सत्ता के सिंहासन से हाशिए तक…बिहार में साल-दर-साल कैसे गिरता गया कांग्रेस का सियासी ग्राफ? लालू की ‘पिछलग्गू’ बनकर रह गई है पार्टी!
कांग्रेस का सियासी कद बिहार में लगातार सिकुड़ता गया
Bihar Election 2025: बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 की सरगर्मियां तेज हैं. नीतीश कुमार की जेडीयू और बीजेपी का एनडीए गठबंधन सत्ता की रेस में है, तो तेजस्वी यादव की अगुवाई में आरजेडी और विपक्षी दलों का महागठबंधन भी जोर-शोर से मैदान में है. लेकिन इस सियासी रण में एक पार्टी ऐसी है, जो कभी बिहार की सत्ता की धुरी हुआ करती थी, लेकिन अब हाशिए पर सिमट चुकी है. वो है कांग्रेस. आखिर क्यों बिहार में कांग्रेस की हालत इतनी खस्ता हो गई? क्यों वो हमेशा लालू प्रसाद यादव की आरजेडी के पीछे चलने को मजबूर रही? कब-कब और कैसे कांग्रेस का सियासी ग्राफ नीचे गिरा? और क्या भविष्य में कांग्रेस अपने दम पर बिहार में सत्ता हासिल कर पाएगी? आइए, सबकुछ आसान भाषा में विस्तार से जानते हैं.
कभी बिहार की सियासत का ‘सूरज’ थी कांग्रेस
एक वक्त था जब बिहार की सियासत में कांग्रेस का सिक्का चलता था. 1950 से 1980 के दशक तक कांग्रेस ने बिहार में कई बार सरकार बनाई. स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती दशकों में कांग्रेस का संगठन इतना मजबूत था कि बिहार की जनता उसे सत्ता का पर्याय मानती थी. लेकिन 1990 के दशक से कांग्रेस का सियासी सूरज धीरे-धीरे ढलने लगा. आज हालत ये है कि बिहार में कांग्रेस न तो अपने दम पर कोई बड़ी लहर पैदा कर पा रही है और न ही गठबंधन में उसे बराबरी का दर्जा मिल रहा.
लालू के उभार ने कैसे बदली सियासत?
1990 का दशक बिहार की सियासत का टर्निंग पॉइंट था. लालू प्रसाद यादव की जनता दल (बाद में आरजेडी) ने मंडल आंदोलन और सामाजिक न्याय की राजनीति को हथियार बनाया. यादव, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों का समर्थन लालू के साथ मजबूती से जुड़ गया. इस दौर में कांग्रेस की जातिगत और सामाजिक आधार वाली राजनीति कमजोर पड़ने लगी. लालू की चतुराई और जनता से सीधे जुड़ने की उनकी शैली ने कांग्रेस को बैकफुट पर धकेल दिया. कांग्रेस, जो पहले बिहार में सभी वर्गों को जोड़ने वाली छतरी थी, अब धीरे-धीरे सिर्फ कुछ खास समुदायों, जैसे मुस्लिम और ऊपरी जातियों तक सिमटने लगी. लालू की आरजेडी ने पिछड़ी जातियों और दलितों को अपनी तरफ खींच लिया, जिससे कांग्रेस का वोट बैंक खिसकता चला गया.
किस-किस चुनाव में नीचे गिरी कांग्रेस?
1990 विधानसभा चुनाव: ये वो दौर था जब लालू प्रसाद यादव ने पहली बार बिहार में जनता दल के नेतृत्व में सरकार बनाई. कांग्रेस इस चुनाव में 71 सीटों पर सिमट गई, जो पहले के मुकाबले बड़ा झटका था. यहीं से लालू का दबदबा शुरू हुआ.
1995 विधानसभा चुनाव: लालू की लहर और मजबूत हुई. जनता दल ने 167 सीटें जीतीं, जबकि कांग्रेस सिर्फ 29 सीटों पर सिमट गई.
2000 विधानसभा चुनाव: लालू की आरजेडी ने 124 सीटें जीतीं, लेकिन कांग्रेस का हाल और खराब हुआ. उसे सिर्फ 23 सीटें मिलीं.
2005 विधानसभा चुनाव (दोनों चरण): नीतीश कुमार और बीजेपी की जोड़ी ने लालू को सत्ता से बाहर किया. कांग्रेस का प्रदर्शन और खराब हुआ, उसे सिर्फ 10 सीटें मिलीं (फरवरी 2005) और फिर 9 सीटें (नवंबर 2005).
2010 विधानसभा चुनाव: ये कांग्रेस के लिए सबसे बुरा साल था. नीतीश-बीजेपी गठबंधन की सुनामी में कांग्रेस सिर्फ 4 सीटों पर सिमट गई.
