जीती हुई बाजी कैसे हार गई? MP और छत्तीसगढ़ से भी सीख नहीं पाई कांग्रेस!
Haryana Election: भारतीय राजनीति में कांग्रेस के प्रदर्शन से यह समझा जा सकता है कि कैसे कई बार कांग्रेस जीती हुई बाजी हार जाती है. हरियाणा, मध्य प्रदेश, और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने इस समस्या को और स्पष्ट कर दिया है. विशेषज्ञों का मानना है कि कांग्रेस की इस हार की वजह उसके आंतरिक संघर्ष, नेतृत्व की कमजोरियों, और एकजुटता की कमी रही है.
कांग्रेस की आंतरिक कलह- हुड्डा बनाम शैलजा
हरियाणा चुनाव में कांग्रेस के भीतर का आंतरिक टकराव पूरी तरह से उजागर हो गया. भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की खींचतान ने पार्टी को कमजोर कर दिया. कांग्रेस ने चुनावी रणनीति में हुड्डा को अधिक महत्व दिया, लेकिन इस कदम ने दलित समुदाय को नाराज कर दिया, जिनका समर्थन शैलजा के साथ जुड़ा था. राहुल गांधी ने दोनों नेताओं को मिलाने की कोशिश की, लेकिन वह केवल हाथ मिलवा पाए, दिल नहीं. इसका नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस के समर्थक समूह बिखर गए, और पार्टी भीतर ही भीतर टूटने लगी.
हुड्डा को कांग्रेस हाईकमान से पूरी छूट मिली थी, जिसके चलते उन्होंने अपनी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट दिए. लेकिन सैलजा के समर्थकों को महज 9 सीटें दी गईं, जिससे पार्टी के भीतर कलह के बीज बोए गए. इससे दलित वोटों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस से छिटक गया.
बीजेपी का टीमवर्क और बूथ मैनेजमेंट
दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी टीमवर्क और बूथ मैनेजमेंट की ताकत को साबित किया. बीजेपी का संगठनात्मक ढांचा मजबूत है, और चुनावी रणनीति के तहत बूथ स्तर पर काम करना उनकी जीत की कुंजी बनी. बीजेपी ने न केवल अपने कोर वोटर्स को संभाला, बल्कि चुनाव के आखिरी चरण में उन्होंने अपने अभियान को धार दी और कांग्रेस को पीछे छोड़ दिया. जहां अन्य पार्टियां अपने समर्थकों को मतदान तक लाने में नाकाम रहीं, वहीं बीजेपी ने इस काम को बेहतरीन तरीके से अंजाम दिया.
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सैनी बीजेपी के लिए ‘नायाब’
पिछले छह महीनों में नायब सिंह सैनी ने मुख्यमंत्री के रूप में कुछ ऐसे निर्णय लिए हैं, जिन्होंने जनता को काफी प्रसन्न किया है. इन फैसलों में कुछ विशेष वर्गों को ध्यान में रखा गया है.उदाहरण के लिए, उन्होंने 1 लाख 20 हजार कच्चे कर्मचारियों को स्थायी करने की घोषणा की, जिसका सीधा प्रभाव युवाओं पर पड़ा, विशेषकर उन कर्मचारियों पर जो लंबे समय से इस मांग को उठा रहे थे.
किसानों को आकर्षित करने के लिए 24 फसलों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने का वादा भी किया गया था. महिलाओं को ध्यान में रखते हुए, सैनी ने 500 रुपये में सिलेंडर देने की घोषणा की. इसके अतिरिक्त, सरपंचों को 21 लाख रुपये तक का कार्य बिना ई-टेंडरिंग के कराने की अनुमति भी उन्होंने दी. इन निर्णयों के माध्यम से सैनी ने केवल छह महीनों में यह साबित कर दिया है कि वे हर वर्ग के उत्थान के लिए काम कर रहे हैं. नतीजों से स्पष्ट है कि जनता ने भी उन्हें बड़े उत्साह से समर्थन दिया है.
कांग्रेस के बिखरे वोट
कांग्रेस को हरियाणा में एक और झटका तब लगा जब आम आदमी पार्टी (AAP) और अन्य छोटे दलों ने उनके वोट काटे. हुड्डा के कारण कांग्रेस और AAP के बीच गठबंधन की संभावना खत्म हो गई. नतीजा यह हुआ कि AAP ने 90 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, जिससे कांग्रेस के वोट बंट गए. बीजेपी ने इनेलो और जननायक जनता पार्टी (JJP) के बीच दरार को भी भुनाया, जिससे जाट और दलित वोटरों में बिखराव हुआ. इस तरह कांग्रेस के पास बचे हुए वोटों पर पकड़ ढीली हो गई और बीजेपी ने इस वोट बिखराव का फायदा उठाया.
कांग्रेस के मुद्दों का असर क्यों नहीं हुआ?
कांग्रेस ने ‘किसान, जवान और पहलवान’ जैसे मुद्दों को केंद्र में रखकर बीजेपी को घेरने की कोशिश की, लेकिन वे इस विरोध को व्यापक जनता तक पहुंचाने में नाकाम रहे. किसान आंदोलन और अग्निवीर योजना को मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने मोर्चा संभाला, लेकिन बीजेपी ने पीएम पेंशन योजना और अनाजों की न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसी योजनाओं से किसानों का विश्वास जीत लिया.
जाट बनाम गैर जाट समीकरण
बीजेपी की चुनावी रणनीति में जाट बनाम गैर जाट का समीकरण भी कारगर साबित हुआ. उन्होंने गैर-जाट उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी, जिससे ब्राह्मण, वैश्य, पंजाबी और अन्य जातियों के मतदाताओं का समर्थन मिला. दूसरी ओर, कांग्रेस के भीतर का आंतरिक संघर्ष और उम्मीदवारों के चयन में भेदभाव ने उसे कमजोर कर दिया.
कांग्रेस को क्या सीखने की जरूरत है?
हरियाणा चुनाव ने कांग्रेस की एक बड़ी कमजोरी को उजागर किया—उसकी आंतरिक एकता की कमी और चुनावी रणनीति में असंगति. भूपेंद्र सिंह हुड्डा और कुमारी शैलजा के बीच की लड़ाई ने पार्टी को विभाजित कर दिया, और इसी विभाजन का लाभ बीजेपी ने उठाया.
कांग्रेस को यह समझने की जरूरत है कि आंतरिक कलह को सुलझाए बिना वह विपक्ष को मात नहीं दे सकती. जब तक कांग्रेस अपने नेताओं के बीच सामंजस्य स्थापित नहीं करती और एक मजबूत संगठनात्मक ढांचे का निर्माण नहीं करती, तब तक उसकी जीत की संभावना कम ही रहेगी. हरियाणा, एमपी और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस को न केवल अपने आंतरिक संघर्षों को हल करना होगा, बल्कि अपनी चुनावी रणनीति को भी सुदृढ़ करना होगा.