हम 2008 की गर्मियों में वापस चलते हैं, जब संसद में एक और गंभीर घटना घटी थी. लोकसभा में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार के खिलाफ विश्वास मत प्रस्ताव को लेकर बहस चल रही थी. शाम के चार बजे थे...
इस मामले पर केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा ने कड़ी प्रतिक्रिया दी और कहा कि इस मुद्दे पर जांच होनी चाहिए, ताकि यह साफ हो सके कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ? नड्डा ने यह भी कहा कि विपक्षी नेता मल्लिकार्जुन खड़गे से यह उम्मीद थी कि वे इस मामले की जांच की मांग करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
Opposition Seating Controversy: 18वीं लोकसभा के लिए नई सिटिंग व्यवस्था तय कर दी गई है, लेकिन सीटों को लेकर विवाद अभी भी थमता नजर नहीं आ रहा है. अब समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव और उनकी सांसद पत्नी डिंपल यादव ने इस बदलाव पर नाराजगी जताई है. उनका सवाल है कि अयोध्या से सीनियर […]
विशेषज्ञों का कहना है कि विपक्ष भी कहीं न कहीं इस विदेशी साजिश का हिस्सा बन सकता है. संसद में हंगामा मचाकर विपक्षी दल जनहित के मुद्दों को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे भारत की प्रगति रुक रही है.
योगी आदित्यनाथ ने चेतावनी दी कि जिन्होंने समाज को बांटने की योजना बनाई है, वे एक दिन कट जाएंगे. उन्होंने यह भी कहा कि यह लोग विदेशों में संपत्ति खरीद कर रखते हैं और संकट आने पर यहां से भाग जाएंगे, जबकि देश में संकट का सामना करने वाले आम लोग होंगे."
इससे पहले, 28 नवंबर को झामुमो के वरिष्ठ विधायक स्टीफन मरांडी को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किया गया था. वे जब तक नियमित स्पीकर नहीं चुने जाते, तब तक विधानसभा की कार्यवाही का संचालन करेंगे.
अगर हम इस सारी स्थिति को देखें, तो एक बात साफ है – आम आदमी की चिंता बढ़ती जा रही हैं. महंगाई, ब्याज दरों और मंदी के बीच वह कभी न खत्म होने वाले इंतजार में हैं कि आखिर कब उन्हें राहत मिलेगी.
यह ऑपरेशन ना सिर्फ एक संयुक्त बचाव मिशन था, बल्कि यह एक शानदार उदाहरण भी था कि जब दो देश एक साथ काम करते हैं तो किसी भी संकट का हल निकाला जा सकता है.
सामना में आगे लिखा है, "शिंदे ने बैठक के दौरान अपने पुराने वादे को याद दिलाया, जिसमें कहा गया था कि अगर महायुति को बहुमत मिलता है तो वह खुद मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे. शिंदे का तर्क था कि उनके नेतृत्व में ही पार्टी ने बहुमत हासिल किया है, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री बनाए रखा जाए."
अखिलेश यादव और अन्य नेताओं के लिए सीट आवंटन में यह बदलाव एक कड़ा संदेश देता है कि कांग्रेस अपनी सत्ता की भूख में अपने सहयोगियों को नजरअंदाज कर सकती है. ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस की इस "महारानी" मानसिकता के चलते अन्य दलों के बीच गठबंधन की गांठ ढीली तो नहीं हो जाएगी.