कहां से आया ‘कट्टा’? हर बार इसी के इर्द-गिर्द घूमती है बिहार की राजनीति, ‘देसी पिस्तौल’ की पूरी दास्तान!
प्रतीकात्मक तस्वीर
Bihar Katta Katha: बिहार की चुनावी हवा में इन दिनों एक शब्द बार-बार गूंज रहा है, वो है कट्टा. पीएम मोदी हर रैली में इस शब्द को चटखारे लेकर बोलते हैं. कभी कहते हैं, कांग्रेस की कनपटी पर कट्टा रखकर RJD ने CM की कुर्सी छीन ली.” कभी चेतावनी देते हैं, “कट्टा, क्रूरता, कुशासन, ये जंगलराज की पहचान है.” बीजेपी के विज्ञापनों में भी यही शब्द चमक रहा है. लेकिन सवाल ये है कि आखिर ये कट्टा है क्या? कहां से आया और बिहार की सियासत में इसका इतना भौकाल क्यों है?
सबसे पहले समझिए कि कट्टा कोई विदेशी पिस्तौल नहीं है. ये बिल्कुल देसी हथियार है, जो गांव-कस्बों के कारीगर घर की रसोई या किराए के कमरे में चुपचाप बना लेते हैं. इसमें पुरानी गाड़ी की स्टीयरिंग का लोहा, साइकिल का स्प्रिंग, पानी का पाइप – जो मिला, उसे जोड़कर बनाया जाता है. एक गोली चलती है, लेकिन अगली गोली चलाते वक्त हाथ में फट भी सकता है. फिर भी अपराधी इसे पसंद करते हैं क्योंकि ये सस्ता है. सूत्रों के मुताबिक, बिहार में दो-तीन हजार से लेकर आठ हजार रुपये तक में आसानी से कट्टा मिल जाता है.
नई जनरेशन को फिल्मों से पता चला नाम
बिहार और उत्तर प्रदेश में इसे कट्टा कहते हैं, वहीं यूपी के कुछ इलाकों में तमंचा. नई जनरेशन को मनोज बाजपेयी की गैंग्स ऑफ वासेपुर, पंकज त्रिपाठी की मिर्जापुर से ये नाम पता चला. और हां, वो गाना तो याद ही होगा, “ठोक देंगे कट्टा कपार में, आइए ना हमरे बिहार में”. रील्स में वायरल, कॉलर ट्यून में हिट. लेकिन असल जिंदगी में ये हंसी-मजाक की चीज नहीं, बल्कि खतरनाक हथियार है. अब आते हैं इसकी जन्मभूमि पर. कट्टे का असली घर है मुंगेर. ये बिहार का एक पुराना शहर है, जहां बंदूकें बनाने की परंपरा सदियों पुरानी है.
मीर कासिम ने शुरू कराया था कट्टे का कारोबार
बात 1760 के दशक की है. उस वक्त बिहार-बंगाल के नवाब थे मीर कासिम. अंग्रेजों से लड़ाई हो रही थी. उनके पास आधुनिक राइफलें थीं, लेकिन भारतीयों के पास सिर्फ तलवार, भाला और तीर-धनुष. मीर कासिम ने मुंगेर के कारीगरों को बुलाया और कहा, “कुछ ऐसा बनाओ जिससे अंग्रेज डरें.” बस, वहीं पहला कट्टा बना. छोटा, सस्ता, लेकिन गोली चलाने वाला. यानी कट्टे का जन्म ही युद्ध के लिए हुआ था.
समय गुजरा, अंग्रेजों का राज आया. मुंगेर बंदूकों के लिए मशहूर हो गया. 19वीं सदी में यहां पांच दुकानें थीं, जहां 10 रुपये से 50 रुपये में देसी पिस्तौल मिल जाती थी. मेले में तो एक रुपये में तमंचा बिकता था. लोग हैरान रहते थे कि इतनी सस्ती बंदूक कहां से आती है. आजादी के बाद भी मुंगेर चमकता रहा. 1960 के दशक तक यहां 64 सरकारी कारखाने थे. रोजाना दो हजार बंदूकें बनती थीं. डेढ़ हजार कारीगर दिन-रात मेहनत करते. ये बंदूकें कौन खरीदता था? जमींदार, छोटे-मोटे राजा और शिकारी. सबको अपनी हनक दिखानी होती थी, इसलिए हथियार जरूरी था. लेकिन 1970 और 80 के दशक में बड़ा बदलाव आया. सरकारी फैक्टरियां एक-एक करके बंद हो गईं. वजह थी लागत ज्यादा होना और सरकारी नीतियां. अब कारीगरों के सामने मुसीबत थी, न रोजगार, न पैसा. लेकिन हुनर था. तो उन्होंने सोचा, “जो बनाना जानते हैं, वही बेचेंगे.” बस, अवैध कारोबार शुरू हो गया.
