पंजाब में भगत सिंह, दिल्ली में अंबेडकर के अनुयायी… क्या AAP लागू करेगी यह सियासी फॉर्मूला?
Delhi Politics: दिल्ली की सियासत में इन दिनों एक दिलचस्प चर्चा चल रही है. अरविंद केजरीवाल ने अभी तक अपने पद से इस्तीफा तो नहीं दिया है, लेकिन पार्टी के नए मुख्यमंत्री के चयन को लेकर अटकलें तेज हो गई हैं. मंगलवार (17 सितंबर) को दोपहर 12 बजे तक आम आदमी पार्टी (AAP) विधायक दल के नए नेता का नाम घोषित करने वाली है. इसके लिए सुबह 11.30 बजे सभी विधायकों की बैठक बुलाई गई है. इस बीच, एक सियासी चर्चा गरमा रही है कि क्या आम आदमी पार्टी दलित नेता को मुख्यमंत्री बना सकती है? चलिए, इस सियासी खेल के पहलुओं को समझते हैं.
दलित सीएम की चर्चा
2022 में पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले, आम आदमी पार्टी ने सिंबल पॉलिटिक्स की शुरुआत की थी. पार्टी ने अपने पोस्टरों में भगत सिंह और बाबा साहेब अंबेडकर की तस्वीरें दिखाई. इसका उद्देश्य था भगत सिंह के समर्थकों और अंबेडकर के अनुयायियों को एक साथ जोड़ना. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के कार्यक्रमों में भी इन दोनों महान हस्तियों की तस्वीरें एक साथ देखी जाती हैं.
पंजाब में जब आम आदमी पार्टी को बहुमत मिली तो पार्टी ने भगवंत मान को मुख्यमंत्री बनाया, जो सिख समुदाय से आते हैं. भगवंत मान के भगत सिंह से कोई व्यक्तिगत संबंध नहीं हैं, लेकिन आप ने उनके माध्यम से सिख समुदाय के समर्थन को ध्यान में रखा. अब दिल्ली में अंबेडकर के अनुयायी को मुख्यमंत्री बनाने की चर्चा हो रही है. इस राजनीतिक कदम के पीछे की सोच यह हो सकती है कि दिल्ली में दलित समुदाय के प्रभाव को देखते हुए किसी दलित नेता को यह पद सौंपा जाए.
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संभावित चेहरे
सूत्रों के अनुसार, अगर दलित मुख्यमंत्री की नियुक्ति पर आम आदमी पार्टी सहमत होती है, तो विधानसभा की डिप्टी स्पीकर राखी बिड़ला और कुलदीप कुमार के नाम प्रमुख हैं. राखी बिड़ला अन्ना आंदोलन से जुड़ी हुई हैं और पार्टी के भीतर एक प्रभावशाली वक्ता के रूप में पहचान रखती हैं. कुलदीप कुमार भी आप के जुझारू नेताओं में माने जाते हैं और हाल ही में उन्हें पूर्वी दिल्ली से लोकसभा चुनाव में उतारा गया था, हालांकि वे चुनाव जीत नहीं पाए थे.
दलित राजनीति की भूमिका
भारत में दलित मतदाताओं की राजनीति ने समय के साथ कई बदलाव देखे हैं. आजादी के समय दलित मुख्यतः कांग्रेस के साथ जुड़े हुए थे, लेकिन 80 के दशक में दलित राजनीति में नया मोड़ आया. कांशीराम की अगुवाई में दलितों का एक वर्ग बीएसपी के साथ जुड़ गया, जबकि अन्य ने कांग्रेस और जनता दल को समर्थन दिया. बीजेपी ने भी दलित मतदाताओं को साधने की रणनीति अपनाई और 2014 के चुनाव में 34 प्रतिशत दलित वोट प्राप्त किए. उत्तर भारत के कई राज्यों में दलित अब महत्वपूर्ण राजनीतिक फैक्टर बन चुके हैं. दिल्ली में भी दलित मतदाता प्रभावशाली हैं और दिल्ली विधानसभा की 70 सीटों में से 12 सीटें दलितों के लिए रिजर्व हैं.
आम आदमी पार्टी की सिंबल पॉलिटिक्स में बाबा साहेब अंबेडकर की एंट्री भी इसी सियासी खेल का हिस्सा हो सकती है. यह देखना दिलचस्प होगा कि पार्टी की बैठक में इस पर क्या निर्णय लिया जाएगा. क्या दिल्ली की राजनीति में नया चेहरा आएगा? क्या दलित नेता दिल्ली की कमान संभालेंगे? आने वाले समय में इस सियासी पहेली का समाधान जल्द ही सामने आएगा.