जब जंजीरों में बंधे जॉर्ज फर्नांडिस ने ‘तानाशाही’ को ललकारा…बिहार चुनाव से पहले PM मोदी ने क्यों सुनाई कहानी?

जब आपातकाल लागू हुआ, जॉर्ज अपनी पत्नी लैला के साथ ओडिशा के गोपालपुर में छुट्टियां मना रहे थे. खबर सुनते ही उन्हें स्थिति की गंभीरता का अंदाजा हो गया. उन्होंने तुरंत फैसला लिया कि अब समय छिपने और इस तानाशाही के खिलाफ लड़ने का है. जॉर्ज अंडरग्राउंड हो गए. कभी साधु बनकर, कभी मजदूर के रूप में तो कभी आम आदमी के भेष में वह देशभर में घूमने लगे.

George Fernandes Story: 25 जून 1975, आधी रात, जब देश गहरी नींद में था, एक झटके में हमारी आजादी छीन ली गई. प्रेस के मुंह पर ताले लगे, हजारों लोग जेलों में ठूंस दिए गए. लेकिन इसी अंधकार में एक नाम ऐसा भी था, जो रोशनी बनकर चमका. एक ऐसा नेता जिसने तानाशाही के सामने घुटने नहीं टेके. यह कहानी है उस अदम्य साहस की, उस अडिग इच्छाशक्ति की, जिसका नाम था जॉर्ज फर्नांडिस.

पीएम मोदी ने आज ‘मन की बात’ में जॉर्ज फर्नांडिस की इसी अनकही कहानी को फिर से ताजा कर दिया. उन्होंने बताया कि कैसे जॉर्ज फर्नांडिस को जंजीरों में बांधा गया था. कैसे मीसा जैसे क्रूर कानून के तहत बिना किसी ठोस वजह के लोगों को जेल में डाल दिया जाता था.

आजादी की सांसें जंजीरों में जकड़ दी गईं

तारीख थी 25 जून 1975, आधी रात का वक्त था और भारत नींद में था. तभी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी. देखते ही देखते देश की आजादी की सांसें जंजीरों में जकड़ दी गईं. हजारों लोगों को बिना किसी ठोस कारण के जेल में डाल दिया गया, प्रेस पर सेंसरशिप लग गई, और संवैधानिक अधिकार छीन लिए गए. यह भारतीय लोकतंत्र पर मंडराया एक ऐसा काला बादल था, जिसकी काली परछाई आज भी हमारे जेहन में जिंदा है.

इसी भयावह माहौल में एक नाम गूंजा, जॉर्ज फर्नांडिस. वह एक तेज-तर्रार समाजवादी नेता थे, जिन्होंने अपना जीवन श्रमिक आंदोलनों और मजदूरों के हक के लिए समर्पित कर दिया था. 1970 के दशक में वह इंदिरा सरकार के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन चुके थे. 1974 की ऐतिहासिक रेल हड़ताल उन्हीं की अगुवाई में हुई थी, जिसने देश को ठप्प कर दिया था और सरकार की नींव हिला दी थी. लाखों रेल कर्मचारियों ने उनके एक आह्वान पर काम रोक दिया था, जिसने इंदिरा गांधी को बेचैन कर दिया था.

भेष बदलकर प्रतिरोध

जब आपातकाल लागू हुआ, जॉर्ज अपनी पत्नी लैला के साथ ओडिशा के गोपालपुर में छुट्टियां मना रहे थे. खबर सुनते ही उन्हें स्थिति की गंभीरता का अंदाजा हो गया. उन्होंने तुरंत फैसला लिया कि अब समय छिपने और इस तानाशाही के खिलाफ लड़ने का है. जॉर्ज अंडरग्राउंड हो गए. कभी साधु बनकर, कभी मजदूर के रूप में तो कभी आम आदमी के भेष में वह देशभर में घूमने लगे. उनका एकमात्र लक्ष्य था कि आपातकाल के खिलाफ प्रतिरोध की ज्वाला को हर हाल में जिंदा रखना.

