न नंबरों का प्रेशर, न किताबों का बोझ… इस गांव ने तो पढ़ाई का मतलब ही बदल दिया!
निम्मो गांव
Nimmo village Story: “मेरे बच्चे के 90% नंबर आए हैं” या “मेरा बेटा क्लास में फर्स्ट आया है”. इस तरह की बातें हमें अक्सर सुनाई देती हैं और अनजाने में ही सही, हम सब इस ‘रेस’ का हिस्सा बन जाते हैं. याद है ‘थ्री इडियट्स’ फिल्म का वो डायलॉग , ‘लाइफ इज ए रेस’ और रेंचो का वो अनोखा स्कूल? पर क्या सच में ढेर सारे नंबर लाना या क्लास में टॉप करना ही अच्छी शिक्षा की निशानी है?
लद्दाख: जहां पूरा गांव ही है ‘स्कूल’
लद्दाख का एक छोटा सा गांव निम्मो, इस पुरानी सोच को बदल रहा है. यह गांव दुनिया को दिखा रहा है कि ‘ज़िंदगी एक रेस’ नहीं, जहां बस किसी भी तरह फर्स्ट आना ही मकसद हो. करीब 1000 लोगों की आबादी वाला यह गांव कहता है कि शिक्षा सिर्फ किताबों और नंबरों तक सीमित नहीं है.
लेह से करीब 36 किलोमीटर दूर बसे इस गांव के लोगों ने तय किया है कि उन्हें अपने गांव में अलग से स्कूल नहीं चाहिए. बल्कि, उन्होंने पूरे गांव को ही स्कूल बना दिया है. इस अनोखे विचार के पीछे एक रिटायर टीचर चेतन आंगचोक का अहम हाथ है.

किताबों से ही नहीं, ज़िंदगी से भी सीखते हैं बच्चे
चेतन आंगचोक का कहना है कि वे ऐसी शिक्षा चाहते हैं जो एक्टिविटी पर आधारित हो. बच्चे रट्टा मारने के बजाय खेल-खेल में, खुशी-खुशी सीखें. उनका मानना है कि गांव में वो सब कुछ है जो बच्चे किताबों में पढ़ते हैं – विज्ञान, गणित, भाषा या पर्यावरण अध्ययन (EVS), सब कुछ यहीं मौजूद है. एक तरह से इस मिट्टी में ही पुराना ज्ञान छिपा है जो बच्चों तक पहुंचना चाहिए.
यहां बच्चों को होमवर्क की बजाय असाइनमेंट मिलते हैं. क्लासरूम में बैठकर पढ़ने के बजाय, पूरा गांव ही उनकी क्लास है. बच्चे पेंटिंग, बुनाई, चित्रकारी जैसी कई पारंपरिक कलाएं सीखते हैं, जो उनकी संस्कृति का हिस्सा हैं.
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सरकार भी कर रही है इस ‘नायाब’ पहल को सपोर्ट
निम्मो गांव की इस पहल को सरकार भी मान रही है. लद्दाख प्रशासन के अधिकारी इस प्रोजेक्ट को पूरा समर्थन दे रहे हैं. हाल ही में गांव में एक मेला लगा, जहां बच्चों ने अपने बनाए अनोखे आइडियाज से सबको हैरान कर दिया. शिक्षा विभाग और भारत सरकार के अधिकारी भी इस मेले में थे और वे इतने प्रभावित हुए कि अब चाहते हैं कि यह अनोखा तरीका दूसरे गांवों में भी पहुंचे.

कार्टून देखने की उम्र में चुनाव कराते हैं बच्चे!
आप सोचिए, जिस उम्र में बच्चे कार्टून देखते हैं, उस उम्र में निम्मो के बच्चे स्कूल में चुनाव करवाते हैं. और वो भी पूरे नियमों के साथ, जैसे देश के बड़े चुनावों में होते हैं. छोटे-छोटे बच्चे बैलेट पेपर से चुनाव करना सीख रहे हैं. चेतन कहते हैं कि नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP) भी कहती है कि दूसरी क्लास तक परीक्षा नहीं होनी चाहिए, और वे भी यही चाहते हैं.
यहां बच्चे पानी से चलने वाली गेहूं पीसने वाली चक्की चलाना सीख रहे हैं, खेती-बाड़ी की बारीकियां समझ रहे हैं. बड़े-बुजुर्गों से किस्से-कहानियों के जरिए ज्ञान ले रहे हैं, नहरों को मैनेज करना सीख रहे हैं. वे अपनी रोज़मर्रा की समस्याओं का हल ढूंढना सीखते हैं. उनका मकसद है कि बच्चों में ज्ञान और हुनर दोनों हों. वे ‘एजुकेशन फॉर लाइफ’ को सच में लागू करना चाहते हैं, जहां बच्चे अपनी समस्याओं का समाधान खुद ढूंढें और उनमें सोचने की क्षमता बढ़े. चेतन आंगचोक को उम्मीद है कि भविष्य में निम्मो से देश को वैज्ञानिक भी मिलेंगे.
परीक्षा का डर नहीं, ख़ुशी का एहसास!
अभी NEP के हिसाब से नर्सरी से दूसरी क्लास तक परीक्षा की ज़रूरत नहीं होती. इस पायलट प्रोजेक्ट का लक्ष्य है कि प्राइमरी तक कोई परीक्षा ही न हो. यहां के लोग चाहते हैं कि मां-बाप और बच्चे परीक्षा की चिंता करना छोड़ दें. बच्चे इस तरह तैयार हों कि जब परीक्षा की बात हो तो उनके चेहरे पर ख़ुशी आए. परीक्षा डरने की नहीं, बल्कि सेलिब्रेट करने की चीज़ होनी चाहिए.
चेतन आंगचोक जब स्पितुक के प्राइमरी स्कूल में टीचर थे, तो उन्होंने वहां भी कई नए प्रयोग किए. जैसे, हर विषय के लिए अलग क्लासरूम बनाए गए थे और बच्चे अपनी पसंद के हिसाब से क्लासरूम बदलते थे. दिसंबर 2022 में जब वे रिटायर हुए, तो बच्चे उनसे गले लगकर रोने लगे थे. यह दिखाता है कि शिक्षा का उनका तरीका बच्चों के दिल को छू जाता है.