शहर डिजिटल और प्रकृति हो रही ऑफलाइन… कंक्रीट के नीचे दब रही जिंदगी की लाइन!

करीब 400 एकड़ का यह शहरी जंगल, जो न केवल विश्वविद्यालय का हिस्सा रहा है बल्कि सैकड़ों वन्य जीवों और जैव विविधता का घर भी, अब सरकार की विकास योजनाओं की ज़द में आ गया है.
Kancha Gachibowli Forest

कंचा गाचीबौली वन क्षेत्र

Hyderabad: हैदराबाद की चमचमाती इमारतों और आईटी कॉरिडोर के बीच बसी एक हरियाली “कंचा गाचीबौली वन क्षेत्र” आज संकट में है. करीब 400 एकड़ का यह शहरी जंगल, जो न केवल विश्वविद्यालय का हिस्सा रहा है, बल्कि सैकड़ों वन्य जीवों और जैव विविधता का घर भी, अब सरकार की विकास योजनाओं की ज़द में आ गया है.

यह प्रश्न केवल एक भूखंड का नहीं, बल्कि हमारी विकास की दिशा, प्राथमिकताओं और भावी पीढ़ियों के अस्तित्व से जुड़ा है. क्या हम आधुनिकता के नाम पर अपना पारिस्थितिक तंत्र खो बैठेंगे?

विवाद की जड़: वन या सरकारी संपत्ति?

यह भूमि 1974 में हैदराबाद विश्वविद्यालय को आवंटित 2300 एकड़ में शामिल थी. समय के साथ इसमें से बस डिपो, स्टेडियम, और दूसरे संस्थानों को ज़मीन दी जाती रही. 2003 में इसे एक निजी कंपनी को खेल परिसर के लिए सौंपा गया था, जो 2006 में सरकार द्वारा पुनः ले ली गई.

कानूनी रूप से भूमि भले सरकार के नाम हो, लेकिन प्राकृतिक दृष्टि से यह एक जीवंत वन क्षेत्र है—जहाँ मोर, हिरण, जंगली सूअर, गोह, साही, और उच्च प्राथमिकता वाली 32 पक्षी प्रजातियाँ पाई जाती हैं (SoIB 2023 रिपोर्ट अनुसार). इस जैविक प्रयोगशाला को नष्ट करने की तैयारी केवल एक हरित भूखंड की नहीं, बल्कि एक शहर की साँसों को छीनने की तरह है.

विकास की जल्दबाज़ी: सरकार का तर्क और जनता की चिंता

तेलंगाना सरकार का तर्क है कि इस भूमि पर आईटी इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर के लगभग ₹50,000 करोड़ का निवेश और 5 लाख रोज़गार सृजित किए जा सकते हैं. गाचीबौली पहले ही एक महँगा और विकसित आईटी हब है, और ऐसे में इस भूमि की नीलामी एक “प्राकृतिक कदम” मानी जा रही है. सरकार यह भी दावा कर रही है कि रॉक फॉर्मेशन और कुछ हरित क्षेत्र बचाए जाएंगे. लेकिन विशेषज्ञों का मानना है कि यह “हैबिटैट फ्रेगमेंटेशन” का कारण बनेगा और वन्य प्रजातियाँ विस्थापित होंगी. सवाल यह है कि क्या विकास का अर्थ हमेशा प्रकृति का विनाश ही रहेगा?

छात्र आंदोलन से लेकर न्यायिक हस्तक्षेप तक

मार्च 2025 में जब जेसीबी मशीनें ज़मीन समतल करने पहुँचीं, तो छात्रों ने इसका तीखा विरोध किया. 50 से अधिक छात्रों को हिरासत में लिया गया, कुछ पर लाठीचार्ज हुआ और #SaveKGFForest सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा. आख़िरकार, सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए पेड़ों की कटाई पर रोक लगाई और पूछा कि इस परियोजना में ऐसी क्या “तत्काल आवश्यकता” है? साथ ही पूछा गया कि क्या कोई पर्यावरणीय मूल्यांकन (EIA) हुआ भी है या नहीं.

