जब बाहुबलियों ने नीतीश को पहली बार बनाया CM, पर 7 दिन में ही ढह गई सरकार
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार
Bihar Election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 की गहमागहमी के बीच एक बार फिर बाहुबलियों की चर्चा जोरों पर है. कुछ बाहुबली खुद चुनावी मैदान में उतरे हैं, तो कुछ अपनी पत्नी या रिश्तेदारों को आगे कर पर्दे के पीछे से सियासी दम दिखा रहे हैं. ऐसे में चलिए आपको ले चलते हैं 25 साल पीछे और बताते हैं वो कहानी, जब बाहुबलियों ने नीतीश कुमार को पहली बार बिहार का मुख्यमंत्री बनाया, लेकिन उनकी सरकार महज 7 दिनों में धराशायी हो गई. यह कहानी सियासत, जोड़-तोड़ और बाहुबल की है, जो आज भी बिहार की राजनीति को समझने के लिए अहम है.
2000 का बिहार
साल 2000 में बिहार विधानसभा चुनाव तब हुआ था, जब झारखंड बिहार का हिस्सा था. उस वक्त बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का रुतबा चरम पर था. कई कुख्यात चेहरों ने निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. उस समय विधानसभा में कुल 324 सीटें थीं, और 20 निर्दलीय उम्मीदवार विधायक बने थे. इनमें से ज्यादातर बाहुबली थे, जिनके नाम क्षेत्र में दहशत का पर्याय थे. सूरजभान सिंह, राजन तिवारी, विजय शुक्ला जैसे कई बाहुबली जेल की सलाखों के पीछे रहते हुए भी चुनाव जीत गए थे. ये वो दौर था, जब बाहुबल और सियासत का गठजोड़ बिहार की राजनीति का अहम हिस्सा था.
नीतीश की पहली CM पारी
2000 के चुनाव में कोई भी पार्टी स्पष्ट बहुमत हासिल नहीं कर पाई. राष्ट्रीय जनता दल (RJD) को 124 सीटें मिलीं, जबकि समता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के गठबंधन NDA को 122 सीटें. बहुमत के लिए 163 सीटों की जरूरत थी, जो किसी के पास नहीं थी. केंद्र में उस वक्त अटल बिहारी वाजपेयी की NDA सरकार थी, जिसके दम पर नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ. 3 मार्च 2000 को नीतीश ने पहली बार बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. लेकिन उनकी राह आसान नहीं थी.
NDA को बहुमत जुटाने के लिए निर्दलीय विधायकों का सहारा लेना पड़ा. इस काम का जिम्मा सौंपा गया बीजेपी के दिग्गज नेता कैलाशपति मिश्र को, जिन्हें ‘बिहार बीजेपी का भीष्म पितामह’ कहा जाता था. कैलाशपति ने दिन-रात मेहनत कर 20 में से 15 निर्दलीय विधायकों को नीतीश के पक्ष में लामबंद किया. इनमें कई बाहुबली शामिल थे, जो जेल से सीधे विधानसभा पहुंचे और नीतीश को समर्थन देने का ऐलान किया. कुछ ने तो नीतीश के साथ तस्वीरें भी खिंचवाईं.
7 दिन की सरकार, जोड़-तोड़ की हार
10 मार्च 2000 को नीतीश कुमार को विधानसभा में बहुमत साबित करना था. लेकिन कहानी में ट्विस्ट तब आया, जब विपक्षी खेमे ने भी जोड़-तोड़ शुरू कर दिया. कुछ बाहुबली नेताओं ने कांग्रेस और छोटे दलों के विधायकों को अपने कब्जे में रखा, ताकि नीतीश बहुमत हासिल न कर पाएं. दूसरी तरफ, नीतीश को अपने कक्ष में बाहुबलियों की मौजूदगी से असहजता हो रही थी.
आखिरकार, नीतीश ने जोड़-तोड़ की सियासत में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. उन्होंने बहुमत परीक्षण से पहले ही इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार महज 7 दिनों में खत्म हो गई. यह बिहार की सियासत में एक ऐतिहासिक पल था, जो आज भी चर्चा का विषय है.
2025 में बाहुबलियों का बदला रंग
साल 2000 से 2025 तक बिहार की सियासत में बहुत कुछ बदल गया है. 2020 के चुनाव में सिर्फ एक निर्दलीय उम्मीदवार सुमित सिंह जीत पाए थे, जो अब 2025 में JD(U) के टिकट पर मैदान में हैं. बाहुबलियों का दबदबा कम हुआ है, लेकिन खत्म नहीं हुआ. आज कई बाहुबली अपनी पत्नियों या रिश्तेदारों को चुनाव लड़वाकर अपनी सियासी ताकत बनाए रखने की कोशिश में हैं. बिहार की जनता और सियासत अब पहले से ज्यादा जागरूक है, लेकिन बाहुबल और वोट की सियासत का खेल अभी भी जारी है.
2000 की यह कहानी बताती है कि बिहार की सियासत में बाहुबल और जोड़-तोड़ का खेल कितना प्रभावी रहा है. नीतीश कुमार ने उस वक्त सिद्धांतों के लिए सत्ता छोड़ दी थी, जो उनकी सियासी छवि को आज भी मजबूत बनाता है. 2025 के चुनाव में बाहुबलियों की भूमिका भले ही कम हो, लेकिन उनकी मौजूदगी बिहार की सियासत को रोचक बनाए रखती है.