो सकता है, लेकिन क्या ये फिल्मों की जिम्मेदारी नहीं है कि वे समाज में भाईचारे और समानता का संदेश दें? बॉलीवुड का यह नया ट्रेंड क्या सही दिशा में जा रहा है या यह सिर्फ एक फैशन है, यह कहना मुश्किल है. लेकिन एक बात तो साफ है कि जातिवाद पर आधारित फिल्में अब बॉलीवुड में एक नए तरह की बयार ले आई हैं.

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