राज्यपालों की बिल रोकने की शक्ति पर सुप्रीम कोर्ट का मास्टर-स्ट्रोक, विधेयक को लटकाने पर लगाम

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को भारतीय संघीय ढांचे के सबसे विवादास्पद सवाल को हमेशा के लिए सुलझा दिया. मसलन, राज्यपाल विधेयक पर कितनी देर तक चुप रह सकते हैं या कहें होल्ड रख सकते हैं, इसकी व्याख्या देश की शीर्ष अदालत ने कर दिया.
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Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने गुरुवार को भारतीय संघीय ढांचे के सबसे विवादास्पद सवाल को हमेशा के लिए सुलझा दिया. मसलन, राज्यपाल विधेयक पर कितनी देर तक चुप रह सकते हैं या कहें होल्ड रख सकते हैं, इसकी व्याख्या देश की शीर्ष अदालत ने कर दिया. मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अगुआई वाली पीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संदर्भ पर 14 सवालों का एक साथ जवाब देते हुए राज्यपालों और राज्य सरकारों के बीच पिछले कई सालों से चल रही खींचतान को स्पष्ट दिशा दे दी.

बिल के सामने राज्यपाल के पास अब सिर्फ तीन रास्ते

संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास अब सिर्फ तीन ही विकल्प हैं, जिसके ज़रिए वह किसी भी बिल के संबंध में अपनी शक्तियों का इस्तेमाल इन्हीं तीन विकल्पों के ज़रिए कर सकता है.

  1. सहमति दे दें (assent)
  2. राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर दें (reserve for President)
  3. सहमति रोकते हुए विधानसभा को पुनर्विचार के लिए वापस भेज दें (withhold assent + return with message)

कुल मिलाकर सबसे बड़ी बात यह है कि “चुपचाप बिल को ड्रॉअर में बंद करके अनिश्चित काल तक लटकाए रखना” अब पूरी तरह असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है. कोर्ट ने साफ कहा है कि सहमति रोकनी है तो रोकें, लेकिन बिल को वापस विधानसभा भेजना ही होगा.

मंत्रिमंडल की सलाह बाध्यकारी नहीं

राज्यपाल बिल पर फैसला करते समय मुख्यमंत्री या मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हुए नहीं हैं. कोर्ट ने तर्क दिया कि अगर राज्यपाल को कैबिनेट की सलाह माननी ही होती, तो सरकार अपने ही बिल को वापस भेजने की सलाह कभी नहीं देती. इसलिए यह क्षेत्र राज्यपाल का निजी विवेक (discretionary power) है. हालांकि राज्यपाल को पूरी छूट है कि वे फैसला कब लें, लेकिन “अनिश्चित काल तक चुप्पी” अब अदालत के दायरे में आएगी. अगर राज्यपाल बहुत लंबे समय तक कोई कदम नहीं उठाते और उसकी कोई वजह भी नहीं बताते, तो सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट उन्हें फैसला लेने का आदेश दे सकता है. गौरतलब है कि कोर्ट ने इसे “संवैधानिक निष्क्रियता” (constitutional inaction) की श्रेणी में रखा है.

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कोई सख्त डेडलाइन नहीं

दरअसल, अप्रैल 2025 में दो जजों की बेंच ने कहा था कि राज्यपाल को 1 से 3 महीने में फैसला करना होगा. लेकिन, आज पांच जजों की संविधान पीठ ने उस फैसले को पलट दिया. कोर्ट ने कहा कि संविधान में लिखा है “जितनी शीघ्र संभव हो”, इसमें दिन या महीने का ज़िक्र नहीं है. इसलिए अदालत सख्त समय-सीमा नहीं लगा सकती.

बिल को खुद-ब-खुद पास कराने का सपना टूटा

कई राज्य सरकारें उम्मीद लगाए बैठी थीं कि अगर राज्यपाल चुप रहे तो बिल को “मान लिया गया सहमति” (deemed assent) मान लिया जाए.. कोर्ट ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया और साफ शब्दों में कहा कि बिना राज्यपाल या राष्ट्रपति की स्पष्ट सहमति के बिल कानून नहीं बन सकता.

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संघीय ढांचे का नया संतुलन

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रणव घाबरू बताते हैं कि यह फैसला दो बातें एक साथ करता है:

  1. राज्यपालों को बिल अनिश्चित काल तक रोकने की खुली छूट खत्म करता है
  2. साथ ही राज्य सरकारों को यह राहत नहीं देता कि वे अदालत के जरिए राज्यपाल पर 30-90 दिन की डेडलाइन थोप सकें

केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, पंजाब जैसे राज्यों में जहां पिछले कुछ सालों में सैकड़ों बिल राज्यपालों के पास लंबित पड़े हैं, अब वहां यह फैसला तुरंत असर दिखाएगा. अब राज्यपालों को या तो सहमति देनी होगी, या राष्ट्रपति भेजनी होगी, या विधानसभा को वापस भेजना होगा. अब चुप रहने का विकल्प खत्म हो गया है. घाबरू कहते हैं कि संविधान पीठ ने फ़ैसले के अंत में जो संदेश दिया, वह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक नई गाइडलाइन बन गया है. पीठ ने कहा कि “संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की जवाबदेही चुप्पी से नहीं, समय पर लिए गए फैसले से तय होगी.”

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