BJP के लिए नीतीश जरूरी या मजबूरी…कैसे एक कुर्मी नेता ने लालू के ‘साम्राज्य’ को हिला डाला और बन गए बिहार के सिरमौर?
बिहार में सफल रही है नीतीश की राजनीति!
Bihar Election 2025: बिहार की राजनीति का रंगमंच हमेशा से ही गठबंधनों, विश्वासघातों और चतुर चालों का मैदान रहा है. यहां 2025 के विधानसभा चुनावों की घड़ी टिक-टिक कर रही है और केंद्र में एक सवाल जोर-शोर से गूंज रहा है. बीजेपी के लिए नीतीश कुमार आखिर हैं क्या? एक मजबूत सहयोगी जो विकास का रथ खींचे या एक मजबूरी? एक तरफ लालू प्रसाद यादव का यादव-मुस्लिम गढ़, दूसरी तरफ नीतीश का ‘सुशासन बाबू’ वाला जादू. आइए, आसान भाषा में समझते हैं कि कैसे एक साधारण कुर्मी इंजीनियर ने बिहार के सियासी समीकरण उलट-पुलट कर दिए…
लालू का ‘जंगल राज’
1990 के दशक में बिहार लालू प्रसाद यादव के इशारों पर नाचता था. आरजेडी के सुप्रीमो ने यादवों और मुसलमानों को एकजुट कर ‘MY’ (मुस्लिम-यादव) का मजबूत किला खड़ा किया. लेकिन सत्ता का नशा भ्रष्टाचार में बदल गया. चारा घोटाला, किडनैपिंग की बाढ़, सड़कें टूटी-फूटी और न बिजली का नामोनिशान. इसे ‘जंगल राज’ कहा जाने लगा. लालू को 1997 में जेल हो गई, तो पत्नी राबड़ी देवी को सीएम की कुर्सी सौंप दी. पर राज्य का हाल जस का तस. 1995-05 तक आरजेडी का राज चला, लेकिन अपराध और गरीबी ने बिहार को देश का सबसे पिछड़ा राज्य बना दिया.
नीतीश का उदय
1951 में बख्तियारपुर में पैदा हुए नीतीश ने जेपी आंदोलन से राजनीति में कदम रखा. वो कुर्मी समुदाय के एक साधारण इंजीनियर परिवार से आते हैं. सबसे पहले नीतीश कुमार 1985 में हरनौत से विधायक बने. लेकिन असली कमाल 2005 में हुआ. बीजेपी के साथ एनडीए गठबंधन कर उन्होंने चुनाव लड़ा. नतीजा? आरजेडी को धूल चटा दी. नीतीश 2005 से सीएम बने, पहले छोटे कार्यकाल के लिए, फिर पूरे दम के साथ.
कैसे हिलाया लालू का साम्राज्य?
साइकिल ट्रैक, सात निश्चय योजना, हर गांव में बिजली, सड़क, स्कूल. अपराध दर 2005 में 80% गिरी. महिलाओं को साइकिल दी. कुर्मी-कोइरी (लव-कुश) वोट बैंक को मजबूत किया, जो लालू के यादव गढ़ को तोड़ने का हथियार बना. 2013 में मोदी को लेकर बीजेपी से नाता तोड़ा, महागठबंधन (आरजेडी-कांग्रेस) में चले गए. 2015 में फिर जीते, लेकिन 2017 में लालू के घोटालों पर वापस बीजेपी के पाले में आ गए. 2022 में फिर पलटकर महागठबंधन और 2024 में तीसरी बार एनडीए. ये ‘पलटी मार’ नीतीश की ताकत भी, कमजोरी भी.
कुर्मी पावर
बिहार के 15% कुर्मी वोटर नीतीश के बिना एनडीए का गणित बिगाड़ सकते हैं. 2024 लोकसभा में जेडीयू ने 12 सीटें जीतीं. नीतीश ने लालू के ‘साम्राज्य’ को सिर्फ वोटों से नहीं, कामों से हिलाया. जहां लालू परिवारवाद के चक्रव्यूह में फंसे, नीतीश ने विकास को हथियार बनाया. आज बिहार की सड़कें चमकती हैं, लेकिन बेरोजगारी और प्रवासन की समस्या बाकी है.
