हिंदी भाषियों पर हमले, ठाकरे बंधुओं की सियासत…क्या होगा जब महाराष्ट्र से लौट आएंगे यूपी-बिहार के लोग?

मुंबई का ये तनाव नया नहीं है, लेकिन हर बार ये देश की एकता पर सवाल उठाता है. 1960 से शुरू हुई मराठी अस्मिता की लड़ाई आज सियासी स्वार्थ की भेंट चढ़ रही है. राज और उद्धव की सियासत बिहारियों-यूपी वालों को निशाना बना रही है, लेकिन अगर ये लोग सचमुच चले गए, तो मुंबई का दिल धड़कना बंद हो सकता है.
Hindi Marathi Conflict

ठाकरे बंधु

Hindi Marathi Conflict: सपनों का मायानगरी मुंबई एक बार फिर सुर्खियों में है. लेकिन इस बार वजह न बॉलीवुड है, न ग्लैमर. मामला है हिंदी-मराठी के बीच छिड़ी जंग का, जिसमें बिहार और यूपी के लोग निशाना बन रहे हैं. राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे इस आग में घी डाल रहे हैं, और सवाल उठ रहा है कि अगर बिहारी और यूपी वाले सचमुच मुंबई छोड़कर चले गए, तो इस शहर का क्या होगा?

मराठी मानुष का नारा

बात 1960 के दशक की है, जब मुंबई में एक नया सियासी तूफान उठा. बाल ठाकरे ने शिवसेना बनाई और नारा दिया, “महाराष्ट्र मराठियों का, मुंबई मराठी मानुष की” उस वक्त मुंबई में दक्षिण भारतीय लोग ज्यादा निशाने पर थे. शिवसेना का कहना था कि बाहरी लोग मराठियों की नौकरियां छीन रहे हैं. उस दौर में बिहारी-यूपी वाले कम थे, तो वे ज्यादा चर्चा में नहीं आए.लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, मुंबई की चमक-दमक ने देशभर से लोगों को खींचा.

बिहार और यूपी से मजदूर, रिक्शा चालक, फेरीवाले और छोटे दुकानदार मुंबई पहुंचे. 1980-90 के दशक तक ये “बाहरवाले” शिवसेना के रडार पर आ गए. फिर आया 2006, जब बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने शिवसेना छोड़कर अपनी पार्टी बनाई. महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) और यहीं से शुरू हुआ हिंदी-मराठी तनाव का नया अध्याय.

बिहारियों पर पहला बड़ा हमला

2008 में राज ठाकरे ने ऐसा बवंडर मचाया कि पूरे देश में हंगामा हो गया. मनसे ने बिहार और यूपी के लोगों को निशाना बनाना शुरू किया. फरवरी 2008 में, जब बिहारी और यूपी के युवा रेलवे भर्ती परीक्षा देने मुंबई आए, मनसे कार्यकर्ताओं ने उन पर हमले किए. सड़कों पर मारपीट, तोड़फोड़ और डर का माहौल बन गया. अक्टूबर 2008 में तो हद हो गई.

मुंबई और नासिक में मनसे ने टैक्सी चालकों और फेरीवालों को पीटा. एक बिहारी मजदूर की जान भी चली गई. बिहार में इसका जवाबी गुस्सा भड़का. वहां मराठियों की दुकानों और ट्रेनों पर हमले हुए. उसी साल, जया बच्चन के एक बयान “हम यूपी के लोग हैं, हिंदी में बोलेंगे” ने आग में घी डाला. मनसे ने हिंदी फिल्मों और थिएटरों को निशाना बनाया. ये वो दौर था, जब राज ठाकरे ‘मराठी अस्मिता’ के नाम पर बिहारियों को ‘घुसपैठिया’ बता रहे थे.

2012 से 2024 तक, कभी ठंडा तो कभी गरम

2008 के बाद भी ये तनाव रुक-रुककर सामने आता रहा. 2012 में पालघर में एक बिहारी मजदूर को सिर्फ इसलिए पीटा गया, क्योंकि वो मराठी नहीं बोलता था. इस घटना ने फिर से बवाल मचाया. लेकिन 2014 के बाद, जब बीजेपी-शिवसेना की गठबंधन सरकार बनी, मामला थोड़ा शांत हुआ. फिर आया 2024. महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले मनसे ने फिर से हिंदी भाषियों को निशाना बनाया.

