Chhattisgarh के इस गांव में नहीं होती होलिका दहन, जानें क्या है वजह
तेलीनसत्ती गांव
Holi 2025: होली पर्व को लेकर देशभर में धूम है. अलग-अलग परंपरा और रीति रिवाज से पर्व को मनाया जाता है. छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले में एक ऐसा गांव है जहां होली तो खेली जाती है लेकिन जलाई नही जाती. खास बात यह भी है कि इस गांव में दशहरा में रावण नहीं जलाया जाता. यहां कोई चिता भी नहीं जलाई जाती है.गांव में किसी की मृत्यु होने पर पड़ोस के गांव में ले जाकर अंतिम संस्कार किया जाता है. ग्रामीण कहते हैं कि परंपरा का पालन नहीं करने पर ग्रामीणों को विपत्ति का सामना करना पड़ता है.
धमतरी जिले से लगा हुआ एक तेलीनसत्ती गांव है. आपको जानकर हैरानी होगी कि यहां 12 वीं शताब्दी के बाद से अबतक होलिका दहन नहीं हुआ है. कहा जाता है कि एक महिला के होने वाले पति को बली दी गई थी. जिसके बाद उस महिला ने खुद को आग के हवाले कर दिया और वह सती हो गई. इस घटना के बाद से ही तेलीनसत्ती गांव के लोगों ने होलिका दहन नहीं किया है. ग्रामीणों का यह भी मानना है कि जो लोग सदियों से चली आ रही परंपरा को नहीं मानते उनके साथ बुरा होता है या उनकी मृत्यु तक हो जाती है.
बुजुर्गों के अनुसार भानपुरी गांव के दाऊ परिवार में सात भाइयों के बाद एक बहन जन्मी. बहन का नाम भानुमति रखा गया. भाइयों ने अपनी इकलौती बहन के लिए लमसेना यानी घरजमाई ढूंढा. दोनों की शादी तय कर दी गई. लेकिन गांव के ही किसी तांत्रिक ने फसल को प्राकृतिक आपदा से बचाने के लिए जीजा की बलि की सलाह दी. इसके बाद भाइयों ने मिलकर अपने होने वाले जीजा की बलि चढ़ा दी. इधर भानुमति पहले ही उसे अपना पति मान चुकी थी, लिहाजा उसने खुद को आग के हवाले कर दिया और सती हो गई. कहते हैं मौत के बाद वह ग्रामीणों के सपने में आती और दाह संस्कार करने से मना करती थी. ऐसा नहीं करने पर गंभीर परिणाम भुगतने की बात भी कहती थी. यही वजह है कि इस गांव में 12वी शताब्दी से कोई दाह संस्कार नहीं होता. गांव में ही तेलीनसत्ती माता की मंदिर भी है जहां पर ग्रामीण सुबह-शाम पूजा अर्चना करते हैं. खास बात यह है कि मंदिर में महिलाओं का आना वर्जित है. कहा जाता है कि भानुमति तेली थी इसलिए साहू समाज की ओर से एक पुस्तक भी छपवाया गया है.
बहरहाल, इस परंपरा के निरंतर निर्वहन से अब तक हजारों टन लकड़ी स्वाहा होने से बच गई है. गांव की आबोहवा भी प्रदूषण से बची हुई है. गांव में मृतकों का दाह संस्कार भी नहीं किया जाता, बल्कि शवों को पड़ोस के गांव में ले जाकर दाह संस्कार किया जाता है. लोगों का कहना है कि इस परंपरा की जानकारी गांव के बुजुर्ग ने नई पीढ़ी को दी है. वो इस परंपरा को कभी न तोड़ने की हिदायत भी देते हैं.