नीतीश बीजेपी की जरूरत या मजबूरी?
अक्टूबर-नवंबर 2025 में 243 सीटों पर वोटिंग होगी. बीजेपी, जेडीयू, एलजेएपी, हम, आरएलएम का दावा है कि नीतीश ही फिर से सीएम बनेंगे. लेकिन अंदरूनी खींचतान साफ दिख रही है. बीजेपी बूथ-लेवल पर मजबूत है, लेकिन नीतीश के बिना ओबीसी-ईबीसी वोट फिसल सकते हैं.
नीतीश बीजेपी के लिए ‘जरूरी’ हैं क्योंकि बिना उनके एनडीए का अंकगणित लड़खड़ा जाता. लेकिन ‘मजबूरी’ भी, क्योंकि उनकी उम्र , सेहत और पलटमार की छवि भी तो है. लालू का साम्राज्य हिलाने वाला ये कुर्मी नेता अब बिहार का ‘सिरमौर’ बने हैं. 20 साल से ज्यादा सीएम रह चुके.
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कई बार ठिकाने लगाने की कोशिश में थी बीजेपी
बिहार की सियासत में नीतीश कुमार एक ऐसे शतरंज के खिलाड़ी हैं, जिनके सामने बड़े-बड़े दिग्गज भी चाल चलने से पहले सौ बार सोचते हैं. भारतीय जनता पार्टी ने कई बार नीतीश को किनारे करने की रणनीति बनाई, लेकिन हर बार उनकी सियासी चतुराई और जनाधार ने बीजेपी की योजनाओं पर पानी फेर दिया. नीतीश का जादू सिर्फ उनकी नीतियों या विकास के एजेंडे में ही नहीं, बल्कि उनकी उस गहरी समझ में है, जो बिहार की सामाजिक और राजनीतिक जमीन को बखूबी पढ़ लेती है. चाहे जातिगत समीकरण हों या क्षेत्रीय भावनाएं, नीतीश ने हमेशा सही समय पर सही दांव खेला, जिससे बीजेपी न चाहते हुए भी उनके साथ गठजोड़ बनाए रखने को मजबूर रही.
2013 में जब नीतीश ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा और जेडीयू अकेले मैदान में उतरी, तो लगा कि उनका सियासी कद शायद कमजोर पड़ जाए. लेकिन नीतीश ने महागठबंधन के साथ मिलकर न सिर्फ सरकार बनाई, बल्कि बीजेपी को यह अहसास भी कराया कि बिहार में उनकी अनदेखी करना आसान नहीं. 2017 में जब नीतीश फिर बीजेपी के साथ आए, तो यह उनकी कमजोरी नहीं, बल्कि सियासी दूरदर्शिता थी. उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि गठबंधन में उनकी भूमिका हमेशा किंगमेकर की रहे. बीजेपी के लिए नीतीश को साइडलाइन करना इसलिए भी मुश्किल रहा, क्योंकि बिहार में उनका सामाजिक आधार, खासकर कुर्मी, कोइरी और अति पिछड़ा वर्ग किसी भी पार्टी के लिए गेम-चेंजर साबित हो सकता है.
आज भी नीतीश की सियासत का लोहा बीजेपी को मानना पड़ता है. उनकी प्रशासनिक क्षमता, स्वच्छ छवि और बिहार में विकास की छवि ने उन्हें एक ऐसा नेता बना दिया, जिसे नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए आत्मघाती हो सकता है. नीतीश की ताकत सिर्फ उनकी पार्टी या सीटों की संख्या में नहीं, बल्कि उनकी उस रणनीति में है, जो हर बार बीजेपी को उनके सामने झुकने पर मजबूर कर देती है. बिहार की सियासत में नीतीश का यह दबदबा शायद ही कम हो, क्योंकि वे न सिर्फ सियासत के सिरमौर हैं, बल्कि उस खेल के उस्ताद भी हैं.