वर्तमान में शांति, लेकिन क्या यह स्थायी समाधान है?

अब, जब अदालत की रोक के बाद ज़मीन पर गतिविधियाँ ठप्प हो गई हैं और आंदोलन भी शांत है, तो एक अस्थायी शांति नजर आती है. लेकिन क्या यह स्थायी समाधान है या केवल अगली योजना का इंतज़ार? इतिहास गवाह है कि जब निगरानी कम होती है, विकास की मशीनें दोबारा लौटती हैं. यह चुप्पी धोखा भी हो सकती है. अगर समाज अब भी नहीं चेता, तो अगली बार हो सकता है कोई जंगल न बचे लड़ने के लिए.

प्रकृति बनाम तथाकथित विकास: एक वैश्विक बहस

कंचा गाचीबौली विवाद केवल एक स्थानीय मामला नहीं है. यह उसी वैश्विक संघर्ष का प्रतीक है जो दुनिया के कोने-कोने में चल रहा है:
“क्या हम अपने शहरों को सांस लेने लायक बनाएँगे, या केवल कारपोरेट निवेश योग्य?”

इस विवाद में छिपा बड़ा सवाल यही है कि क्या विकास का रास्ता जंगलों को कुचलते हुए ही निकलेगा? या हम एक ऐसा मॉडल विकसित कर सकते हैं जो विकास और पर्यावरण दोनों को साथ लेकर चले?

संभावित समाधान: KBR मॉडल की पुनरावृत्ति

कार्यकर्ता और पर्यावरण प्रेमी चाहते हैं कि इस भूमि को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिले, जैसे 1990 के दशक में कासु ब्रह्मानंद रेड्डी (KBR) पार्क को मिला था. वह भूमि भी कभी निजी थी, परंतु आज वह हैदराबाद के हरे फेफड़ों में गिनी जाती है.

यदि कंचा गाचीबौली को भी इस रूप में संरक्षित किया जाए, तो यह न केवल पर्यावरण संरक्षण का मॉडल बनेगा, बल्कि शहरी नियोजन में एक नई दिशा का संकेत देगा.

यह भी पढ़ें: पुराना मसाला, नया पाउच – साउथ की स्टाइल में हिंदी का तड़का, जब ‘ढाई किलो के हाथ’ से मिला ‘जाट’

जागरूकता की ज़रूरत: यह लड़ाई सबकी है

सरकारों और अदालतों की भूमिका अहम है, पर इससे भी ज़्यादा ज़रूरी है जन-जागरूकता और सामाजिक भागीदारी. पर्यावरण शिक्षा को स्कूलों में अनिवार्य किया जाना चाहिए. अब मीडिया, तमाम संस्थाओं सहित हम सभी को केवल “विकास” नहीं, “टिकाऊ विकास” की बात करनी होगी. और आम नागरिकों को भी यह समझना होगा कि “धरती केवल सरकार की ज़िम्मेदारी नहीं, हमारी साँसों की भी ज़िम्मेदारी है.”

समय है चेतने का, वरना बहुत देर हो जाएगी:

कंचा गाचीबौली एक संकेत है. यह चेतावनी है कि अगर हम हरियाली की जगह केवल हाई-राइज़ इमारतें देखना चाहते हैं, तो वो दिन दूर नहीं जब प्रदूषण, गर्मी और जल संकट हमारी सबसे बड़ी पहचान बन जाएंगे. हमें अपने बच्चों को केवल डिजिटल भारत नहीं, जीवित भारत देना है, जहाँ वे सांस ले सकें, पेड़ देख सकें और चिड़ियों की आवाज़ सुन सकें. “धरती हमें विरासत में नहीं मिली है, हमने इसे अगली पीढ़ी से उधार लिया है.”- नेटिव अमेरिकन कहावत

ज़रूर पढ़ें