धीरे-धीरे बढ़ा कट्टे का अवैध व्यापार
पहले ये छोटे स्तर पर था, लेकिन धीरे-धीरे बड़ा धंधा बन गया. ये धंधा कैसे चलता है? बहुत चालाकी से. कोई कारीगर मुंगेर में किराए का मकान लेता है. तीन-चार महीने के लिए. अंदर लेथ मशीन लगती है. बंदूक के पार्ट्स अलग-अलग शहरों से मंगवाए जाते हैं, कोई कोलकाता से स्प्रिंग लाता है, कोई दिल्ली से बैरल. सब कोडवर्ड में ऑर्डर होता है. “साइकिल का हैंडल चाहिए” मतलब बैरल. रात दो बजे से सुबह पांच बजे तक काम चलता है. पुलिस को पता चलता है, तब तक सामान समेटकर नया ठिकाना. सूत्रों के मुताबिक, ये खेल आज भी चल रहा है.
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नए ग्राहक कौन बने?
बिहार की राजनीति बदल रही थी. 1970-80 में छात्र आंदोलन चले. नए-नए नेता निकले. पुराने दिग्गजों को चुनौती दी. जाति के नाम पर ग्रुप बने, रणवीर सेना, लोहरा आर्मी, भूमिहार ब्रिगेड. कम्युनिस्ट विचारधारा भी जोर पर थी. सबको पावर चाहिए था. और पावर दिखाने का सबसे आसान तरीका? हथियार. कट्टा सस्ता था, आसानी से मिलता था. बस, डिमांड बढ़ गई. चुनाव का मौसम आता है तो कट्टे की कीमत आसमान छूने लगती है. नॉर्मल दिन में तीन हजार का कट्टा चुनाव में दस-पंद्रह हजार में बिकता है. किराए पर भी मिलता है, शादी में हवाई फायरिंग के लिए पांच सौ रुपये दिन, किसी “काम” के लिए दो हजार रात. एक सर्वे के मुताबिक, बिहार और यूपी में सत्तर फीसदी बाहुबली नेता अवैध हथियार रखते हैं. चुनाव से तीन महीने पहले डिमांड पांच गुना हो जाती है.
मुंगेर के अलावा एक और जिला है जहां कट्टे खूब बनते हैं, वो है नालंदा. यहां की क्वालिटी मुंगेर जितनी अच्छी नहीं, लेकिन कीमत कम है. गांव के लोहार भी बना देते हैं. पुरानी बाइक का साइलेंसर बैरल बन जाता है, ट्रक का पार्ट ट्रिगर. मुंगेर में एक नाम बहुत मशहूर है, रौनक बीवी. लोग उन्हें “कट्टा क्वीन” कहते हैं. ये शमशेर नाम के बड़े तस्कर की पत्नी हैं. घर में ही मिनी फैक्ट्री चलाती थीं. 2018 में पुलिस ने पकड़ा, जेल भेजा. लेकिन बाद में जमानत पर छूट गईं. आज भी उनका नाम सुनकर पुलिस वाले सावधान हो जाते हैं.
पुलिस क्या कर रही है?
हर साल दस हजार से ज्यादा कट्टे बरामद होते हैं. पुलिस छापे मारती है, फैक्टरियां पकड़ती है. लेकिन तस्कर इससे स्मार्ट हैं. पार्ट्स अलग-अलग जगहों से, फैक्ट्री बदलती रहती है. 2024 में बिहार में बारह सौ से ज्यादा गोलीबारी के मामले दर्ज हुए, जिनमें साठ फीसदी शादी में हवाई फायरिंग से थे. अब सवाल ये है कि पीएम मोदी ने इस शब्द का इस्तेमाल क्यों किया है? क्योंकि ये शब्द 1990 के दशक को याद दिलाता है. उस वक्त लालू प्रसाद यादव की सरकार थी. लोग इसे “जंगलराज” कहते हैं. अपहरण, हत्या, लूट… हर खबर में कट्टा होता था. बाहुबली नेता कट्टा लहराकर वोट मांगते थे. युवक पहले लूटते, फिर गैंग बनाते, फिर नेता बन जाते. बीजेपी का मैसेज साफ है, “आरजेडी मतलब कट्टा, क्राइम, करप्शन.”
30 अक्टूबर को मुजफ्फरपुर में मोदी ने कहा, “कट्टा, क्रूरता, कटुता, यही उनकी पहचान है.” 2 नवंबर को आरा में बोले, “कांग्रेस की कनपटी पर कट्टा रखकर सीएम बनवाया.” नई पीढ़ी इसे रील्स में “कूल” मानती है, लेकिन हकीकत अलग है. कट्टा सिर्फ लोहे का टुकड़ा नहीं, बिहार के इतिहास, गरीबी, बेरोजगारी और सियासत का सिंबल है. सरकार कहती है कि मुंगेर में स्किल सेंटर खोल रही है, कारीगरों को वैध काम देगी. लेकिन जब तक बाहुबली रहेंगे, गरीबी रहेगी, और “रौब” दिखाने की चाहत रहेगी, कट्टे की गूंज बंद नहीं होगी. अब फैसला बिहार की जनता के हाथ में है. कट्टे की सरकार चाहिए या स्मार्ट बिहार? वोट की गोली ही असली जवाब देगी.