2015 विधानसभा चुनाव: महागठबंधन (जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस) की जीत में कांग्रेस को 27 सीटें मिलीं. ये थोड़ी राहत थी, लेकिन गठबंधन में कांग्रेस छोटा साझेदार ही रही.
2020 विधानसभा चुनाव: महागठबंधन में कांग्रेस ने 70 सीटों पर लड़कर सिर्फ 19 सीटें जीतीं. आरजेडी ने 75 सीटें जीतकर साबित किया कि गठबंधन में असली ताकत वही है.
लालू के पीछे क्यों रही कांग्रेस?
इन आंकड़ों से साफ है कि 1990 के बाद से कांग्रेस का सियासी कद बिहार में लगातार सिकुड़ता गया. कांग्रेस की बिहार में कमजोरी की कई वजहें हैं, और इसमें लालू प्रसाद यादव की रणनीति का बड़ा रोल रहा है.
वोट बैंक का बंटवारा: लालू ने यादव, मुस्लिम और पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ खींच लिया. कांग्रेस के पास इन वर्गों को लुभाने की कोई ठोस रणनीति नहीं थी.
गठबंधन में छोटा रोल: 2015 और 2020 के चुनावों में कांग्रेस को महागठबंधन में शामिल तो किया गया, लेकिन उसे कम सीटें दी गईं. आरजेडी ने हमेशा बड़े भाई की भूमिका निभाई, और कांग्रेस को उसकी छाया में रहना पड़ा.
कमजोर नेतृत्व: बिहार में कांग्रेस के पास लालू या नीतीश जैसे करिश्माई नेता नहीं रहे. राहुल गांधी और अन्य केंद्रीय नेताओं की रैलियां भी बिहार में कोई बड़ा जादू नहीं दिखा पाईं.
संगठन की कमजोरी: बिहार में कांग्रेस का संगठन बिखर गया. कार्यकर्ताओं का जोश और स्थानीय स्तर पर जमीनी पकड़ खत्म होती चली गई.
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क्या कांग्रेस अपने दम पर सरकार बना पाएगी?
अब सवाल ये है कि क्या भविष्य में कांग्रेस बिहार में अपने दम पर सत्ता की सीढ़ी चढ़ पाएगी? फिलहाल, हालात इसके पक्ष में नहीं दिखते. राजनीति के जानकारों का कहना है कि बिहार में कांग्रेस के सामने “अस्तित्व की लड़ाई” है.
कमजोर वोट शेयर: 2020 के चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर सिर्फ 9.5% था, जबकि आरजेडी का 23% और बीजेपी का 19% था. अपने दम पर इतने कम वोट से सरकार बनाना नामुमकिन है.
जातिगत समीकरण: बिहार की सियासत में जाति का बड़ा रोल है. आरजेडी और जेडीयू ने बड़े वोट बैंक (यादव, मुस्लिम, कुर्मी, कोइरी) पर पकड़ बनाई है. कांग्रेस के पास ऐसा कोई मजबूत जातिगत आधार नहीं है.
नए खिलाड़ी: प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी जैसे नए खिलाड़ी बिहार में उभर रहे हैं, जो कांग्रेस के लिए और चुनौती खड़ी कर सकते हैं.
लेकिन, अगर कांग्रेस बिहार में फिर से उभरना चाहती है, तो उसे कुछ बड़े कदम उठाने होंगे. कांग्रेस को बिहार में एक करिश्माई चेहरा सामने लाना होगा, जो लालू या नीतीश की तरह जनता से सीधा जुड़ सके. कांग्रेस को अपने कार्यकर्ताओं को सक्रिय करना होगा और गांव-गांव तक संगठन को मजबूत करना होगा. युवाओं, महिलाओं और नए वोटरों को लुभाने के लिए ठोस मुद्दों और आधुनिक कैंपेन की जरूरत होगी.
2025 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस फिर से महागठबंधन का हिस्सा है. लेकिन अगर वह आरजेडी की छाया से बाहर निकलना चाहती है, तो उसे अपनी रणनीति में बड़ा बदलाव करना होगा. खैर बिहार में कांग्रेस की कहानी एक ऐसी पार्टी की है, जो कभी सियासत की मल्लिका थी, लेकिन अब सहयोगी की भूमिका में सिमट गई है. लालू की आरजेडी ने उसका वोट बैंक छीना, और कमजोर संगठन ने उसे और पीछे धकेला. 1990 से 2020 तक हर चुनाव में उसका कद छोटा होता गया. फिर भी, अगर कांग्रेस सही रणनीति और नेतृत्व के साथ मैदान में उतरे, तो भविष्य में वह फिर से अपनी खोई जमीन हासिल कर सकती है.