कम वोटिंग से किसका फायदा और किसका नुकसान…हिंदी भाषी क्षेत्रों में क्यों पड़े कम वोट? जानिए क्या कहता है पैटर्न
Lok Sabha Election 2024: देश में शुक्रवार को दुनिया के सबसे बड़े चुनाव का दूसरा चरण समाप्त हुआ. पीएम मोदी अपने आर्थिक रिकॉर्ड, कल्याणकारी उपायों, राष्ट्रीय गौरव, हिंदू राष्ट्रवाद और व्यक्तिगत लोकप्रियता के दम पर लगातार तीसरी बार सत्ता में वापसी की कोशिश कर रहे हैं. दूसरी ओर ‘इंडिया ब्लॉक’ केंद्र की मोदी सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट हुआ है. हालांकि, सत्ता के इस खेल में कौन विजय पताका लहराएगा? इस बात का खुलासा वोटों की गिनती के साथ 4 जून को होगा. लेकिन, पहले और दूसरे चरण के मतदान प्रतिशत को देखते हुए राजनीतिक विश्लेषक अभी से ही जनता का मूड बता रहे हैं. आइये दूसरे चरण के मतदान का पूरा सियासी गुणा- गणित समझते हैं:
पिछली बार की तुलना में 9 फीसदी कम हुआ मतदान
चुनाव आयोग ने दूसरे चरण में 13 राज्यों की 88 सीटों पर हुए मतदान के नए आंकड़े जारी कर दिए हैं. इसके मुताबिक, शुक्रवार शाम सात बजे तक कुल 60.96% मतदान हुआ. इन सीटों पर पिछली बार 70.09 फीसदी मतदान हुआ था. इसके ये मायने हैं कि इस बार इन 88 लोकसभा सीटों पर करीब नौ फीसदी कम मतदान हुआ है. शुक्रवार को दूसरे चरण की वोटिंग के साथ ही अब 13 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में मतदान प्रक्रिया खत्म हो चुकी है.
गर्म मौसम का चुनावी दखल!
चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों को चिंता है कि गर्म मौसम और देश के कुछ हिस्सों में शादियों का असर मतदान पर पहले और दूसरे चरण में पड़ा और आगे के पांच चरणों में भी इसका असर देखने को मिलेगा. वहीं, विश्लेषकों का कहना है कि इस बार मतदाताओं को खींचने के लिए कोई भी मुद्दा पर्याप्त मजबूत नहीं है और मोदी की भारतीय जनता पार्टी का प्रतिबद्ध हिंदू राष्ट्रवादी आधार आत्मसंतुष्टि या अति आत्मविश्वास के कारण बाहर नहीं निकल रहा है, जिसके परिणामस्वरूप कम मतदान हो रहा है.
EC के साथ-साथ राजनीतिक दलों की भी बढ़ी चिंता
वोट करने के लिए लोगों के घरों से बाहर नहीं निकलने को लेकर राजनीतिक दलों को साथ-साथ चुनाव आयोग की भी चिंता बढ़ गई है. विश्लेषकों का कहना है कि खासकर हिंदी भाषी राज्यों में तो मतदाता वोटिंग को लेकर जैसे नीरस हो गए हैं. इससे पहले 2014 और 2019 में अच्छी-खासी तादाद में लोगों ने वोट किया था, लेकिन इस बार मतदाताओं में वो जोश देखने को नहीं मिल रहा है.
हिंदी भाषी राज्यों में अगर यूपी की ही बात की जाए. तो राज्य की 80 लोकसभा सीटों में से 16 सीटों पर पहले और दूसरे चरण में मतदान हुआ. पहले चरण में जहां मतदान प्रतिशत 57 फीसदी रहा वहीं दूसरे चरण में यह आंकड़ा 54.8 फीसदी पर ही अटक गया. इस स्थिति में जानकारों का कहना है कि किसके पक्ष में मतदाताओं ने मत डाला, किसके पक्ष में वोट गया है ये इस ट्रेंड से निकालना काफी मुश्किल है.
यूपी के साथ-साथ इस बार बिहार के मतदाता भी काफी निरस दिख रहे हैं. पहले चरण में जहां 48 फीसदी लोगों ने वोटिंग की. वहीं दूसरे चरण में 54.9 फीसदी मतदाताओं ने ही अपना मतदान किया. बिहार में वोटिंग प्रतिशत कम होने के पीछे पलायन को जोड़कर देखा जा रहा है.
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चुनावी अभियान का कैसा रहा असर?
शुक्रवार को हुए मुकाबलों में आधी से ज्यादा सीटें दक्षिणी राज्यों केरल और कर्नाटक और उत्तर-पश्चिमी राज्य राजस्थान में थीं. 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के बाद से चुनावी अभियान और अधिक गर्म हो गया है क्योंकि मोदी और मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी सांप्रदायिक मुद्दों पर आमने-सामने हैं.
एक ओर पीएम मोदी ने कांग्रेस पर अल्पसंख्यक मुसलमानों का पक्ष लेने,सकारात्मक कार्रवाई को कमजोर करने और विरासत कर लगाने की योजना बनाने का आरोप लगाया है. दूसरी ओर कांग्रेस ने आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि मोदी को हार का डर है और वह बेरोजगारी, बढ़ती कीमतें और ग्रामीण संकट जैसे वास्तविक मुद्दों से मतदाताओं का ध्यान भटकाने के लिए विभाजनकारी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं.
कम वोटिंग के सियासी मायने
बताते चलें कि पिछले 12 में से 5 चुनावों में वोटिंग प्रतिशत कम हुए हैं. और इसमें चार बार सरकार भी बदली है. इसे ऐसे समझिए. साल 1980 के चुनाव में मतदान प्रतिशत कम हुआ और जनता पार्टी को हटाकर कांग्रेस ने सरकार बनाई. वहीं 1989 में मत प्रतिशत गिरने से कांग्रेस की सरकार चली गयी. केंद्र में बीपी सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी. जब 1991 में भी मतदान में गिरावट के बाद केंद्र में कांग्रेस की वापसी हुई. हालांकि 1999 में वोटिंग प्रतिशत में गिरावट के बाद भी सत्ता नहीं बदली. वहीं 2004 में एक बार फिर मतदान में गिरावट का फायदा विपक्षी दलों को मिला. अब इस बार देखना होगा कि सत्ता का ऊंट किस करवट बैठता है.