मुंबई के बाजारों में बिहारी और यूपी के फेरीवालों को धमकियां मिलीं. 2025 में तो तनाव और बढ़ गया. जनवरी में मीरा-भायंदर में एक मारवाड़ी दुकानदार पर हमला हुआ, क्योंकि उसने मराठी में जवाब नहीं दिया. फरवरी में वर्ली में एक हिंदी भाषी निवेशक के ऑफिस पर मनसे कार्यकर्ताओं ने तोड़फोड़ की. सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो ने सबको चौंका दिया, जिसमें मनसे कार्यकर्ता गैर-मराठी लोगों को जबरदस्ती मराठी सिखाने के लिए ‘क्लास’ ले रहे थे और न मानने पर मारपीट. अब एक बार फिर से मामला गर्माया है. हिंदी बोलने वालों को निशाना बनाया जा रहा है.

ठाकरे बंधुओं का सियासी खेल!

अब सवाल ये कि राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे ऐसा क्यों कर रहे हैं? जवाब है – सियासत! दोनों की पार्टियां मुश्किल दौर से गुजर रही हैं. राज ठाकरे की मनसे 2019 और 2024 के चुनावों में बुरी तरह फेल हुई. 2024 में उनका वोट शेयर सिर्फ 1.6% रहा. राज को लगता है कि ‘मराठी मानुष’ का नारा फिर से मराठी युवाओं को जोड़ सकता है. साथ ही, 2026 में होने वाले मुंबई नगर निगम (BMC) चुनाव में वो बड़ा दांव खेलना चाहते हैं. मुंबई में मराठी वोटर करीब 40% हैं, और राज उसी को भुनाना चाहते हैं.

वहीं, 2022 में एकनाथ शिंदे की बगावत ने उद्धव ठाकरे की शिवसेना को तोड़ दिया. उद्धव की शिवसेना (यूबीटी) 2024 में कमजोर पड़ गई, वोट शेयर 16% से घटकर 10% हो गया. उद्धव अब मराठी अस्मिता और हिंदुत्व का कॉकटेल बनाकर बीजेपी और शिंदे को टक्कर देना चाहते हैं.

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5 जुलाई 2025 का ट्विस्ट

मुंबई में ‘मराठी विजय रैली’ हुई, जहां 20 साल बाद राज और उद्धव एक मंच पर आए. ये रैली त्रिभाषा नीति हिंदी को स्कूलों में अनिवार्य करने के खिलाफ थी. दोनों ने इसे ‘हिंदी थोपना’ बताया. जानकार मानते हैं कि ये बीएमसी चुनाव के लिए गठजोड़ की शुरुआत है. लेकिन ये सियासी चाल बिहारियों और यूपी वालों के लिए मुसीबत बन रही है. अब सबसे बड़ा सवाल कि अगर बिहार और यूपी के लोग मुंबई छोड़कर चले गए, तो क्या होगा? मुंबई की जान तो ये लोग ही हैं.

श्रम शक्ति: बिहारी और यूपी वाले निर्माण, टैक्सी, फेरीवाली, और छोटे धंधों में रीढ़ की हड्डी हैं. इनके बिना मुंबई की रफ्तार थम सकती है.

बॉलीवुड: हिंदी सिनेमा मुंबई का गौरव है. लाखों मराठियों को रोजगार देता है. अगर हिंदी वालों का बहिष्कार हुआ, तो बॉलीवुड पर संकट आएगा.

अर्थव्यवस्था: यूपी-बिहार से बड़े उद्योगपति मुंबई में निवेश करते हैं. उनके जाने से टैक्स और रोजगार पर चोट पड़ेगी.

सामाजिक तनाव: मुंबई की खूबसूरती उसकी मिली-जुली संस्कृति में है. हिंदी वालों का पलायन सामाजिक एकता को तोड़ सकता है. बिहार-यूपी में जवाबी हमले भी हो सकते हैं, क्योंकि वहां भी लाखों मराठी काम करते हैं.

केंद्रीय मंत्री रामदास अठावले ने चेताया, “बाहरियों को भगाया तो बेरोजगारी बढ़ेगी. मराठी लोग सारी नौकरियां नहीं भर सकते.” बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने कहा, “ये तनाव महाराष्ट्र की छवि और निवेश को नुकसान पहुंचाएगा.” निशिकांत दुबे ने तो यहां तक कह दिया कि ठाकरे बंधु बिहार आकर दिखाएं, पटक-पटककर मारेंगे.

मुंबई तो सबकी है, फिर ये जंग क्यों?

खैर मुंबई का ये तनाव नया नहीं है, लेकिन हर बार ये देश की एकता पर सवाल उठाता है. 1960 से शुरू हुई मराठी अस्मिता की लड़ाई आज सियासी स्वार्थ की भेंट चढ़ रही है. राज और उद्धव की सियासत बिहारियों-यूपी वालों को निशाना बना रही है, लेकिन अगर ये लोग सचमुच चले गए, तो मुंबई का दिल धड़कना बंद हो सकता है. सवाल ये है कि क्या मराठी और हिंदी साथ-साथ नहीं चल सकते? आखिर, मुंबई तो सबकी है, फिर ये जंग क्यों?

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