उनकी गतिविधियां बेहद गुप्त थीं. कोलकाता उनकी गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र था. यहीं वह अपने भरोसेमंद सहयोगियों से गुप्त रूप से मिलते थे, भविष्य की योजनाएं बनाते थे और सरकार के खिलाफ आंदोलन को हवा देते थे. उनका दृढ़ निश्चय था कि वे इस दमनकारी शासन के आगे झुकेंगे नहीं.

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जब जंजीरों में बंधा शेर

लेकिन 10 जून 1976 को जॉर्ज की किस्मत ने पलटा खाया. कोलकाता के एक गिरजाघर में, जहां वह भेस बदलकर छिपे हुए थे, केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की एक टीम ने उन्हें दबोच लिया. उन पर ‘बड़ौदा डायनामाइट केस’ का आरोप लगाया गया. सरकार ने दावा किया कि जॉर्ज ने विस्फोटकों के जरिए सशस्त्र विद्रोह की साजिश रची थी. यह आरोप कितना सच था, यह बाद में बहस का विषय बना, लेकिन उस समय सरकार को जॉर्ज जैसे विरोधी को जेल की सलाखों के पीछे डालने का एक बहाना चाहिए था.

गिरफ्तारी के बाद जॉर्ज को कोलकाता से दिल्ली लाया गया. जब उन्हें दिल्ली की अदालत में पेश किया गया, तो वह दृश्य हर किसी के रोंगटे खड़े कर देने वाला था. वह तस्वीर आज भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है. लाखों मजदूरों की बुलंद आवाज रहे जॉर्ज फर्नांडिस को भारी लोहे की जंजीरों में जकड़ा गया था. उनके हाथ-पैर भारी बेड़ियों से बंधे थे, जैसे वह कोई खूंखार अपराधी हों.

जन आक्रोश और लोकतंत्र की जीत

जॉर्ज फर्नांडिस की जंजीरों में बंधी तस्वीर ने देशभर में आक्रोश की लहर दौड़ाई. मीसा (Maintenance of Internal Security Act) जैसे कठोर कानून के तहत हजारों लोग बिना किसी ठोस सबूत के जेल में डाले गए थे. जॉर्ज की इस अपमानजनक पेशी ने आपातकाल के खिलाफ जनता के गुस्से को और भड़का दिया.

जॉर्ज फर्नांडिस का बिहार से गहरा नाता था.आपातकाल के खिलाफ जयप्रकाश नारायण का आंदोलन बिहार की धरती से ही शुरू हुआ था और जॉर्ज इस आंदोलन के प्रमुख स्तंभों में से एक थे. 1977 में जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल हटाकर आम चुनाव की घोषणा की, तो जॉर्ज ने मुजफ्फरपुर से जेल में रहते हुए चुनाव लड़ा. जंजीरों में जकड़ा वह ‘शेर’ जनता के दिलों में बस गया था. उन्होंने भारी मतों से जीत हासिल की.

क्यों सुनाई गई जॉर्ज फर्नांडिस की कहानी?

अभी 2025 के बिहार विधानसभा चुनावों की आहट है. इस लिए ,’मन की बात’ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जॉर्ज फर्नांडिस की कहानी सुनाने के कई राजनीतिक मायने भी हैं. सबसे पहले, यह कांग्रेस पार्टी पर एक सीधा और जोरदार हमला है. 2025 में आपातकाल की 50वीं बरसी है, जिसे बीजेपी ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाकर कांग्रेस पर राजनीतिक प्रहार कर रही है.

दूसरी बात, यह बिहार के दिल में उतरने की एक सुनियोजित चाल जैसा भी लग रहा है. जॉर्ज फर्नांडिस का बिहार से गहरा नाता था. वह मुजफ्फरपुर से कई बार चुनाव जीते और जेपी आंदोलन के भी एक प्रमुख चेहरे थे. बिहार में चुनावों से पहले, जॉर्ज जैसे लोकप्रिय और सम्मानित नेता की कहानी सुनाकर पीएम मोदी ने न केवल भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश की, बल्कि समाजवादी मतदाताओं को भी अपनी ओर खींचने का प्रयास किया, जो पारंपरिक रूप से कांग्रेस विरोधी रहे हैं.

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